कश्मीर को कानूनी ही नहीं, भावनात्मक रूप से भी अपनाएं
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: August 11, 2019 06:49 IST2019-08-11T06:49:54+5:302019-08-11T06:49:54+5:30
च लिए तर्क करने के लिए मान लेते हैं कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म करना एक सकारात्मक कदम है,

कश्मीर को कानूनी ही नहीं, भावनात्मक रूप से भी अपनाएं
(लेखक-पवन के. वर्मा)
च लिए तर्क करने के लिए मान लेते हैं कि कश्मीर में अनुच्छेद 370 को खत्म करना एक सकारात्मक कदम है, जिससे कश्मीर में - जैसा कि सरकार ने दावा किया है- समृद्धि, प्रगति आएगी और आतंकवाद खत्म होगा. यह भी मान लेते हैं कि अनुच्छेद 370 एक अस्थायी प्रावधान था और आजादी के 70 साल बाद इसे हटाना जरूरी हो गया था. इस बात को भी मान लेते हैं कि अनुच्छेद 370 को खत्म करने का कानून बन गया है और अब यह सभी भारतीयों का कर्तव्य है कि वे कश्मीर में सामान्य स्थिति बहाल करने के सरकार के प्रयास का समर्थन करें. लेकिन अभी भी यह एक तथ्य है कि अनुच्छेद 370 को जिस तरीके से निरस्त किया गया, वह संवैधानिक औचित्य की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है. यह दृष्टिकोण राजनीतिक नहीं है, बल्कि संविधान के प्रावधानों के मद्देनजर है. संविधान के अनुच्छेद 3 में कहा गया है कि संसद तब तक किसी राज्य के किसी हिस्से को अलग कर नए राज्य का निर्माण नहीं कर सकती या उसकी सीमाओं में परिवर्तन नहीं कर सकती, जब तक कि उस राज्य की विधानसभा इस संबंध में विधेयक पारित करके सिफारिश न करे.
संविधान में इस तरह के स्पष्ट प्रावधान को देखते हुए, सरकार ने क्या किया? उसने जम्मू-कश्मीर में होने वाले चुनावों को टाल दिया और राष्ट्रपति शासन को विस्तारित कर दिया. यह एक चतुराई भरा कदम था, लेकिन संवैधानिक रूप से सही नहीं था. जम्मू-कश्मीर के लोग भी हमारे देश के हाड़-मांस के नागरिक हैं, भारत के लोकतांत्रिक ताने-बाने के बाहर कोई मशीनी कल-पुज्रे नहीं हैं. यदि संविधान कहता है कि इस तरह के अहम बदलावों के पहले उनके विचारों को ध्यान में रखा जाना चाहिए तो सरकार को ऐसा अवश्य करना चाहिए था. तर्क दिया जा सकता है कि अगर सरकार वास्तव में जम्मू-कश्मीर विधानसभा की सिफारिश पर ऐसा करना चाहती तो वह अपने उद्देश्य को कभी हासिल नहीं कर सकती थी, क्योंकि विधानसभा कभी भी अनुच्छेद 370 को खत्म करने की सिफारिश नहीं करती.
यह सच है, लेकिन मैं तब भी यही कहना चाहूंगा कि निर्धारित प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए था और कोई भी अन्य कदम उठाने के पहले- जैसा कि वर्तमान में उठाया गया है- जम्मू-कश्मीर के लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए था. आखिरकार एक पूर्ण राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदला गया है और उसकी विधायिका की शक्तियां उपराज्यपाल में निहित कर दी गई हैं. भारत के पूरे इतिहास में, ऐसा तो कई बार हुआ है कि केंद्र शासित प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया हो, लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि एक पूर्ण राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदला गया हो. संघीय राजनीति में ऐसे मामलों के प्रति संवेदनशील होना आवश्यक है, क्योंकि एक गलत मिसाल अन्य कुप्रथाओं के लिए द्वार खोलती है.
अब जबकि अनुच्छेद 370 को खत्म कर दिया गया है, जम्मू-कश्मीर वासियों के घावों पर मरहम लगाया जाए और वहां सामान्य स्थिति बहाल की जाए, ताकि वह न सिर्फ कानूनी तौर पर भारत के साथ जुड़ा रहे, बल्कि भावनात्मक तौर पर भी जुड़ सके. ऐसा होने की आशा तभी की जा सकती है जब प्रधानमंत्री के वादे के अनुसार, जैसा कि उन्होंने राष्ट्र को संबोधित करते हुए किया है, जम्मू-कश्मीर में बड़े पैमाने पर निवेश हो, रोजगार के अवसर पैदा हों और आर्थिक समृद्धि आए. यह लक्ष्य पाने के लिए पूरा देश प्रधानमंत्री और उनकी सरकार के साथ है. यह ऐसा समय है जब हमें अटल बिहारी वाजपेयी के ‘कश्मीरियत, जम्हूरियत और इंसानियत’ के नारे को याद करने की जरूरत है.