Maharashtra CM: महाराष्ट्र को महिला नेतृत्व का अभी इंतजार?, पिछले 65 साल में राज्य का नेतृत्व करने का अवसर नहीं...

By Amitabh Shrivastava | Updated: February 22, 2025 05:54 IST2025-02-22T05:54:21+5:302025-02-22T05:54:21+5:30

Maharashtra CM: सुप्रिया सुले, विद्या चव्हाण, रजनी पाटिल, प्रणीति शिंदे, वर्षा गायकवाड़, यशोमति ठाकुर, आदिति तटकरे, पंकजा मुंडे, विजया रहाटकर, नीलम गोर्‌हे जैसी अनेक महिलाएं लंबे समय से राजनीति में सक्रिय हैं. इन्हें मंत्री, आयोग या विधान परिषद के उपाध्यक्ष पद तक सीमित रखा गया है.

Maharashtra still waiting women leadership cm blog Amitabh Srivastava last 65 years, no woman has got opportunity lead state | Maharashtra CM: महाराष्ट्र को महिला नेतृत्व का अभी इंतजार?, पिछले 65 साल में राज्य का नेतृत्व करने का अवसर नहीं...

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Highlightsपिछले 65 साल में किसी महिला को राज्य का नेतृत्व करने का अवसर नहीं मिला.विजयलक्ष्मी पंडित के बाद दूसरी महिला राज्यपाल तक नहीं बनी. नेतृत्व महिला के रूप में प्रतिभा पाटिल और प्रभा राव को सौंपा.

Maharashtra CM: देश की राजधानी में बीते गुरुवार को चौथी महिला दिल्ली के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ गई. इससे पहले मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब, जम्मू-कश्मीर जैसे राज्यों में महिला को मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य मिला. किंतु महाराष्ट्र जैसे प्रगतिशील विचारों के राज्य, जहां जिजाऊ माता, सावित्रीबाई फुले, रमाबाई आंबेडकर, बहिनाबाई जैसी महिलाओं का नाम समाज सुधारक- उद्धारक के रूप में लिया जाता है, में पिछले 65 साल में किसी महिला को राज्य का नेतृत्व करने का अवसर नहीं मिला.

राजनीतिक पदों को छोड़ संवैधानिक पदों पर भी राज्य में विजयलक्ष्मी पंडित के बाद दूसरी महिला राज्यपाल तक नहीं बनी. यही हाल कुछ विधानसभा अध्यक्ष का भी रहा. नब्बे के दशक में राज्य में स्थानीय निकायों में महिला आरक्षण लागू करने के बाद महापौर, नगराध्यक्ष, जिला परिषद अध्यक्ष और सरपंच पद महिलाओं को दिए जाने लगे.

लेकिन बिना आरक्षण लोकसभा-विधानसभा चुनावों को जीतने के बाद भी महिलाओं को किसी महत्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी नहीं मिली. उन्हें महिला एवं बाल विकास जैसे मंत्रालय और कुछ मंत्रालयों में राज्यमंत्री के पद तक सीमित रखा गया. वहीं, दूसरी ओर राज्य में शीर्ष प्रशासनिक पद, मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक तक महिलाएं अपनी वरीयता के अनुसार अवश्य ही पहुंच चुकी हैं.

ताजा राजनीतिक परिदृश्य में गत वर्ष राज्य विधानसभा चुनाव में 21 महिलाएं चुनाव जीत पाईं, जो वर्ष 2019 के चुनाव की संख्या 24 से तीन कम थी. हालांकि 250 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया गया था. जीतने वाली महिलाओं में भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के सर्वाधिक 14 प्रत्याशी थे. उसके पश्चात राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा अजित पवार गुट) की चार महिलाओं ने चुनाव जीता.

बाद में 42 सदस्यीय मंत्रिमंडल के गठन में चार महिलाएं मंत्री बनीं, जिनमें से दो कैबिनेट और दो राज्य स्तर की मंत्री थीं. इससे पहले, मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की कैबिनेट में केवल एक महिला मंत्री थीं. यह स्थिति केवल नई सरकार के समय की नहीं, बल्कि हमेशा ही राज्य में बनी रही है. कांग्रेस ने राजनीतिक स्तर पर राज्य का अपना नेतृत्व महिला के रूप में प्रतिभा पाटिल और प्रभा राव को सौंपा.

यह कार्य भाजपा, शिवसेना और राकांपा के लिए संभव नहीं हो पाया. सत्ता में रहते हुए हर दल ने महिलाओं से जुड़े विभागों या आयोगों तक उन्हें सीमित रखा और उन्हें शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचने का अवसर नहीं दिया. हालांकि महाराष्ट्र ही वह राज्य है, जिसने प्रतिभा पाटिल के रूप में भारत को पहली महिला राष्ट्रपति दिया था. यह कार्य अमेरिका सहित अनेक विकसित राज्य अभी तक नहीं कर पाए हैं.

करीब तीन दशक पहले, वर्ष 1992 में देश में किए गए संविधान के 73वें-74वें संशोधन के बाद वर्ष 1994 में स्थानीय निकायों और पंचायतों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने पेश किया. उस समय ऐसा कदम उठाने वाला महाराष्ट्र पहला राज्य बना.

उससे आगे निकल वर्ष 2011 में तत्कालीन पृथ्वीराज चव्हाण सरकार ने महिला आरक्षण को बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया. इस परिवर्तन के साथ निचले स्तर पर महिलाओं को कानूनी तौर पर न्याय मिलने लगा, लेकिन राज्य के स्तर पर अभी इंतजार बाकी है. हालांकि राज्य के लगभग सभी दलों में सुप्रिया सुले, विद्या चव्हाण, रजनी पाटिल, प्रणीति शिंदे, वर्षा गायकवाड़, यशोमति ठाकुर, आदिति तटकरे, पंकजा मुंडे, विजया रहाटकर, नीलम गोर्‌हे जैसी अनेक महिलाएं लंबे समय से राजनीति में सक्रिय हैं. इन्हें मंत्री, आयोग या विधान परिषद के उपाध्यक्ष पद तक सीमित रखा गया है.

इनमें से कोई अपनी पार्टी के नेतृत्व के योग्य तक नहीं माना गया है. वर्तमान दौर में केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में बनी सरकार ने महिलाओं के लिए विशेष योजनाएं संचालित कीं. रसोई गैस से लेकर शौचालय तक और मासिक आर्थिक सहायता से लेकर लखपति बहन, ड्रोन दीदी तक महिलाओं को सशक्त बनाने की मुहिम चलाई, जिसका सामाजिक और राजनीतिक दोनों प्रकार से लाभ हुआ.

बावजूद इसके पार्टी स्तर पर कोई परिवर्तन नहीं आया. सांसद से लेकर विधायक तक और प्रदेशाध्यक्ष से लेकर मुख्यमंत्री तक सीमाएं साफ नजर आईं. महिलाओं को महाराष्ट्र में प्रगतिशील और उदारवादी विचारों का बोलबाला होने के बावजूद  राजनीतिक स्तर पर लाभ नहीं मिल पाया है. यदि प्रयासों की नजर से भी देखा जाए तो किसी नेता विशेष को आगे बढ़ाने की कोशिश भी नहीं की जा रही है.

जिन स्थानों पर महिलाएं आगे आ रही हैं, वे या तो किसी राजनीतिक पृष्ठभूमि से हैं या फिर स्वयं के परिश्रम से अपना स्थान पा रही हैं. हालांकि राजनीति, विशेष रूप से चुनाव के समय, में लाड़ली बहन से लेकर गुलाबी रंग में ढल कर प्रचार अभियान चलाने में कोई संकोच नहीं है. यहां तक कि पिछले कुछ सालों से यह माना जाने लगा है कि महिला वोट बैंक की ताकत से चुनाव भी जीता जा सकता है.

उसमें धर्म, पंथ और जाति का कोई भेद पैदा नहीं होता है. मगर संगठन स्तर पर अवसर देने के पहले चुनाव जीतने की संभावित क्षमता से लेकर नेतृत्व को लेकर भी अनेक चिंताएं सामने रखी जाती हैं. अब आवश्यक यही है कि अपने अतीत को देख महाराष्ट्र राजनीतिक स्तर पर महिला नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए मन बनाए. देश में जिन राज्यों ने महिलाओं को कमान सौंपी, उन्होंने भरोसे के साथ अवसर दिया.

महाराष्ट्र में शिवसेना की किशोरी पेडणेकर, सुषमा अंधारे, राकांपा की रूपाली चाकनकर, रूपाली ठोंबरे, भाजपा की चित्रा वाघ, नवनीत राणा, कांग्रेस में प्रतिभा धानोरकर, डॉ प्रज्ञा सातव जैसे अनेक नए नाम सामने हैं. इनके साथ राज्य की राजनीति में महिलाओं की संख्या में कमी नहीं है. किंतु राजनीतिक दलों में विश्वास की कमी है.

वे महिलाओं के नाम पर मत हासिल कर सकते हैं, लेकिन उनके नेतृत्व पर भरोसा नहीं कर पा रहे हैं. हालांकि अन्य राज्यों के अनुभव के आधार पर महाराष्ट्र में भी महिला नेतृत्व की प्रतीक्षा समाप्त होनी चाहिए. जब महाराष्ट्र राष्ट्र को राष्ट्रपति दे सकता है तो कोई एक दल कम से कम एक महिला को मुख्यमंत्री क्यों नहीं बना सकता है?

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