Article 370: जनतांत्रिक मर्यादाओं का सम्मान करना जरूरी

By विश्वनाथ सचदेव | Updated: August 8, 2019 08:32 IST2019-08-08T08:32:05+5:302019-08-08T08:32:05+5:30

यह महज संयोग हो सकता है कि जिस दिन संसद में धारा 370 को निरस्त करने का प्रस्ताव पारित हुआ,

It is necessary to respect democratic dignity | Article 370: जनतांत्रिक मर्यादाओं का सम्मान करना जरूरी

Article 370: जनतांत्रिक मर्यादाओं का सम्मान करना जरूरी

Highlightsनिश्चित रूप से सरकार ने इसके संभावित परिणामों की समीक्षा की होगी यह मामला उच्चतम न्यायालय में भी जा सकता है

यह महज संयोग हो सकता है कि जिस दिन संसद में धारा 370 को निरस्त करने का प्रस्ताव पारित हुआ, उसी दिन शाम को स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में संसद भवन पर की गई रोशनी की जगमगाहट भी प्रारंभ हुई, लेकिन निस्संदेह इस जगमगाहट में वह खुशी झलक रही थी, जो विवादग्रस्त धारा 370 की समाप्ति का स्वाभाविक परिणाम थी. जिस तरीके से ‘जम्मू-कश्मीर के पूर्ण विलय’ का यह काम किया गया, उस पर विभिन्न मत हो सकते हैं, पर कभी न कभी यह काम होना ही था.

विशेष परिस्थितियों में हमारे संविधान-निर्माताओं ने इस धारा की व्यवस्था की थी. भले ही तब इसके लिए कोई अवधि निश्चित न की गई हो, पर कभी न कभी तो इस धारा को हटाया ही जाना था. देश की वर्तमान सरकार को यह समय उपयुक्त लगा और अपने चुनाव-घोषणा-पत्र में किए गए वादे को उसने पूरा कर दिया. 


निश्चित रूप से सरकार ने इसके संभावित परिणामों की समीक्षा की होगी और यह भी सोचा गया होगा कि यह मामला उच्चतम न्यायालय में भी जा सकता है. इन स्थितियों से कैसे निपटा जाएगा, इस पर भी विचार हुआ होगा. आने वाले कुछ दिनों में यह सब सामने आ जाएगा. बहरहाल, आज की स्थिति यह है कि सरकार की इस कार्रवाई के तरीके से असहमत एक बड़े वर्ग के बावजूद, कुल मिलाकर देश इसका स्वागत ही कर रहा है. इसे लेकर एक खुशी का माहौल है देश में. और यह भी स्वाभाविक है कि सत्तारूढ़ पक्ष इस माहौल का राजनीतिक लाभ उठाने का प्रयास करे. 


स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री देश की जिन उपलब्धियों की चर्चा करेंगे, उनमें यह निर्णय प्राथमिकता की दृष्टि से प्रमुख स्थान लेगा यह तय है. इसके साथ ही ‘ट्रिपल तलाक’ से जुड़ा निर्णय भी सरकार की उपलब्धियों की सूची में ऊपर ही होगा. लेकिन इस बात का ध्यान रखा जाना जरूरी है कि हर्षोल्लास हर्षोन्माद में नहीं बदले.  जिस तरीके से यह कार्य किया गया है, उसके लिए सरकार के पास अपने तर्क हो सकते हैं, लेकिन यह सोचना भी जरूरी है कि जो हुआ या किया गया, क्या वह बेहतर ढंग से नहीं हो सकता था अथवा नहीं होना चाहिए था? क्या यह बेहतर नहीं होता कि ‘जम्हूरियत, इंसानियत और कश्मीरियत’ के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के आश्वासन को रेखांकित करते हुए जम्मू-कश्मीर की जनता को विश्वास में लेकर यह जरूरी कार्रवाई की जाती? विपक्ष से सलाह-मशविरा करके इस कार्य को अंजाम दिया जाता?

 
निश्चित रूप से धारा 370 हमारे संविधान की एक अस्थायी व्यवस्था थी. देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी यह बात कही थी. उन्होंने यह भी कहा था कि धारा 35-ए जैसी व्यवस्था उत्तर-पूर्व के कुछ इलाकों में भी है. इससे कश्मीर के भारत का अभिन्न अंग होने की स्थिति में कोई अंतर नहीं पड़ता. पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी और फिर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी जम्हूरियत और कश्मीरियत का हवाला देते हुए समस्या के उचित समाधान का आश्वासन दिया था. बेहतर होता यदि इस सारे प्रकरण को एक ‘विजय’ के रूप में प्रदर्शित करने का लालच छोड़कर राष्ट्रीय हित में लिए गए एक जनतांत्रिक निर्णय के रूप में सामने आने दिया जाता.

न्याय होने और न्याय होता हुआ दिखने वाली बात की तरह ही यह भी जरूरी है कि जनतांत्रिक निर्णय जनतांत्रिक तरीके से लिए गए भी दिखें. 
निर्वाचित सरकार को पूरा अधिकार है कि वह संसद में आवश्यक कानून पारित करवाए. उसका बहुमत उसे अधिकार भी देता है कि वह अपनी नीतियों के अनुरूप कार्य करे. जनतांत्रिक मूल्यों और मर्यादाओं की रक्षा का दायित्व हर नागरिक का होता है, पर भारी बहुमत वाली सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि वे इस बात की सावधानी बरतेंगी कि उन पर बहुमत का अनुचित लाभ उठाने का आरोप न लगे. इसी के लिए संसद में विचार-विमर्श के द्वारा आवश्यक कदमों पर आम राय बनाने की कोशिश जरूरी समझी जाती है. पर, दुर्भाग्य से हमारे यहां इस कोशिश का जो रूप अक्सर दिखाई देता है, वह निराशाजनक ही होता है.  

बहरहाल, अब जो स्थिति बनी है, उसमें यह जरूरी हो जाता है कि हम जनतांत्रिक मर्यादाओं का सम्मान करें. सत्तारूढ़ पक्ष का दायित्व बनता है कि वह इस संदर्भ में उठे सवालों के समुचित जवाब दे. यदि कुछ गलत हुआ है तो उसे ठीक करने का प्रयास हो. जम्मू-कश्मीर को एक राज्य की जगह केंद्र-शासित प्रदेश बनाए जाने पर पुनर्विचार जरूरी है. गृह मंत्री ने आश्वासन दिया है कि ‘सही समय’ पर उसे फिर राज्य का दर्जा दिया जा सकता है. कोशिश होनी चाहिए की यह सही समय जल्द ही आए. जम्मू-कश्मीर की जनता को इस सारी प्रक्रिया में उपेक्षित ही रखा गया है. उसके जख्मों पर मरहम लगाना भी जरूरी है. भाजपा को लग सकता है कि संसद में उसके पास बहुमत है, वह कुछ भी कर सकती है.

लेकिन जनतंत्र में बहुमत का यह भी दायित्व बनता है कि वह विपक्ष का सम्मान करे. यही नहीं, सुरक्षा और गोपनीयता के नाम पर जिस तरह संसद को अंधेरे में रखा गया है, वह भी जनतांत्रिक मर्यादाओं का उल्लंघन ही है. 
यह दुर्भाग्य ही है कि आज विपक्ष इतना कमजोर है. स्वस्थ जनतंत्र में सक्षम सरकार के साथ-साथ मजबूत विपक्ष भी जरूरी है. वस्तुत: यह चुनौती है हमारे जनतंत्र के लिए. क्या हम इसे स्वीकारने को तैयार हैं?

Web Title: It is necessary to respect democratic dignity

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