मुलायम-कांशीराम ने राम मंदिर आंधी में भी रोक दिया था बीजेपी का विजयरथ, माया-अखिलेश के लिए सबक
By आदित्य द्विवेदी | Published: March 15, 2018 10:48 AM2018-03-15T10:48:59+5:302018-03-15T10:48:59+5:30
बुआ-बबुआ की इस नई जोड़ी के लिए 1993 के गठबंधन में कई सबक छिपे हुए हैं। जो 2019 के आम चुनाव में बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती है।
बात 1993 की है। उत्तर प्रदेश में राम मंदिर आंदोलन जोरों पर था। इसी लहर पर सवार होकर भारतीय जनता पार्टी 1993 के विधानसभा चुनाव जीतना चाहती थी। रामजन्मभूमि आंदोलन को बीजेपी ने धार्मिक नहीं बल्कि राजनीतिक मुद्दा बना दिया था। मुलायम सिंह की ओबीसी और कांशीराम की दलितों की जातिगत राजनीति का हिंदुत्व में ध्रुवीकरण हो रहा था। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के लिए अस्तित्व का संकट मंडराने लगा। दोनों धुर विरोधी पार्टियों ने गठबंधन कर लिया। 25 साल बाद इतिहास एकबार फिर दोहराया गया है। बीजेपी का विजयरथ रोकने के लिए उपचुनाव में मायावती-अखिलेश साथ आए हैं। दोनों के गठबंधन ने बीजेपी के पैरों तले जमीन खिसका दी है। बुआ-बबुआ की इस नई जोड़ी के लिए 1993 के गठबंधन में कई सबक छिपे हुए हैं।
1993 में क्यों साथ आए सपा-बसपा
80 के दशक के उत्तरार्द्ध और 90 के दशक के पूर्वार्ध में पूरे उत्तर प्रदेश में मंडल और कमंडल की राजनीति जोरों पर थी। 1989 में मुलायम सिंह यादव ओबीसी कार्ड खेलकर सत्ता में काबिज हुए। लेकिन जल्दी ही भारतीय जनता पार्टी ने जातिगत राजनीति की लाइन को फीका कर दिया और हिंदुत्व के एजेंडे पर जनता का ध्रुवीकरण किया। रामजन्मभूमि आंदोलन अब धार्मिक ना रहकर राजनीतिक रंग ले चुका था। 1991 के चुनाव में सूबे में केसरिया लहराया और कल्याण सिंह के हाथों में सत्ता आ गई। बीजेपी को 221 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत मिला था।
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भाजपा को जीत का फॉर्मूला मिल चुका था लिहाजा जीत के बाद भी हिंदुत्व का एजेंडा ऊपर रहा। जातिगत राजनीति करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों के लिए अस्तित्व का संकट मंडराने लगा। 'दक्षिण पंथी' प्रभुत्व को रोकने के लिए सभी की निगाहें तत्कालीन सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और बसपा सुप्रीमो कांशीराम पर टिक गई।
विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जबर्दस्त जीत के बाद प्रदेश में लोकसभा उपचुनाव होने थे। कांशीराम लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते थे लेकिन उनकी जीत की राह आसान नहीं थी। मुलायम सिंह यादव ने उन्हें इटावा से चुनाव लड़ने की सलाह दी और अपना समर्थन दे दिया। 1991 में मैनपुरी की एक रैली में ही बसपा नेता खादिम अब्बास ने पहली बार ये नारा दिया था और राजनीतिक इतिहास में काफी चर्चित रहा-
'मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम.'
कांशीराम 1,44,290 वोट के साथ चुनाव जीत गए और बीजेपी के कद्दावर नेता लाल सिंह वर्मा को हार का सामना करना पड़ा। राम मंदिर लहर में यह बीजेपी के लिए बड़ा झटका था। सपा-बसपा का यह प्रयोग सफल रहा। 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कल्याण सिंह को इस्तीफा देना पड़ा। केंद्र ने उत्तर प्रदेश विधानसभा भंग कर दी।
बीजेपी के पैरों-तले जमीन खिसक गई
पूरे प्रदेश में रामजन्मभूमि आंदोलन की लहर थी। बीजेपी जीत को लेकर अतिआत्मविश्वास से भरी हुई थी। इस लहर में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम ने बीजेपी के खिलाफ हाथ मिला लिया। 425 विधानसभा सीटों में से समाजवादी पार्टी ने 267 और बहुजन समाज पार्टी ने 156 सीटों पर चुनाव लड़ा। चुनावी नतीजे बीजेपी के पैरों तले जमीन खिसकाने वाले थे। यद्यपि बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में सामने आई लेकिन बहुमत बहुत दूर था। सपा-बसपा ने कुछ छोटे राजनीतिक दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई। मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री चुना गया। हालांकि ये गठबंधन लंबा नहीं चल सका लेकिन इसने सूबे में बीजेपी के वर्चस्व को अगले दो दशकों तक लगातार चुनौती दी।
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1993 यूपी विधानसभा चुनाव नतीजेः-
पार्टी | सीट जीते |
भारतीय जनता पार्टी | 177 |
कांग्रेस | 28 |
जनता दल | 27 |
बहुमत समाज पार्टी | 67 |
समाजवादी पार्टी | 109 |
अन्य | 17 |
कुल | 425 |
मायावती-अखिलेश की जोड़ी को सबक
एक साल पहले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी को पूर्ण बहुमत मिला था। योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री और केशव प्रसाद मौर्य को उप-मुख्यमंत्री बनाया गया। प्रदेश की बागडोर संभालने के बाद इन दोनों को अपनी संसदीय क्षेत्र से इस्तीफा देना पड़ा। गोरखपुर योगी आदित्यनाथ का गढ़ माना जाता है और फूलपुर में केशव प्रसाद मौर्य बड़े अंतर से जीते थे। उपचुनाव में बीजेपी को एक बड़ा झटका लगा है। बुआ-बबुआ की जोड़ी ने 25 साल पहले मुलायम-कांशीराम का इतिहास दोहराया है। उपचुनाव में दोनों सीटें समाजवादी पार्टी ने जीत ली हैं।
सीट | जीते | हारे |
---|---|---|
गोरखपुर | प्रवीण निषाद (सपा) | उपेंद्र शुक्ल (बीजेपी) |
फूलपुर | नागेंद्र सिंह पटेल (सपा) | कौशलेंद्र सिंह पटेल (बीजेपी) |
पूरे देश में बीजेपी लहर के सामने घुटने टेक रहे विपक्ष के लिए उपचुनाव की यह जीत ऑक्सीजन की तरह साबित हुई है। जो 2019 के आम चुनाव में बीजेपी के लिए मुश्किल खड़ी कर सकती है।