मणिशंकर अय्यर का ब्लॉग: सिद्धांतों के प्रति समर्पित राजनेता राजीव गांधी

By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Published: May 21, 2021 01:35 PM2021-05-21T13:35:18+5:302021-05-21T13:38:04+5:30

राजीव गांधी की अच्छाई ने ही राजनीति में उनकी सीमाएं बांध दीं. हालांकि अगर आज वे जिंदा होते तो उन्होंने साबित कर दिया होता कि राजनीति में भी नैतिकता की जीत होती है.

Mani Shankar Aiyar blog: Rajiv Gandhi a politician devoted to principles | मणिशंकर अय्यर का ब्लॉग: सिद्धांतों के प्रति समर्पित राजनेता राजीव गांधी

21 मई: राजीव गांधी की पुण्यतिथि (फाइल फोटो)

राजीव गांधी एक अच्छे इंसान थे. लेकिन उनकी अच्छाई ने ही राजनीति में उनकी सीमाएं बांध दीं. दिसंबर 1984 के लोकसभा चुनाव में उन्हें जो भारी बहुमत मिला, उसने उन्हें राजनीति में नैतिकता लाने की कोशिश के अपने प्रमुख प्रयोग को शुरू करने के लिए बड़ा आधार प्रदान किया. लेकिन यही वह प्रयोग था जिसने नवंबर 1989 में उनसे बहुमत को वापस ले लिया. 

अपने जीवन के शेष अठारह महीनों में, उन्होंने राजनीति के लिए अपने नैतिक दृष्टिकोण को जारी रखा - और यदि ठीक तीस साल पहले 21 मई 1991 को उनकी हत्या नहीं हुई होती तो उन्होंने साबित कर दिया होता कि राजनीति में भी नैतिकता की जीत होती है.

मुंबई में कांग्रेस के शताब्दी समारोह में राजीव गांधी का वो भाषण

शायद राजनीति में सिद्धांत को लेकर उनका सबसे नाटकीय संबोधन 28 दिसंबर 1985 को मुंबई में कांग्रेस के शताब्दी समारोह का भाषण था, जिसमें उन्होंने ‘सत्ता के दलालों’ की निंदा की थी. मध्यम वर्ग ने इस दृष्टिकोण की सराहना की, लेकिन उनके श्रोताओं में कई लोग इस ‘सत्ता के दलाल’ वर्ग में शामिल थे. 

उन्होंने और पार्टी में उनके संरक्षकों ने फैसला किया कि राजीव की राजनीति का ब्रांड उनके व्यक्तिगत हितों के खिलाफ चला गया है क्योंकि उनकी राजनीति वास्तव में उन्हीं ‘सत्ता के दलालों’ पर आधारित थी. इस पर विचार करने के बाद, मुझे ऐसा लगता है कि अरुण नेहरू, वी.पी. सिंह और आरिफ मोहम्मद खान सहित अन्य के नेतृत्व में राजीवजी का पार्टी में आंतरिक विरोध किए जाने का जन्म उसी समय हुआ था, जबकि बाकी देश राजीव गांधी की सराहना कर रहा था. यह व्यक्तिगत अच्छाई के राजनीतिक रूप से हानिकारक होने का एक उल्लेखनीय उदाहरण था.

अयोध्या में ताले खोले जाने की घटना

ऐसा ही हुआ जब राजीव गांधी ने अयोध्या में ताला खोलने के संबंध में संकीर्ण सांप्रदायिक लाभ की कीमत पर धर्मनिरपेक्षता का समर्थन किया. अरुण नेहरू ने यूपी के सीएम को, जिन्हें उन्होंने व्यक्तिगत रूप से लखनऊ की गद्दी पर बिठाया था, फैजाबाद के सत्र न्यायाधीश का सहारा लेने और उसी अदालत के 1950 के फैसले को उलटने के लिए खड़ा किया, जिसमें कथित तौर पर दिसंबर 1949 की एक रात भगवान की मूर्ति प्रकट होने के बाद, ताला लगाने का आदेश दिया गया था. 

इसने 35 वर्षों तक शहर में शांति बनाए रखी थी. सत्र न्यायाधीश द्वारा अयोध्या में ताला खोलने का आदेश देने के 30 मिनट के भीतर, जब ताले वास्तव में खोले गए, तो श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी. यह सब प्रधानमंत्री को अंधेरे में रखकर किया गया. 

अरुण नेहरू ने राजीव को अंधेरे में रखा था क्योंकि उन्हें पता था कि राजीव कभी भी ऐसे कदम को स्वीकार नहीं करेंगे जो धर्मनिरपेक्षता की जड़ों पर प्रहार करे. जब राजीव को पता चला कि उनके साथ धोखा हुआ है तो उन्होंने कांग्रेस के पदानुक्रम में अरुण नेहरू की स्थिति को तुरंत कम कर दिया. और एक आंतरिक जांच के बाद जब राजीव की सबसे खराब आशंकाओं की पुष्टि हुई तो अरुण नेहरू को मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया गया. 

राजनीतिक परिणाम चाहे जो भी हों, राजीव ने सही काम करने के लिए दृढ़ संकल्प किया था क्योंकि उन्होंने गांधीजी से राजनीति में सिद्धांत की अनिवार्य आवश्यकता के बारे में सीख ली थी.

शाह बानो मामले में क्या हुआ था?

शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के संबंध में भी यही हुआ. मुस्लिम समुदाय के युवाओं और बुजुर्गों के साथ व्यापक परामर्श और कई महीनों तक संसद और मीडिया में हुई बहस में दिए गए तर्कों पर ध्यान से विचार करने के बाद, राजीव ने मुस्लिम महिला (तलाक का अधिकार) विधेयक अपने कानून मंत्री अशोक कुमार सेन द्वारा फरवरी 1986 में पेश कराया था. 

विधेयक को विरोधी रुख रखने वाले मीडिया के एक बड़े वर्ग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ‘उलटने’ की तरह दिखाया गया था, जबकि बिल की भाषा पर परामर्श छह सप्ताह से अधिक समय तक जारी रहा, जिसके दौरान सरकार ने अपने ही विधेयक में कई महत्वपूर्ण संशोधन किए. 

इसके बाद लोकसभा ने 6 मई 1986 को भारी बहुमत से इसे पारित कर दिया. पूरी तरह से मानक संसदीय प्रक्रिया के अनुसार लिए गए इस लोकतांत्रिक निर्णय के बावजूद, एक मशहूर वरिष्ठ अधिवक्ता डेनियल लतीफी ने सितंबर 1986 में सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की, जिसमें कहा गया कि अधिनियम ने 1985 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को उलट दिया है और संविधान के मुख्य प्रावधानों का उल्लंघन किया है. 

सुप्रीम कोर्ट ने लतीफी की याचिका पर फैसला देने में 15 साल का समय लिया. लेकिन जब उसने 2001 में फैसला दिया तो उसमें यह माना गया कि फैसले को ‘उलटना’ तो दूर, अधिनियम ने वास्तव में फैसले को ‘संहिताबद्ध’ किया और किसी भी तरह से संविधान का उल्लंघन नहीं किया. 

1985 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को जबकि भारी  कवरेज दिया गया था, राजीव गांधी को सही ठहराने वाले 2001 के फैसले को बहुत कम या कोई कवरेज नहीं दिया गया. 

अफसोस, फैसला इतनी देरी से आया कि राजीव के लिए खुद यह जानने में बहुत देर हो गई कि देश की सर्वोच्च अदालत ने उन्हें सही साबित किया है. लेकिन जब विवाद अपने चरम पर था तो राजीव ने मुझसे कहा था, ‘‘मुझ पर अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण का आरोप लगाया जा रहा है, लेकिन मुझे बताओ कि इससे मुझे क्या राजनीतिक फायदा मिल रहा है? 

जाहिर है, कोई भी गैर-मुस्लिम मुझे वोट नहीं देगा क्योंकि मैं बिल पास कर चुका हूं. मेरे आलोचकों के अनुसार, कोई भी मुस्लिम महिला मुझे वोट नहीं देगी. और आरिफ के अनुसार, कोई भी ‘आधुनिक’ मुसलमान मुझे वोट नहीं देगा.  तो अगर मैं राजनीतिक लाभ के लिए विधेयक पारित कर रहा था, तो मेरे लिए लाभ कहां है? मैं ऐसा इसलिए कर रहा हूं क्योंकि मुझे धर्मनिरपेक्षता के उस सिद्धांत को कायम रखना है जिस पर हमारा संविधान बना है.’’

जगह की कमी मुझे राजीव गांधी की नैतिक राजनीति के ब्रांड के अन्य उदाहरणों का हवाला देने से रोकती है.  यह उस तरह की नैतिक राजनीति है जो दुख की बात है कि अब पूरी तरह क्षितिज से गायब हो गई है.

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