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Maharashtra: महाराष्ट्र की ‘सेनाएं’ समझें अपनी सीमाएं?, चुनाव परिणाम दे चुके हैं अनेक संदेश

By Amitabh Shrivastava | Updated: February 15, 2025 05:50 IST

Maharashtra: देश की राजधानी में पहुंचने के कारण प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अलग-अलग थे. मगर सब की समझ में जो आ रहा था, वह यही था कि एक अपनी पार्टी को बचाने और दूसरा अपनी पार्टी को बढ़ाने के लिए पहुंचा है.

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ठळक मुद्देलोकसभा और उसके बाद विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र की सभी ‘सेनाएं’ चौकन्नी हैं. शिवसेना का ठाकरे गुट जहां लोकसभा चुनाव में अपनी सफलता को संभाल कर रखना चाहता है.महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) भी है, जिसे किसी तरह चुनावी राजनीति से स्थापित होने की चाह है.

Maharashtra: महाराष्ट्र में अविभाजित शिवसेना का सर्वश्रेष्ठ विधानसभा चुनाव प्रदर्शन 73 सीट वर्ष 1995 में रहा था, जब उसने भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था. इसे संयोग माना जाए या फिर मजबूरी कि दोनों शिवसेना के नेता आदित्य ठाकरे और एकनाथ शिंदे गुरुवार को नई दिल्ली में थे. दोनों के देश की राजधानी में पहुंचने के कारण प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से अलग-अलग थे. मगर सब की समझ में जो आ रहा था, वह यही था कि एक अपनी पार्टी को बचाने और दूसरा अपनी पार्टी को बढ़ाने के लिए पहुंचा है.

पहले लोकसभा और उसके बाद विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र की सभी ‘सेनाएं’ चौकन्नी हैं. शिवसेना का ठाकरे गुट जहां लोकसभा चुनाव में अपनी सफलता को संभाल कर रखना चाहता है, तो दूसरी ओर शिवसेना का शिंदे गुट उसे हर तरह से नुकसान पहुंचाकर खुद को बड़ा बनाना चाहता है. इन्हीं के बीच महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) भी है, जिसे किसी तरह चुनावी राजनीति से स्थापित होने की चाह है.

किंतु ये तीनों ही दल भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के साए में खड़े हैं. अनेक बार इन्हें अपना कद बड़ा नजर आता है, लेकिन जनमत उनकी सीमाओं को निर्धारित कर देता है. इतिहास गवाह है कि इनमें से किसी ने सत्ता के चुनावी लक्ष्य को कभी नहीं पाया है, लेकिन उन्हें पूरे महाराष्ट्र में उनका रुतबा छाया दिखाई देता है.

महाराष्ट्र में अविभाजित शिवसेना का सर्वश्रेष्ठ विधानसभा चुनाव प्रदर्शन 73 सीट वर्ष 1995 में रहा था, जब उसने भाजपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था. इसी प्रकार लोकसभा चुनाव में वर्ष 2014 और 2019 में उसने गठबंधन में रहकर 18-18 सीटें जीतीं. वर्ष 1995 के चुनाव से पहले शिवसेना एक फूट का सामना कर चुकी थी, जो छगन भुजबल के अलग होने के बाद सामने आई थी.

वर्ष 1995 में ही उसने अपने मुख्यमंत्री के साथ सत्ता संभाली और दो नेताओं मनोहर जोशी तथा नारायण राणे को कुर्सी संभालने का सौभाग्य दिया. किंतु दोनों में से राणे ने अगले चुनाव में शिवसेना को छोड़ दिया और कांग्रेस में शामिल हो गए. इसके बाद शिवसेना को सत्ता तो नहीं मिली, लेकिन पारिवारिक विवाद के चलते फिर फूट पड़ी.

उद्धव ठाकरे के कार्याध्यक्ष बनने के बाद राज ठाकरे ने शिवसेना को अलविदा कह दिया. वह पार्टी से बाहर निकल कर शांति से नहीं बैठे और उन्होंने शिवसेना के मुकाबले मनसे को खड़ा कर दिया. अपने पहले चुनाव में मनसे ने 13 विधायक बनाए. मगर वह लोकसभा में अपना कोई नेता नहीं भेज सकी.

इसके बाद वर्ष 2022 में शिवसेना में फिर बड़ी फूट हुई और अधिकृत तौर पर चालीस से अधिक विधायक पार्टी छोड़कर चले गए. जिसके बाद शिवसेना का दूसरा टुकड़ा शिवसेना शिंदे गुट के रूप में पहचाना गया. इस गुट ने वर्ष 2024 के विधानसभा चुनाव में अपनी सीटें 57 तक पहुंचा दीं और लोकसभा में भी इसके सात सदस्य हैं.

यदि सभी प्रकार की फूट और अलगाव को भुलाकर आंकड़ों को मिलाया जाए तो भी एकजुट शिवसेना अभी तक अपने विधायकों की संख्या सौ तक नहीं पहुंचा सकी है. यदि सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन की दृष्टि से भी देखा जाए तो पार्टी वर्ष 1995 की सफलता को कभी दोहरा नहीं पाई. मनसे का चुनावी ग्राफ लगातार गिरता ही गया.

पार्टी से अलग हुए नेताओं ने दूसरे दलों का दामन थामकर अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को पूरा किया. यह स्पष्ट करता है कि महाराष्ट्र की ‘सेनाओं’ की कहीं न कहीं सीमाएं निर्धारित हैं. एक तरफ जहां चुनावी स्थितियों की खुली किताब सबके सामने है, वहीं दूसरी तरफ राज्य की तीनों सेनाएं अपने-अपने ढंग से दबाव बनाने में माहिर समझ रही हैं.

शिवसेना ठाकरे गुट को राकांपा नेता शरद पवार द्वारा पूर्व मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के सम्मान पर गुस्सा आ जाता है. उधर, राज्य में देवेंद्र फड़णवीस के मुख्यमंत्री बनने के बाद वर्तमान उपमुख्यमंत्री शिंदे अक्सर अलग दिशा में चलते दिखते हैं. इनके अतिरिक्त विधानसभा चुनाव में एक भी सीट न जीतने वाली मनसे के नेता चुनावों पर सवाल उठाते रहते हैं.

लेकिन मुख्यमंत्री के घर आने पर अपने राजनीतिक कद को बढ़ता हुआ मान बैठते हैं. यदि पिछले तीस सालों की महाराष्ट्र की राजनीति पर नजर दौड़ाई जाए तो स्पष्ट दिखाई देता है कि राज्य में कांग्रेस या फिर भाजपा के नेतृत्व में शासन-व्यवस्था को जनमत मिला. हालांकि कांग्रेस ने राकांपा और भाजपा ने शिवसेना को स्वीकार कर गठबंधन किया.

साथ ही दोनों ने अपने सहयोगी दलों की राष्ट्रीय स्तर पर छवि गढ़ने की कोशिश की. इसमें राकांपा ने अपनी सीमाओं को हमेशा समझा और राजनीतिक परिपक्वता के साथ केंद्र-राज्य में गठबंधन सरकारों में हिस्सेदारी की. किंतु शिवसेना ने अपनी ताकत से अधिक मोल-भाव करने पर विश्वास किया.

हालांकि बार-बार चुनाव परिणाम सच्चाई को सार्वजनिक कर रहे थे, लेकिन पार्टी नेतृत्व का अनुमान गलत साबित हो रहा था. इसलिए आवश्यक यही था कि वे हवा का रुख और अपनी क्षमता को समझें. किंतु बड़बोलापन और मराठी मानुस पर एकाधिकार की मानसिकता उन्हें चक्रव्यूह से बाहर नहीं निकलने दे रहे थे.

यही कारण है कि राज्य में नई सरकार गठन के बाद लगभग ढाई माह का समय बीत रहा है, लेकिन शिवसेना शिंदे गुट के नेता एकनाथ शिंदे सरकार में अभी तक अपनी असहजता दूर नहीं कर पा रहे हैं. उधर, शिवसेना का ठाकरे गुट राकांपा नेता शरद पवार को भी बख्श देने के लिए तैयार नहीं है, जिनके भरोसे उसकी राजनीति चली और बच पाई है.

यही हाल मनसे का भी है, जो शून्य के आगे किसी अंक लगने के इंतजार में शून्य को ही बड़ा मान बैठी है. हालांकि, राजनीति की नई परिस्थितियां सभी ‘सेनाओं’ को अपनी सीमाएं समझने का इशारा कर रही हैं. प्रादेशिक दलों को उनके राज्य में भले ही कितना समर्थन मिले, उन्हें राष्ट्रीय दलों के साथ अपने कद का अंदाज रखना आवश्यक होता है.

कांग्रेस ने हरियाणा और दिल्ली में आप ने एक-दूसरे को आंख दिखाकर परिणाम समझ लिये हैं. महाराष्ट्र में भी ताजा संकेतों से ‘सेनाओं’ के समझ-बूझ दिखाने की अपेक्षा है, क्योंकि नासमझी लगातार महंगी होती जा रही है. जिसके तथ्यात्मक प्रमाण उपलब्ध हैं.

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