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ब्लॉग: प्रचार की आंधी में मतदाताओं को लेना होगा अपने विवेक से निर्णय

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: April 19, 2024 10:15 IST

कभी-कभी मतदाता मिथ्या दावों और झूठे वादों की चपेट में आ भी जाता है। जनतंत्र की सफलता और सार्थकता का एक मापदंड यह भी है कि कितने मतदाता ऐसे हैं जो प्रचार की इस आंधी में स्वयं को उड़ने से बचाए रख पाते हैं।

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ठळक मुद्देमतदाता तक पहुंचने, उसे लुभाने का हर संभव प्रयास हो रहा हैकोई भी दल प्रचार की इस मुहिम में पीछे नहीं रहना चाहताहर दल अपनी कमीज को दूसरे की कमीज से उजली बता रहा है

चुनाव-प्रचार में मतदाता तक पहुंचने, उसे लुभाने का हर संभव प्रयास हो रहा है। चुनाव में ऐसा ही होता है. कभी न पूरे होने वाले वादे और सच्चाई से कोसों दूर के दावे इस प्रचार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। कोई भी दल प्रचार की इस मुहिम में पीछे नहीं रहना चाहता. सच तो यह है कि एक होड़-सी मची हुई है राजनीतिक दलों में। हर दल अपनी कमीज को दूसरे की कमीज से उजली बता रहा है। ऐसा नहीं है कि मतदाता राजनेताओं के इस दांव को समझ नहीं रहा. बरसों-बरस का अनुभव है उसके पास इस प्रचार-तंत्र की करतूतों का। 

राजनीतिक दल भी मतदाता की इस जानकारी से अनभिज्ञ नहीं हैं। इसके बावजूद वे बरगलाने की अपनी कोशिशों से बाज नहीं आते। इसका कारण शायद यही है कि मतदाताओं की एक बड़ी संख्या आखिरी समय पर निर्णय लेती है। वे मुंडेर पर बैठे हैं. आखिरी समय पर बाएं भी उतर सकते हैं, दाएं भी। प्रचार-कार्य में लगे राजनेताओं की नजर मुख्यतः इन्हीं मतदाताओं पर होती है।इसी से जुड़ी एक बात यह भी है कि कभी-कभी मतदाता मिथ्या दावों और झूठे वादों की चपेट में आ भी जाता है। जनतंत्र की सफलता और सार्थकता का एक मापदंड यह भी है कि कितने मतदाता ऐसे हैं जो प्रचार की इस आंधी में स्वयं को उड़ने से बचाए रख पाते हैं।

चुनाव के समय राजनीतिक दल अपने-अपने घोषणापत्र जारी करते हैं। भाजपा और कांग्रेस, दोनों बड़े दलों के वादों-दावों वाले घोषणापत्र जारी किए जा चुके हैं। कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र को ‘न्याय-पत्र’ कहा है और भाजपा ने अपने घोषणा पत्र को ‘संकल्प-पत्र’ कहते हुए ‘मोदी की गारंटियों’ की बात कही है। होना तो यह चाहिए कि इस तरह के घोषणा पत्र आखिरी समय में नहीं, चुनाव से काफी पहले जारी हों, ताकि मतदाता उन पर विचार करके राजनेताओं से हिसाब मांग सकें। 

सत्तारूढ़ दल से पूछ सकें कि पिछले घोषणापत्रों की कितनी बातों को पूरा किया गया और सत्ता के आकांक्षी दल से उसके वादों के पूरा होने के आधार के बारे में जवाब तलब कर सकें। पर, दुर्भाग्य से ऐसा कुछ होता नहीं। घोषणापत्र जारी जरूर होते हैं, पर उपेक्षित पड़े रहते हैं. चुनाव-प्रचार का सारा जोर अपने विरोधी पर आरोप लगाने पर ही होता है। आरोपों के इस शोर में वे बुनियादी बातें कहीं खो-सी जाती हैं, जो मतदाता के निर्णय का आधार होनी चाहिए।

अपने हालिया इंटरव्यू में प्रधानमंत्री ने शब्दों के सम्मान की बात कही है। सही कहा है उन्होंने। शब्द पवित्र होते हैं, हमारी नीयत को उजागर करते हैं. राजनेता यदि शब्दों का अपमान करते हैं तो उन्हें कठघरे में खड़ा करना होगा। तभी जनतंत्र की सार्थकता प्रमाणित होगी।

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