ब्लॉग: इस बार महत्वपूर्ण साबित होंगे घोषणापत्र
By अभय कुमार दुबे | Published: April 9, 2024 09:21 AM2024-04-09T09:21:00+5:302024-04-09T09:22:26+5:30
Lok Sabha Election 2024:दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि घोषणापत्र में जो नहीं लिखा है, उसे वायदे के रूप में जनता के सामने परोसने को नियम बनाकर रोका जाए। मसलन, कोई पार्टी कहती है कि वह अमुक संख्या में रोजगार देगी, या किसी तबके की आमदनी अमुक सीमा तक बढ़ जाएगी- लेकिन ये बातें घोषणापत्र में बाकायदा लिखी गई नहीं हैं तो इस सूरत में आयोग द्वारा या जिम्मेदार संस्थाओं द्वारा इन अलिखित वायदों को नोट किया जाए, और उन्हें भी बाकायदा घोषणापत्र का लिखित अंग करार दिया जाए।
इस बार लगता है कि मतदाताओं की गोलबंदी में घोषणाओं की अहमियत पहले से ज्यादा होने वाली है। कारण यह कि इस बार लोकसभा चुनाव के ऊपर किसी असाधारण घटना का साया नहीं मंडरा रहा है। 2019 में पुलवामा सीआरपीएफ कैंप पर हुए आतंकवादी हमले और उसके जवाब में की गई बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक ने मतदाताओं के मानस को बेहद उद्वेलित कर दिया था। राष्ट्रीय सुरक्षा की प्रबल भावना और मोदी सरकार द्वारा ‘घुस कर मारा’ के जबरदस्त प्रचार के कारण घोषणापत्र कमोबेश पृष्ठभूमि में चले गए थे।
इस बार नरेंद्र मोदी ‘भ्रष्टाचार के मुद्दे पर चुनाव लड़ना चाहते हैं, और विपक्ष ‘लोकतंत्र बचाने’ का आह्वान कर रहा है। ये मुद्दे लोगों को प्रभावित करेंगे, पर दोनों में ही वैसा भावनात्मक आवेग नहीं है। जाहिर है कि मतदाताओं के पास इस बार घोषणापत्रों के वायदों पर ज्यादा गंभीरता से गौर करने का मौका है।
माना जा सकता है कि इस बार कम से कम मतदाताओं का एक हिस्सा पार्टियों के वायदों की जांच-परख करके वोट देने का फैसला करेगा। तकरीबन सभी चुनावशास्त्री इस बात पर एकमत हैं कि धीरे-धीरे हमारी चुनावी राजनीति में दस से पंद्रह-बीस फीसदी के बीच मतदाताओं का एक ऐसा वर्ग उभर आया है जो अपनी मतदान-प्राथमिकताओं पर आखिर तक विचार करके फैसला करता है।
यह छोटा सा बीच में बैठा हुआ मतदाताओं का समूह मोटे तौर पर न तो जाति के आधार पर वोट देता है, न धर्म के आधार पर, और न ही यह पार्टियों की विचारधारात्मक दावेदारियों से प्रभावित होता है। वह एक नई श्रेणी से ताल्लुक रखता है। यह सत्ताधारी दल की खामियों और थोड़ी-बहुत एंटीइनकम्बेंसी के बावजूद उसे समर्थन देने का निर्णय ले सकता है, बशर्ते उसे विपक्ष की बातें पर्याप्त रूप से विश्वसनीय न लग रही हों।
इसके उलट वह सरकार बदलने के लिए भी वोट कर सकता है, अगर उसे विपक्ष के नेताओं और उनकी बातों में ज्यादा दम लग रहा हो। ऐसे मतदाता चुनावी नतीजे को गहराई से प्रभावित करते हैं।
मतदाताओं के इस छोटे लेकिन अहम हिस्से के पास इस समय कांग्रेस पार्टी के घोषणापत्र का दस्तावेज है। उन्हें यह भी पता है कि जल्दी ही भाजपा का घोषणापत्र भी जारी होने वाला है। इन दोनों को सामने रख कर तुलनात्मक दृष्टि से पसंद-नापसंद करना आसान नहीं होगा। कांग्रेस अपने घोषणापत्र को न्यायपत्र कहते हुए स्त्री, युवा, किसान और कमजोर जातियों को अपनी ओर खींचना चाहती है।
भाजपा ने ऐलान कर दिया है कि वह ‘संकल्पपत्र’ जारी करेगी जिसके केंद्र में ‘ज्ञान’ (गरीब, युवा, अन्नदाता और नारी) होगा। जो भी हो, कांग्रेस के न्यायपत्र में हर वायदा बहुत ठोस किस्म का है। यानी, सामान्य किस्म की बातें कहने के बजाय उन्होंने संख्याओं के जरिये अपने वायदों को प्रामाणिक बनाने की चेष्टा की है। सारी बातें सीधे-सीधे हां या न में हैं। मुझे लगता है कि ऐसे घोषणापत्र के बाद अब भाजपा को भी इसी ठोस शैली में अपने वायदे मतदाताओं के सामने परोसने पड़ेंगे।
मेरे विचार से अब वह समय आ गया है कि घोषणापत्रों को चुनावी राजनीति के केंद्र में अधिक गंभीरता से स्थापित किया जाए। इसके लिए कुछ बातें जरूरी हैं। पहली, हर पार्टी अपने हर वायदे को पूरा करने के लिए घोषणापत्र में एक स्पष्ट समयसीमा निर्धारित करे। इस समयसीमा की निगरानी की जिम्मेदारी स्वयं चुनाव आयोग ले, और जीत कर सत्ता में आने वाले दल से लिखित रूप में जवाबतलबी की जाए कि उसने अपना वायदा पूरा क्यों नहीं किया।
यह काम गैरसरकारी क्षेत्र में नागरिक समाज की संस्थाएं भी कर सकती हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि घोषणापत्र में जो नहीं लिखा है, उसे वायदे के रूप में जनता के सामने परोसने को नियम बनाकर रोका जाए। मसलन, कोई पार्टी कहती है कि वह अमुक संख्या में रोजगार देगी, या किसी तबके की आमदनी अमुक सीमा तक बढ़ जाएगी- लेकिन ये बातें घोषणापत्र में बाकायदा लिखी गई नहीं हैं तो इस सूरत में आयोग द्वारा या जिम्मेदार संस्थाओं द्वारा इन अलिखित वायदों को नोट किया जाए, और उन्हें भी बाकायदा घोषणापत्र का लिखित अंग करार दिया जाए।
हो सकता है कि कोई सत्ताधारी पार्टी किसी विशेष स्थिति (जैसे कोविड की महामारी) के कारण अपने वायदे तय समय में पूरे न कर पाई हो। उस सूरत में मतदाता उसे रियायती नजरिये से देखेंगे। लेकिन उस पार्टी को बताने के लिए मजबूर किया जाए कि महामारी खत्म होने के बाद के समय में उसने किस सीमा तक उन वायदों को पूरा किया।