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बनने से पहले ही चरमरा गया महागठबंधन

By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: September 23, 2018 18:00 IST

मायावती ने हाल हीं में कहा कि अगर उन्हें ‘सम्मानजनक’ सीटें नहीं मिलीं तो पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी।ध्यान रहे कि अकेले चुनाव लड़ने की हिमाकत तो इस समय भाजपा भी नहीं कर रही है।

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एन. के. सिंह  

कहते है हिंदुस्तान का एक नवाब इसलिए ब्रितानी फौज के हाथों बंदी बना लिया गया क्योंकि किले से सब भाग गए लेकिन वह इसलिए नहीं भाग सका कि कोई जूता पहनाने वाला नहीं था। यह अपने अस्तित्व के प्रति अपरिहार्यता के गुरूर से उपजी बेफिक्री ही कही जा सकती है। एक ऐसे समय में जब भारत में भारतीय जनता पार्टी की रणनीति, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आज भी देशव्यापी व्यक्तिगत स्वीकार्यता और भरोसेमंद विकल्प के अभाव के कारण विपक्ष और खासकर क्षेत्रीय दल अपना वजूद खोने की कगार पर खड़े हैं, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नेता मायावती और समाजवादी पार्टी के युवा नेता अखिलेश यादव के ताजा कदम इस नवाबी भाव की शाश्वतता की तस्दीक करते हैं।

मायावती ने हाल हीं में कहा कि अगर उन्हें ‘सम्मानजनक’ सीटें नहीं मिलीं तो पार्टी अकेले चुनाव लड़ेगी।ध्यान रहे कि अकेले चुनाव लड़ने की हिमाकत तो इस समय भाजपा भी नहीं कर रही है। दूसरे, मायावती ने कांग्रेस को ठेंगा दिखाते हुए छत्तीसगढ़ में अजित जोगी की पार्टी से समझौता किया है। उधर ताजा खबरों के अनुसार, समाजवादी पार्टी (सपा) ने मध्य प्रदेश में कांग्रेस को समर्थन न देने का फैसला किया है। जिस तरह के संकेत हैं उससे कहा जा सकता है कि राष्ट्रीय स्तर पर सन 2019 के लोक सभा चुनावों के लिए विपक्षी एकता के लिए यह शुभ-संकेत नहीं है। अगर मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी मायावती कांग्रेस से परहेज करती रही तो लोकसभा चुनाव के दौरान विपक्ष कहां खड़ा होगा, यह समझना मुश्किल नहीं। इन दोनों राज्यों में बसपा औसतन क्रमश: सात और 10 प्रतिशत वोट हासिल करती है।

यहां मायावती का जिक्र इसलिए क्योंकि उत्तर प्रदेश से लोकसभा के कुल संख्या का 15 प्रतिशत आता है। देश की सत्ता पर कौन काबिज होगा यह उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान तय करते हैं जिनकी भागीदारी लोकसभा में लगभग 33 प्रतिशत है। उत्तर भारत के इन चारों राज्यों में भाजपा आज सत्ता में हीं नहीं है बल्कि प्रमुख दल है। इसका फिर जीतना बसपा ही नहीं कई क्षेत्रीय दलों के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा कर सकता है।

दूसरे जिस तरह सवर्णों की नाराजगी की कीमत पर भी आज भाजपा दलितों को लुभाने में लगी है संभव है कि आने वाले समय में बसपा के लिए महंगा साबित हो। लिहाजा अपने दल का दबदबा बरकरार रखने के लिए समझौते करना जरूरी होगा। वैसे भी फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट (एफपीटीपी) चुनाव पद्धति की सबसे बड़ी खराबी है कि भारत जैसे बंटे समाज में मात्र एक सामाजिक वर्ग को लेकर कोई दल समर्थन को सीटों में तब्दील नहीं कर सकता जब तक वह उस राज्य के उस चुनाव क्षेत्र में अन्य दलों से अधिक वोट नहीं लाता।

यानी मात्र दलित वोटों से या मात्र मुसलमान वोटों से सीटें नहीं जीती जा सकतीं जब तक कोई और सामाजिक वर्ग न जुड़े और कुल मत अन्य प्रत्याशियों से ज्यादा न हों। उदाहरण के लिए सन 2014 में समाजवादी पार्टी को मिले कुल मतों की संख्या 1,79,88,967 थी जबकि बसपा को 1,59,14,194 मत। वहीं उसी चुनाव में तमिलनाडु में अन्ना द्रमुक को 1,79,83,168 मत मिले यानी सपा से लगभग साढ़े पांच हजार कम और बसपा से मात्र दस लाख अधिक लेकिन अन्ना द्रमुक को सीटें हासिल हुई 37 जबकि सपा को पांच और बसपा को एक भी नहीं।

साथ हीं इसी चुनाव में भाजपा 3,43,18,884 लेकर 71 सीटें ले गई। अंग्रेजी में चुनाव पद्धति के इस दोष को ‘विनर टेक्स इट आल’ अर्थात जो जीता वही सिकंदर कहते हैं। सन 2017 के विधान सभा चुनाव में भी कमोबेश यही परिणाम थे लेकिन दोनों (सपा और बसपा) को सीटों में भारी नुकसान उठाना पड़ा था।

क्षेत्रीय दलों को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि आज भी गिरी हालत में कांग्रेस देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी है और सन 2014 के मोदी आंधी में भी इस पार्टी को लगभग 11 करोड़ वोट मिले थे (भाजपा के 17 करोड़ के मुकाबले)। फिर यह कोई राज्य विधानसभा का चुनाव न होकर लोकसभा का चुनाव है लिहाजा किसी भी राष्ट्रीय दल की अपनी गरिमा और भूमिका होती है। ऐसे में राजनीतिक समझ यही कहती है कि कांग्रेस को अपेक्षित ‘सम्मान’ दिया जाए और विधानसभा चुनाव में ‘सम्मान’ की इस स्थिति को उलट दिया जाए यानी मायावती, अखिलेश, लालू गठबंधन में अधिक सीटें कांग्रेस के लिए छोड़े।

फिर कांग्रेस जैसे बड़ी पार्टी के किसी गठबंधन में शामिल होने से गठबंधन के प्रति वोटरों का विश्वास भी बढ़ता है और गठबंधन की ‘धर्मनिरपेक्ष’ छवि भी। बहरहाल, मायावती के इन दो कदमों ने विपक्षी एकता की संभावनाओं को बड़ा झटका दिया है और भाजपा के लिए अपने स्वतंत्र जन स्वीकार्यता का बेहतर मौका भी।

टॅग्स :मायावतीकांग्रेसअखिलेश यादवछत्तीसगढ़
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