गुरुवार को राज्य में महाराष्ट्र दिवस धूमधाम से मनाया गया. परंपरा अनुसार अनेक सरकारी कार्यक्रम हुए. जिनके चलते अलग-अलग जिलों के पालकमंत्री अपने-अपने स्थानों पर झंडावंदन कार्यक्रम के लिए पहुंचे. यही नहीं मुंबई में प्रदेश के स्थापना दिवस कार्यक्रम के अतिरिक्त मनोरंजन जगत के लिए विशेष कार्यक्रम ‘वेव्स’ का आयोजन हुआ, जिसमें प्रधानमंत्री मुख्य अतिथि थे. यद्यपि राजधानी मुंबई से लेकर उपराजधानी नागपुर तक कार्यक्रमों की भरमार थी तो दूसरी ओर नेताओं के काफिलों की आवाजाही हर जगह दिखाई दी.
बार-बार थमता यातायात और फंसते लोग ‘वीआईपी प्रोटोकॉल’ के नाम पर गरमी और प्रदूषण को सहते नजर आए. दरअसल इन दिनों विधायक से लेकर मुख्यमंत्री और सांसद से लेकर केंद्रीय मंत्रियों तक के आने-जाने का मतलब आम जनता के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुका है. कुछ स्थानों पर राज्यपालों के कार्यक्रम होने से अलग मुश्किलें पैदा होती हैं.
यूं तो वर्ष 2014 में फडणवीस सरकार बनने के बाद कहा यह गया था कि वीआईपी संस्कृति समाप्त की जाएगी. जिसके चलते आपातकालीन सेवाओं से जुड़े वाहनों के अलावा समस्त सरकारी वाहनों से लाल-पीली बत्तियां हटाई जाएंगी और हट भी गईं. किंतु कर्कश सायरन, बिना किसी कारण या अनुमति के समय- बेसमय बजते ‘हूटर’ आम लोगों की परेशानी का विषय बने हुए हैं.
मगर प्रशासन की नेताओं के प्रति निष्ठा आम आदमी की दिक्कतों से परे जा चुकी है. वर्ष 2014 में जब मुख्यमंत्री के रूप में अपने पहले कार्यकाल में देवेंद्र फडणवीस ने विमान के ‘इकोनॉमी क्लास’ में यात्रा की थी, तब उन्होंने वीआईपी संस्कृति से दूर रहने का संदेश दिया था. उसके बाद कुछ दिनों पहले उन्होंने सड़कों पर लगने वाले होर्डिंगों पर कार्रवाई करने का आदेश दिया है.
मगर वर्ष 2014 से लेकर वर्ष 2025 तक जमीनी स्थितियों को देखा जाए तो कुछ नहीं बदला है. अब विशेष विमान, हेलिकॉप्टर नियमित आने-जाने का साधन बन चुके हैं. उच्च न्यायालय के अनेक आदेश के बावजूद होर्डिंग कहीं भी और किसी के भी लग सकते हैं. हवाई सवारियों के बाद सड़कों पर वीआईपी के नाम पर वाहनों की गिनती कम होने की बजाय लगातार बढ़ती ही जा रही है.
एक विधायक के पीछे कम से कम एक, सांसद के पीछे दो से तीन, राज्यमंत्री के वाहन के पीछे पुलिस के वाहन के साथ कम से कम तीन से चार, कैबिनेट मंत्री के वाहन के आगे-पीछे पुलिस के कम से कम दो वाहनों के साथ पीछे कम से कम चार से पांच अन्य वाहन अवश्य ही दिखाई देते हैं. इसके बाद उप मुख्यमंत्री और मुख्यमंत्री के साथ वाहनों की गिरती करना संभव ही नहीं है.
इसके अलावा पार्टियों के प्रदेशाध्यक्ष और राष्ट्रीय अध्यक्ष, केंद्रीय मंत्रियों के साथ वाहन कितने भी हो सकते हैं. इन सभी वाहनों के काफिलों के लिए यातायात सिग्नलों, टोल नाकों का अस्तित्व न के बराबर होता है. इनमें कुछ सरकारी वाहनों को छोड़ दिए जाएं तो बाकी में सांसद, विधायक, नगरसेवक और वीआईपी के स्टीकर और ‘हूटर’ भी लगे होते हैं.
यातायात नियमों को तोड़ने पर पुलिस कर्मचारी कार्रवाई तो दूर वह आगे बढ़कर रास्ता खाली करने के लिए प्रयास करने में जुट जाते हैं. यदि उसने ऐसा नहीं किया तो उन्हें अधिकारियों की फटकार सुनने के लिए तैयार रहना पड़ता है. महाराष्ट्र के मुंबई के अलावा पुणे, नागपुर, छत्रपति संभाजीनगर, नासिक, जलगांव, सातारा, कोल्हापुर, अहिल्यानगर आदि जैसे जिलों से एक से अधिक मंत्री हैं.
नाम के लिए कुछ का निर्वाचन क्षेत्र उनके जिले में होता है, लेकिन सभी जिला मुख्यालय में रहते हुए गांवों के रास्तों पर निकलते दिखाई देते हैं. हालांकि एंबुलेंस सहित सभी वाहनों के लिए रात दस बजे बाद आपातकालीन परिस्थिति को छोड़कर सायरन बजाने की अनुमति नहीं है. फिर भी पुलिस काफिलों के गुजरते समय, नेताओं के काफिले नियमों का उल्लंघन करते नजर आते हैं.
उसे आम आदमी की समस्याओं से परे वीआईपी प्रोटोकॉल अधिक दिखाई देता है. दूसरी तरफ कुछ नेताओं को शक्ति प्रदर्शन और आम जन पर प्रभाव बनाए रखने के लिए झंडे-सायरन जैसी वस्तुओं का सहारा लेना हो जाता है. कुछ हद तक चुनाव जीतने बाद निर्वाचित प्रतिनिधियों का भी यही उद्देश्य होता है. वे लोकतांत्रिक व्यवस्था में जन प्रतिनिधि का लाभ कुछ इसी रूप में लेना चाहते हैं.
मोटे स्वरूप में यह भी सत्य है कि वीआईपी संस्कृति के भौंडे प्रदर्शन का आम जन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, बल्कि जान मानस के मन में नेताओं की छवि ही खराब होती है. कुछ पुराने नेता अतीत को याद करते हुए बताते हैं कि उनके दौर में चुनाव के समय में किसी बड़े नेता के लिए एक गाड़ी को भी उपलब्ध कराना आसान नहीं होता था.
यदि एक गाड़ी के साथ आपातकालीन परिस्थिति के लिए दूसरी गाड़ी भी मिल गई तो बहुत बड़ी बात मानी जाती थी. ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या काफिलों में इतने अधिक वाहनों की आवश्यकता होती है? क्या दलों के बड़े नेता स्वयं वाहनों की कतार को शक्ति प्रदर्शन का आधार मानते हैं? या फिर छोटे नेता स्वप्रेरणा से कतार में लग जाते हैं?
अवश्य ही यह अनुत्तरित तथा विचार योग्य स्थिति है. वीआईपी संस्कृति केवल वाहनों से लाल बत्ती हटाना नहीं है, बल्कि आम और खास का अंतर समाप्त करना है. यदि कुछ साल पहले उस पर अमल आरंभ हुआ था तो उसकी वास्तविकता का धरातल पर आंकलन जरूरी है.
शायद खास से आम के परिवर्तन में कार्यकर्ताओं के उत्साह में कमी आने का डर मन में हो सकता है, लेकिन आम जन के दिमाग में पैदा हो रहे गुस्से का गुबार भी कभी फूट सकता है. लिहाजा खतरा दोनों तरफ है. जरूरत नेताओं के सामाजिक आचरण में संयम और संतुलन के साथ सरलता लाने की है, जो मतदाता को सामान्य नागरिक भी समझ कर जीने का अधिकार दिला सकती है.