राजेश बादल का ब्लॉग: नेपाल का सियासी संकट और भारत की भूमिका

By राजेश बादल | Published: July 7, 2020 06:19 AM2020-07-07T06:19:04+5:302020-07-07T06:19:04+5:30

नेपाल के नए संविधान के तहत बनने वाले वे पहले प्रधानमंत्री थे और पंचायत राज प्रणाली के विरोध में आवाज उठाने पर चौदह साल जेल में काट चुके थे. जब 2016 में अविश्वास प्रस्ताव में अल्पमत में आने पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा तो उसके पीछे पुष्प दहल प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन वापस लेना भी एक कारण था.

Nepal's political crisis and India's role | राजेश बादल का ब्लॉग: नेपाल का सियासी संकट और भारत की भूमिका

फोटो क्रेडिट: सोशल मीडिया

Highlightsसंयुक्त परिवार में मुखिया को अक्सर अपने कनिष्ठ सदस्यों की नाराजगी का सामना करना पड़ता है. हिंदुस्तान के साथ कुछ ऐसा ही है.चीन की योजना यह थी कि दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां मिलकर इतने वोट ले लें कि 2018 में भारत समर्थक नेपाली कांग्रेस की सरकार नहीं बन सके.

नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता के अंतरराष्ट्रीय संकेत शुभ नहीं हैं. वैसे तो प्रत्येक मुल्क में सियासी संकट के पीछे उसके अपने अंदरूनी हालात ही होते हैं, लेकिन नेपाल का संकट तो सौ फीसदी परदेस से संचालित है. जब कोई बड़ा राष्ट्र छोटे पड़ोसी को अपने रिमोट से संचालित करने का प्रयास करता है तो अस्थिरता उसका स्वाभाविक परिणाम होती है. चीन इन दिनों नेपाल के साथ यही कर रहा है. 

नेपाल के प्रधानमंत्री खडग प्रसाद शर्मा ओली का इस्तेमाल उसने कर लिया है. अब वह पुष्प दहल प्रचंड पर दांव लगाना चाहता है. उसने यह समय इसलिए भी चुना है क्योंकि इल्जाम भारत के सिर पर मढ़ने के लिए उम्दा अवसर है. किसी भी छोटे पड़ोसी को बड़े पड़ोसी के बारे में संदेह पैदा करने के लिए यह सर्वोत्तम बहाना है. 

इतिहास गवाह है कि नेपाल या पाकिस्तान में अस्थिरता पैदा करना कभी भी हिंदुस्तान की प्राथमिकता की सूची में नहीं रहा है.
नेपाल के प्रधानमंत्री के. पी. शर्मा ओली पिछली बार चीन की सहायता से ही प्रधानमंत्री बन पाए थे. अन्यथा प्रचंड ने उनके दरवाजे तो बंद कर ही दिए थे. वे चीन का उपकार कैसे भूल सकते हैं. 

नेपाल के नए संविधान के तहत बनने वाले वे पहले प्रधानमंत्री थे और पंचायत राज प्रणाली के विरोध में आवाज उठाने पर चौदह साल जेल में काट चुके थे. जब 2016 में अविश्वास प्रस्ताव में अल्पमत में आने पर उन्हें इस्तीफा देना पड़ा तो उसके पीछे पुष्प दहल प्रचंड की कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन वापस लेना भी एक कारण था. वह भी चीन का कुचक्र था और खडग प्रसाद शर्मा ओली ने आरोप लगाया था कि भारत ने उन्हें हटाने का षड्यंत्र किया है. संयुक्त परिवार में मुखिया को अक्सर अपने कनिष्ठ सदस्यों की नाराजगी का सामना करना पड़ता है. हिंदुस्तान के साथ कुछ ऐसा ही है.

इसके बाद नेपाल ने एक बदले हुए ओली को देखा. थोड़ी-बहुत भारत के प्रति सहानुभूति भी उनके मन से जाती रही. वे खुलकर चीन की गोद में बैठ गए. चीन ने ही दोनों नेपाली कम्युनिस्ट पार्टियों को लड़ाया और फिर मेलमिलाप कराया. तभी स्पष्ट हो गया था कि अब दोनों पार्टियां चीन के इशारे पर ही काम करेंगी. 

एक तरह से दोनों वाम दलों के अलग-अलग चुनाव लड़ने का कारण भी यही था कि चीन नेपाल की कांग्रेस परिवार को सत्ता में आते हुए नहीं देखना चाहता था. नेपाली कांग्रेस का हमेशा स्वाभाविक झुकाव भारत की तरफ रहा है. चीन ने ओली और प्रचंड को पर्दे के पीछे से खुलकर आर्थिक मदद दी. 

योजना यह थी कि दोनों कम्युनिस्ट पार्टियां मिलकर इतने वोट ले लें कि 2018 में भारत समर्थक नेपाली कांग्रेस की सरकार नहीं बन सके. हुआ भी यही. दोनों वाम दलों ने मिलकर कांग्रेस को सत्ता से बाहर कर दिया. चूंकि ओली की पार्टी सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी और चीन ने खुलकर पैसा बहाया था इसलिए ओली ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए. 

एक तरफ चीन ने अपना खजाना खोला तो दूसरी तरफ चुनाव में जमकर हिंसा भी कराई. कांग्रेस के उम्मीदवारों की रैलियों में जमकर बम फटे. सौ से अधिक विस्फोट हुए, जो एक छोटे पड़ोसी मुल्क ने पहली बार देखे थे.

संदर्भ के तौर पर याद करना जरूरी होगा कि 1950 में कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन की मदद से नेपाल में सशस्त्र विद्रोह के जरिए तख्ता पलट की कोशिश की थी. घबराए नेपाल ने भारत से सहायता मांगी थी. तब भारत ने मिलिट्री मिशन भेजा. बीस भारतीय फौजी अफसरों ने नेपाल में बैठकर इस षड्यंत्र को नाकाम किया. अरसे तक नेपाल हिंदुस्तान का इसके लिए आभार मानता रहा. लेकिन आज हालात उलट गए हैं. 

सन् 1950 की शांति और रक्षा सहयोग की संधि किसी फाइल में बंद धूल खा रही है. नेपाल खुल्लम-खुल्ला पुणे में बिम्सटेक देशों के साझा सैनिक अभ्यास में सहमति देने के बाद ठीक एक दिन पहले आने से इंकार कर देता है. अब ओली हमारी बिल्ली हमीं से म्याऊं की तर्ज पर जंग की जबान बोल रहे हैं. वे नहीं समझ रहे हैं कि चीन ने उनका इस्तेमाल उपयोग करो और फेंको वाली शैली में कर लिया है. अब वह एक तीर से दो निशाने कर रहा है. 

चीन अब प्रचंड को प्रधानमंत्री पद पर देखना चाहता है, जिससे नेपाल के भीतर यह संदेश जाए कि भारत ने ही ओली को सत्ता से बाहर कर दिया है. यद्यपि नेपाल की अवाम की समझ में यह खेल आने लगा है. लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है. श्रीलंका की तरह नेपाल चीन के शिकंजे में जकड़ चुका है.

श्रीलंका में महिंद्रा राजपक्षे भी ओली की तरह ही चीन के नागपाश में उलझे थे. उनके चुनाव में भी चीन ने करोड़ों रुपए बहाए थे. बदले में श्रीलंका ने चीन से भारी-भरकम कर्ज लिया. जब वह कर्ज की किस्तें नहीं चुका सका तो हंबन टोटा बंदरगाह 99 साल की लीज पर चीन को सौंप देना पड़ा. 

कितने लोग जानते हैं कि 2014 से ही चीन की दो परमाणु पनडुब्बियां श्रीलंका के समंदर में तैनात हैं. दिलचस्प यह कि 2015 के चुनाव में महिंद्रा राजपक्षे चीन के भरपूर पैसे बहाने के बावजूद चुनाव हार गए. फिर उन्होंने आरोप लगाया कि भारत ने उन्हें हराने की साज़शि रची थी. याने हर वह देश भारत पर अपनी सत्ता को अस्थिर करने का आरोप लगाता है, जो चीन की गोद में पल रहा है. चाहे वह नेपाल हो, श्रीलंका हो, पाकिस्तान हो या एक जमाने में मालदीव रहा हो. सारे देश चीन के ऋण जाल में बिंधे हुए हैं. कर्ज के इन समझौतों की शर्तें इतनी गोपनीय हैं कि वहां की संसद तक में नहीं रखी जा सकती है. अब देखना है कि चीन म्यांमार के साथ आने वाले दिनों में क्या करता है.

Web Title: Nepal's political crisis and India's role

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे