Maharashtra LS polls 2024: आगाज यदि ये है तो अंजाम क्या होगा!, महाराष्ट्र की राजनीति में अलग कहानी, सीट और टिकट बंटवारे पर पढ़िए ये रिपोर्ट
By Amitabh Shrivastava | Published: March 30, 2024 11:42 AM2024-03-30T11:42:41+5:302024-03-30T11:44:19+5:30
Maharashtra LS polls 2024: उम्मीदवारों की सूची जारी करने में भाजपा सबसे आगे रही और उसने अपने 20 उम्मीदवार घोषित किए.
Maharashtra LS polls 2024: लोकसभा चुनाव के लिए अभी तक भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने 24, शिवसेना ठाकरे गुट ने 17, शिवसेना के शिंदे गुट ने आठ, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) अजित पवार गुट ने दो, कांग्रेस ने सात उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. राकांपा शरद पवार की ओर से बारामती से सुप्रिया सुले और रावेर से रोहिणी खड़से के नाम अघोषित तौर पर उम्मीदवारों की सूची में माने जा रहे हैं. यूं देखा जाए तो इस चुनाव में राज्य के उम्मीदवारों की सूची जारी करने में भाजपा सबसे आगे रही और उसने अपने 20 उम्मीदवार घोषित किए.
उसके बाद भाजपा ने कुछ और नामों की घोषणा की. इस बीच, वंचित बहुजन आघाड़ी ने भी नौ नामों की घोषणा कर मराठा आरक्षण आंदोलन का नेतृत्व कर रहे मनोज जरांगे से तालमेल का ऐलान कर दिया. माना यह जा रहा था कि लंबी माथापच्ची के बाद घोषित किए गए आधे नामों का स्वागत होगा, लेकिन किसी भी दल में आनंद की स्थिति नहीं है.
विदर्भ में चंद्रपुर सीट से चुनाव लड़ने के अनिच्छुक राज्य सरकार के मंत्री सुधीर मुनगंटीवार को भाजपा का टिकट मिला तो मन मारकर उन्हें पार्टी के निर्देश का पालन करना पड़ा. वहीं जब अमरावती में निर्दलीय सांसद नवनीत राणा को भाजपा ने टिकट दिया तो प्रहार पार्टी के नेता बच्चू कड़ू नाराज हो उठे.
मराठवाड़ा में औरंगाबाद लोकसभा सीट पर शिवसेना ठाकरे गुट से चंद्रकांत खैरे को टिकट मिलने से पार्टी के विधान परिषद में विपक्ष के नेता अंबादास दानवे नाखुश समझे जा रहे हैं, क्योंकि उन्हें भी चुनाव लड़ना था. जालना में भाजपा ने केंद्रीय मंत्री रावसाहब दानवे का नाम एकतरफा समझ कर घोषित कर दिया.
वहां शिवसेना शिंदे गुट के नेता अर्जुन खोतकर खुश नहीं हैं. पिछले चुनावों में भी खोतकर को मनाने में दानवे को काफी मेहनत करनी पड़ी थी. शिर्डी लोकसभा सीट पर केंद्रीय मंत्री रामदास आठवले को नजरअंदाज किया गया, जबकि अहमदनगर में सुजय विखे को लेकर पार्टी में सकारात्मक माहौल नहीं है.
नासिक में हेमंत गोडसे के नाम पर सहमति नहीं है और वहीं राज्य सरकार के मंत्री छगन भुजबल भी परिस्थितियों पर नजर रखे हैं. मुंबई में ठाणे सीट की दिक्कत, कांग्रेस नेता संजय निरुपम की नाराजगी किसी से छिपी नहीं है. उधर सांगली, सातारा से लेकर कोल्हापुर में उदयनराजे भोसले से लेकर कई दु:खी इच्छुक उम्मीदवारों का भी संकट बना हुआ है.
ये कुछ ऐसे मामले हैं जो सतह पर दिख रहे हैं, किंतु आंतरिक स्थितियां अधिक नाजुक हैं. दरअसल, राज्य के प्रमुख दलों में बिखराव के बाद राजनीतिक स्थितियां चुनौती और महत्वाकांक्षा के बीच उलझ रही हैं. टूट कर बने नए दलों का आधार ही महत्वाकांक्षा है, जबकि उनके मूल दल टूट के बाद दोबारा खड़ा होना अपनी चुनौती मान चुके हैं.
नए दल जोड़-तोड़ के फार्मूले पर एक-दूसरे को भरोसा दिला कर तैयार हुए हैं. उनमें शामिल हर नेता की पार्टी से अपनी अपेक्षा है. यदि किसी नेता की उम्मीदों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा या मांगों को लेकर गंभीरता नहीं है, तो उसका बागी तेवर स्वाभाविक स्थिति है. इसी प्रकार यदि मूल दल में बचे नेता की निष्ठा की कीमत नहीं मिल रही, तो वहां भी परेशानी सहज ही है.
राज्य में अभी तक शिवसेना शिंदे गुट, भाजपा और राकांपा अजित पवार गुट के महागठबंधन ने संयुक्त संवाददाता सम्मेलन कर अपने तालमेल का ऐलान नहीं किया है. हालांकि उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने 28 मार्च को संवाददाता सम्मेलन में सीटों के तालमेल की घोषणा करना जाहिर किया था.
इसी प्रकार शिवसेना उद्धव गुट, कांग्रेस और राकांपा शरद पवार गुट की महाआघाड़ी ने तालमेल की बात तो दूर, अपने-अपने स्तर पर उम्मीदवारों के नाम घोषित करने आरंभ कर दिए हैं. साफ है कि किसी भी गठबंधन में सीटों के बंटवारे के फार्मूले तय नहीं होने से अपनी डफली अपना राग ही चल रहा है.
लोकसभा चुनाव के मुहाने पर असमंजस, मनमुटाव, विरोधाभास और खींचतान कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं. फिलहाल सवाल तो यह भी है कि राज्य की 48 लोकसभा सीटों के बंटवारे के लिए यदि कोई तालमेल नहीं बन पा रहा है तो कुछ माह बाद होने वाले विधानसभा चुनाव की 288 सीटों के लिए किस तरह की रणनीति तैयार की जाएगी?
वह भी तब, जब हर दल में एक मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी होगा. यदि राज्य के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर नजर दौड़ाई जाए तो भाजपा और कांग्रेस में अभी-भी मूल नेताओं और कार्यकर्ताओं की संख्या दिखाई देती है, जिसमें कैडर बेस काम करने और अनुशासन में रहने का महत्व अधिक दिखता है.
वहीं टूटे और बिखर कर बने दलों में हर नेता की अपनी आकांक्षा और अपेक्षा है. चूंकि उन्होंने अपने मूल दल से बगावत की है, इसलिए उनके पास सिद्धांत और संयम के लिए कोई स्थान नहीं है. इसी में बागी नेताओं के नेतृत्व की समस्या छिपी हुई है, जिसका हल आसान नहीं है.
जिससे दूरगामी परिणामों पर भी आशंकाएं मंडरा रही हैं. ऐसे में यदि नए राजनीतिक समीकरणों का आगाज इस तरह है तो अंजाम क्या होगा, जो निश्चित ही लोकसभा चुनाव के परिणाम तय करेंगे. जिनके लिए आगामी चार जून तक इंतजार करना होगा.