‘वोट’ बंटेंगे या कटेंगे या फिर रहेंगे ‘सेफ’?, आखिर क्या महाराष्ट्र में इस नारे का असर!

By Amitabh Shrivastava | Updated: November 16, 2024 06:08 IST2024-11-16T06:07:11+5:302024-11-16T06:08:32+5:30

Maharashtra Chunav 2024: महाविकास आघाड़ी और महागठबंधन दोनों के डेढ़ सौ से अधिक बागी उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं.

Maharashtra Chunav 2024 votes be divided or cut or will they remain safe blog Amitabh Srivastava | ‘वोट’ बंटेंगे या कटेंगे या फिर रहेंगे ‘सेफ’?, आखिर क्या महाराष्ट्र में इस नारे का असर!

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Highlightsमुकाबलों में पहले टूटे और मूल दलों के बीच ही मुकाबलों की स्थितियां बनी हैं. मतदाता के लिए निर्णय लेने की जटिल परिस्थिति उभर कर सामने है, जिससे निपटने से ही राज्य के चुनाव परिणाम निर्धारित होंगे.वर्ष 1995 के बाद राज्य की राजनीति सबसे अधिक चिंताजनक और अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है.

Maharashtra Chunav 2024: महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव के चरम दौर में राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) के राज्यसभा सांसद अशोक चव्हाण का अपनी वर्तमान पार्टी के नारे से स्वयं को अलग करना अनेक प्रकार के आश्चर्य को जन्म देता है. यही नहीं पार्टी की एक अन्य वरिष्ठ नेता और विधान परिषद सदस्य पंकजा मुंडे का भी पार्टी के नारे के प्रति असहमति जताना विचार योग्य तथ्य है. यह सब उस दौर में हो रहा है, जब राज्य की महाविकास आघाड़ी और महागठबंधन दोनों के डेढ़ सौ से अधिक बागी उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं.

छह पार्टियों के बीच होने वाले मुकाबलों में पहले टूटे और मूल दलों के बीच ही मुकाबलों की स्थितियां बनी हैं. उसके बाद उन्हीं के अपने बागी नेता अलग परेशानी का कारण बने हैं. इस परिस्थिति में मतों का बिखराव और मतदाता के लिए निर्णय लेने की जटिल परिस्थिति उभर कर सामने है, जिससे निपटने से ही राज्य के चुनाव परिणाम निर्धारित होंगे.

मगर वर्ष 1995 के बाद राज्य की राजनीति सबसे अधिक चिंताजनक और अनिश्चितता के दौर से गुजर रही है. राज्य में वर्ष 1995 के चुनाव में दो पूर्व मुख्यमंत्रियों शरद पवार और सुधाकरराव नाईक के बीच टशन बढ़ने से कांग्रेस के दो गुट बने और जहां दोनों से उनके उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिला, वहां से उन्हें निर्दलीय उम्मीदवार बना कर चुनाव मैदान में उतार दिया गया था.

उस चुनाव में सभी प्रकार के प्रत्याशियों सहित 3196 निर्दलीय उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा और 45 चुनाव जीत भी गए थे. इसी बगावत ने पहली बार भाजपा और शिवसेना की सत्ता पाने की राह आसान कर दी थी. इससे पहले, वर्ष 1990 के चुनाव में भी 13 बागी जीते थे. शिवसेना ने वर्ष 1995 में 169 में से 73 सीटें, जबकि भाजपा ने 116 में से 65 सीटें जीती थीं.

दोनों पार्टियों की सीटों में शिवसेना की 21 और भाजपा की 23 सीटों की बढ़ोत्तरी हुई थी. मगर दोनों बहुमत से पीछे रह गए थे, जिसके बाद 45 निर्वाचित निर्दलीयों में से 14 की मदद से राज्य में पहली बार गैर-कांग्रेस गठबंधन सरकार बनी थी. अतीत के आलोक में इस बार चुनाव में राज्य में कुल चार हजार 140 उम्मीदवार मैदान में हैं, जिनमें से 2086 निर्दलीय हैं.

यह माना जा रहा है कि निर्दलीयों में डेढ़ सौ से अधिक अलग-अलग दलों के बागी उम्मीदवार हैं. इस स्थिति के बाद अनेक छोटे दलों से बेहतर स्थिति में निर्दलीय माने जा रहे हैं. एक अनुमान के अनुसार कम से कम 25-30 निर्दलीय जीतने की स्थिति में हैं. वर्ष 1995 के चुनाव के सापेक्ष देखा जाए तो उस समय कांग्रेस को 286 सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद 61 सीटें घटने का झटका लगा था, तब उसे केवल 80 सीटें ही मिली थीं. ताजा चुनाव में कांग्रेस की गुटबाजी यदि नहीं भी है तो शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(राकांपा) का विभाजन कोई कम नहीं है.

यदि उस समय कांग्रेस के अंदर-बाहर की बात थी तो इस बार पहले आमने-सामने का मुकाबला करते हुए अपनी पार्टी को भीतर से भी संभालना है. लोकसभा चुनाव में मिली सफलता के बाद जिस प्रकार महाविकास आघाड़ी के नेताओं के हौसले बुलंद हुए, उसी तरह महत्वाकांक्षी नेताओं के इरादे भी समझ में आने लगे थे.

अक्सर समझाने के लिए हर दल में कहा जाता है कि पार्टी को चलाने के लिए उसके निर्णयों को मानना आवश्यक होता है. यह भी बताया जाता है कि किसी सीट पर टिकट पाने के लिए नामों की सूची लंबी होती है, किंतु टिकट एक को ही मिल पाता है. बावजूद इन सैद्धांतिक बातों के, अनेक नेताओं को साल-महीने पहले से चुनाव की तैयारी कराई जाती है.

उन्हें टिकट देने का आश्वासन दिया जाता है. लेकिन चुनाव की बात आने पर वरिष्ठ नेता या आलाकमान के निर्णय को सर्वोच्च मानकर बगावत की आवाजों को दबाने की कोशिश की जाती है. यहीं से पार्टी परिणामों के संकेत मिलने आरंभ हो जाते हैं. ताजा परिस्थितियों में महाविकास आघाड़ी से लेकर महागठबंधन तक अपनों से ही मुकाबला करने में समय दे रहा और परिश्रम कर रहा है.

यह तय है कि राज्य में व्यापक स्तर पर मत विभाजन होगा. परिणाम कहीं अपेक्षा अनुरूप तो कहीं बिल्कुल विपरीत सामने आ सकते हैं. राज्य में आम तौर पर चार से पांच उम्मीदवारों के बीच मुकाबले की स्थितियां बन रही हैं. जहां-जहां प्रदेश के दोनों गठबंधन आपस में मुकाबला कर रहे हैं, वहां वंचित बहुजन आघाड़ी के उम्मीदवार भी मैदान में हैं.

गौरतलब है कि राज्य में बहुजन समाज पार्टी ने सबसे अधिक 237 उम्मीदवार और उसके बाद वंचित बहुजन आघाड़ी ने 200 उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में उतारा है. इनके अलावा सभी बड़े दलों के बागी नेता भी निर्दलीय बनकर चुनाव लड़ रहे हैं. इससे स्पष्ट है कि लगभग डेढ़ सौ से अधिक सीटों पर अच्छी-खासी संख्या में मत विभाजन होगा, जो सभी गठबंधनों को प्रभावित करेगा.

वोट बंटने के बाद वोट कटने की बारी आएगी और जो इन दोनों से बच जाएगा वह अपने आप ‘सेफ’ हो जाएगा. पिछले विधानसभा चुनाव के बाद राज्य में विचारधारा के परे आरंभ हुई राजनीति ने स्वतंत्र नेताओं के लिए नई राह खोल दी है. पार्टी छोड़ना और लौटना कोई असामान्य घटना नहीं रह गई है. इस चुनाव में अनेक नेताओं को टिकट न मिलने की स्थिति में दूसरी पार्टी में भेजकर टिकट दिलवाया गया.

इस स्थिति में केवल मतदाता से बंटने और कटने या फिर एक और ‘सेफ’ की अपेक्षा रखना व्यर्थ है. जब राजनीतिक दल टुकड़ों-टुकड़ों में अपना अस्तित्व बना कर आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं तो मतदाता से कैसे अपेक्षा की जाए कि वह एकजुटता के साथ उनका साथ दे. फिलहाल यह राजनीति का नया दौर है. इसके परिणामों से ही अगली दिशा तय होगी और पता लगेगा कि कौन बंटा, किसने काटा और कैसे कोई ‘सेफ’ रह पाया.

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