भाषा दिलों को जोड़ती है या फिर तोड़ती है!

By Amitabh Shrivastava | Updated: April 19, 2025 07:10 IST2025-04-19T07:08:47+5:302025-04-19T07:10:03+5:30

भाषाएं दिलों को जोड़ती हैं. उनके विरोध की आड़ में समाज को तोड़ा जाता है.

Language either unites hearts or breaks them | भाषा दिलों को जोड़ती है या फिर तोड़ती है!

भाषा दिलों को जोड़ती है या फिर तोड़ती है!

महाराष्ट्र सरकार ने मराठी और अंग्रेजी माध्यमों की पाठशालाओं में कक्षा 1 से 5वीं तक हिंदी को तीसरी भाषा अनिवार्य कर कुछ दलों को अपनी राजनीति चमकाने का अवसर दे दिया है. हालांकि माध्यमिक स्तर तक विद्यार्थियों को पहले भी हिंदी पढ़ाई जाती रही है. हाईस्कूल के स्तर पर हिंदी एक विकल्प के रूप में है. उसके बाद माध्यम के अनुसार भाषा पढ़ी जाती है. इस स्थिति में राज्य सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के अनुसार त्रिभाषा फार्मूला लागू कर कोई अनोखा कदम नहीं उठाया है, लेकिन राजनीति का अवसर जरूर दे दिया है.

वह भी उस दौर में जब प्रदेश की नई पीढ़ी भारत के कोने-कोने में ही नहीं, बल्कि विश्व के अनेक देशों में भी पहुंच चुकी है. राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) प्रमुख शरद पवार अनेक मंचों से बता चुके हैं कि महाराष्ट्र से बाहर एक करोड़ से अधिक मराठी जनता रहती है. इसलिए जब सीमाओं के बंधन टूटते हैं तो भाषाएं जुड़ती हैं. जिसे स्वीकार करना समय ही नहीं, प्रगति के मार्ग की आवश्यकता है. आश्चर्य तो तब होता है, जब एक ही लिपि देवनागरी में लिखी जाने वाली मराठी और हिंदी को आपस में लड़ाने की कोशिश की जाती है.

देश में स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी दक्षिणी राज्यों का हिंदी को लेकर विरोध रहा है. भाषा पर टिकी राजनीति के चलते अनेक बड़े आंदोलनों को शक्ल मिली. तमिलनाडु में हिंदी विरोध वर्ष 1937 से ही आरंभ हो गया था. उस समय चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की सरकार ने मद्रास प्रांत में हिंदी को लाने का समर्थन किया था और द्रविड़ कषगम (डीके) ने विरोध किया था.

स्वतंत्रता के बाद वर्ष 1965 में दूसरी बार जब हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की कोशिश हुई तो फिर हंगामा हुआ और सरकार के आधिकारिक भाषा अधिनियम, 1963 के खिलाफ प्रदर्शन होने लगे. जिन्हें अंग्रेजी के विकल्प को जोड़ कर शांत किया गया है. दक्षिणी राज्यों में केरल और कर्नाटक के विपरीत तमिलनाडु में द्विभाषी फार्मूला चलाया जाता है, जिसके तहत छात्रों को केवल तमिल और अंग्रेजी पढ़ाई जाती है.

यूं तो शिक्षा की भाषा पर बहस आजादी के बाद से ही आरंभ है. विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की ओर से वर्ष 1948-49 में गठित डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की अध्यक्षता वाले आयोग ने हिंदी को केंद्र सरकार के कामकाज की भाषा बनाने की सिफारिश की थी. उनकी सिफारिश थी कि सरकार के प्रशासनिक, शैक्षणिक और सांस्कृतिक कामकाज अंग्रेजी में किए जाएं.

आयोग ने यह भी कहा कि प्रदेशों का सरकारी कामकाज क्षेत्रीय भाषाओं में हो. राधाकृष्णन आयोग की सिफारिश ही आगे चलकर स्कूली शिक्षा के त्रिभाषा फार्मूला के रूप में पहचानी गई, जिसमें कहा गया कि हर व्यक्ति को अपनी क्षेत्रीय भाषा के अलावा संघीय भाषा से भी परिचित होना चाहिए. उसमें अंग्रेजी किताब पढ़ने की क्षमता होनी चाहिए. इस सिफारिश को वर्ष 1964-66 में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (कोठारी आयोग) ने स्वीकार किया. बाद में इसे इंदिरा गांधी सरकार की ओर से पारित राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968 में शामिल किया गया.

वर्ष 1986 में राजीव गांधी सरकार के दौरान बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति और नरेंद्र मोदी सरकार के दौर में वर्ष 2020 में बनी राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी त्रिभाषी फार्मूले पर कायम रही. लेकिन उसके क्रियान्वयन में लचीलापन लाया गया है. पिछली वर्ष 2020 की शिक्षा नीति में हिंदी का सीधा उल्लेख हुआ. उसमें कहा गया है- ‘बच्चों द्वारा सीखी जाने वाली तीन भाषाएं राज्यों, क्षेत्रों और निश्चित रूप से स्वयं छात्रों की पसंद होंगी, बशर्ते कि तीन भाषाओं में से कम से कम दो भारत की मूल भाषाएं हों.’

इसी आधार पर देवेंद्र फडणवीस सरकार ने राज्य में कक्षा पांच तक हिंदी को तीसरी अनिवार्य भाषा बनाया है. जिसका उद्देश्य हिंदी के देश की संपर्क भाषा होने के नाते नई पीढ़ी को उसका लाभ दिलाना है.

अतीत से वर्तमान को जोड़कर देखा जाए तो हिंदी-मराठी को लेकर कभी दूजा भाव नहीं रहा. हिंदी रचनाकारों के इतिहास में संत नामदेव से लेकर आधुनिक युग में पंडित माधवराव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराडकर, रवींद्र केलेकर, राहुल बारपुते, शंकर पुणतांबेकर, गुणाकर मुले, चंद्रकांत देवताले, दामोदर खड़से, चंद्रकांत पाटील, अंबादास देशमुख जैसे अनेक नाम दर्ज हैं.

यही नहीं, दिल्ली, उस्मानिया विश्वविद्यालय सहित अनेक स्थानों पर हिंदी की शिक्षा देने वाले मराठी भाषी हैं. आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान के संचालक मराठीभाषी हैं. ये सभी विरोध की उत्पत्ति नहीं, बल्कि सकारात्मक और व्यापक सोच के जनक हैं, जिसने मराठी समाज को वृहद आकाश दिया है. वर्तमान में त्रिभाषा फार्मूले का भी यही प्रयास है, जिसमें हिंदी महाराष्ट्र के सबसे समीप है.

उसकी आवश्यकता इसलिए भी है, क्योंकि वह देश के सत्तर फीसदी से अधिक भाग में बोली और समझी जाती है. वर्तमान समय में क्षेत्रीय सीमाएं टूटना निश्चित है, जिसके बाद अगले रास्ते पर सहजता से चलने में हिंदी ही सहायक है. फिर चाहे क्षेत्र व्यापार, उद्योग, सांस्कृतिक और सामाजिक का क्यों न हो. इसके विपरीत राजनीति में हिंदी का लाभ राज्य के लोगों को बहकाने में लिया जा सकता है.

राजनीति के अखाड़े में जाति, धर्म, क्षेत्र और भाषा के नाम पर स्वार्थ सबसे आसानी से सिद्ध हो जाता है. इनके प्रति सही सोच बनाने का एकमात्र तरीका सही शिक्षा है. हिंदीभाषी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य भी अंग्रेजी सीखने के लिए प्रोत्साहन दे रहे हैं, क्योंकि संचार और आवागमन के विस्तार से उनकी समझ विकसित हुई है. इसलिए त्रिभाषा फार्मूला थोपना नहीं, बल्कि जरूरत बन चुका है.

यह माना जाता है कि मातृभाषा परिवार, संपर्क भाषा समाज और अंतर्राष्ट्रीय भाषा रोजगार सिखा देती है. इसलिए नेताओं के भाषणों से भाषाएं सीखने का निर्णय नहीं हो सकता है. यदि उनकी असली चिंता है तो भाषाओं के संवर्धन और संरक्षण में अपना सक्रिय योगदान देना चाहिए. डंडे की नोक पर जबानें बदली नहीं जा सकती हैं. भाषाएं क्षेत्र की होती हैं और उन्हें बोलने वाले भी इलाके वाले ही होते हैं.

उन पर खतरा तभी मंडराता है, जब सामाजिक और भौगोलिक संरचना बदलती है. इसलिए सभी भाषाओं को बराबरी का दर्जा देकर देश की सांस्कृतिक संरचना को मजबूत बनाया जाना चाहिए. भाषाएं दिलों को जोड़ती हैं. उनके विरोध की आड़ में समाज को तोड़ा जाता है. जो अतीत के घावों को सहलाकर बुरी स्मृतियां ताजा करना होता है. फिलहाल साठ-सत्तर के दशक जैसा न वातावरण, न सोच है, क्योंकि अब सब के पास सच जानने के कई स्रोत हैं.

Web Title: Language either unites hearts or breaks them

भारत से जुड़ीहिंदी खबरोंऔर देश दुनिया खबरोंके लिए यहाँ क्लिक करे.यूट्यूब चैनल यहाँ इब करें और देखें हमारा एक्सक्लूसिव वीडियो कंटेंट. सोशल से जुड़ने के लिए हमारा Facebook Pageलाइक करे