राजेश बादल का ब्लॉग: सियासी हित साधने के लिए मुफ्तखोरी का जहर
By राजेश बादल | Published: January 7, 2020 07:34 AM2020-01-07T07:34:53+5:302020-01-07T07:34:53+5:30
दरअसल सहायता और लालच दो अलग-अलग शब्द हैं. इन्हें गड्डमड्ड नहीं किया जा सकता. भारतीय लोकतंत्न में इन दोनों का मिलाजुला क्रूर और न पसंद आने वाला चेहरा देखने को मिल रहा है. परिणाम यह निकला है कि इसमें एक नागरिक की अपनी जवाबदेही कहीं खो गई है. राज्य सरकारें प्राकृतिक आपदा पर अनिवार्य आर्थिक सहायता अब समय पर उपलब्ध नहीं करातीं.
दिल्ली के मुख्यमंत्नी अरविंद केजरीवाल ने ऐलान किया है कि उनकी सरकार दोबारा सत्ता में आई तो बसों में छात्नों को नि:शुल्क यात्ना सुविधा उपलब्ध कराई जाएगी. इससे पहले वे महिलाओं को भी मुफ्त बस यात्ना का तोहफा दे चुके हैं. इस बरस सूबे में चुनाव होने हैं. जाहिर है इसके पीछे सहूलियत देने की मंशा कम और चुनाव जीतने की चाहत अधिक है. लेकिन अरविंद केजरीवाल इस तरह का निर्णय लेने वाले कोई पहले राजनेता नहीं हैं. अनेक राज्य सरकारें दशकों से इस तरह के फैसले ले रही हैं. कोई भी राजनीतिक दल इसका अपवाद नहीं है. तात्कालिक सियासी फायदे के लिए अवाम को मुफ्तखोर और आलसी बना देने के इस षड्यंत्न का मुकाबला कैसे किया जाए?
दरअसल सहायता और लालच दो अलग-अलग शब्द हैं. इन्हें गड्डमड्ड नहीं किया जा सकता. भारतीय लोकतंत्न में इन दोनों का मिलाजुला क्रूर और न पसंद आने वाला चेहरा देखने को मिल रहा है. परिणाम यह निकला है कि इसमें एक नागरिक की अपनी जवाबदेही कहीं खो गई है. राज्य सरकारें प्राकृतिक आपदा पर अनिवार्य आर्थिक सहायता अब समय पर उपलब्ध नहीं करातीं. वे अगले चुनाव तक इसे टालती रहती हैं. चुनाव आते ही उनके घोषणापत्न का यह एक जरूरी मुद्दा बन जाता है. किसानों का कर्ज कुछ इसी तरह का है. इस पर सियासी दांवपेंच नहीं चलाए जाने चाहिए. मगर ऐसा नहीं होता. वचन पत्न में दाखिल होते ही सरकारों का कर्तव्य लालच की शक्ल अख्तियार कर लेता है. किसान और उसके परिवार लालच में आकर वोट भी देते हैं. जीतने के बाद राजनीतिक दल प्याज के छिलके की तरह अपने वादे के छिलके उतारते रहते हैं. वादों का संपूर्ण प्याज किसान के हिस्से में शायद ही कभी आता हो. किसान हमेशा ठगा सा महसूस करता है.
इसी तरह सियासी पार्टियां कभी मुफ्त यात्ना पास देती हैं तो कभी नौजवानों को लैपटॉप बांटती हैं. कोई छात्नाओं को नि:शुल्क साइकिल देता है तो कोई सरकार जूते बांटती है. एक सरकार ने बुजुर्गो को मुफ्त में तीर्थ कराने को भी सरकार का काम मान लिया. इसी तरह लड़कियों की शादी पर बर्तन, शादी का सामान और कन्यादान राशि का तोहफा देने का फैसला कर लिया. एक मुख्यमंत्नी बिजली का बिल माफ करने की उद्घोषणा करते हैं तो दूसरे बेरोजगारी भत्ता देने का प्रलोभन देते हैं. इस वजह से मतदाताओं को दिया गया लालच अगली सरकार के लिए ड्यूटी बन जाता है. वह चाहकर भी इस दान पर रोक नहीं लगाती. सरकारी खजाने को खस्ताहाल में पहुंचाकर एक मुख्यमंत्नी चला जाता है और सूबे का अगला मुखिया उस बोझ को ढोता रहता है. तब यह लालच सहायता, सुविधा अथवा मजबूरी में तब्दील हो जाता है. कर्ज लेकर घी पीने की यह आदत प्रदेशों का स्थायी नुकसान कर रही है. मध्य प्रदेश की हालत भी कुछ ऐसी ही है. शिवराज सिंह चौहान के कई फैसले राज्य के लिए बोझ बन गए.
पार्टी की हार के बाद एक कामचलाऊ मुख्यमंत्नी होते हुए भी उन्हें वेतन बांटने के लाले पड़ गए. तब करीब हजार करोड़ रुपए कर्ज लेना पड़ा. देश के इतिहास में इस तरह का शायद ही कोई दूसरा उदाहरण मिले. घर-घर में बैठे बेरोजगार नौकरी के लिए तरस रहे हैं और लाखों कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति उम्र दो बरस बढ़ा दी गई.दक्षिण भारत में भी मुफ्त उपहार बांटने का सिलसिला पुराना है. टीवी सेट, साड़ियां, प्रेशर कुकर, घड़ियां, सोने-चांदी के जेवर, फ्रिज और इस तरह के अन्य तोहफे प्रदेश के नागरिकों को घर बैठे दहेज की तरह मिलते हैं. हद तो तब होती है, जब राजनीतिक पार्टियां घोषणा-पत्नों में इस तरह वादे करती हैं और आचार संहिता की धज्जियां बिखर जाती हैं.
आम नागरिक के नजरिये से ऐसे निर्णय कितने घातक हैं- किसी ने नहीं सोचा. आजादी के बाद हम भारतीय जैसे मुफ्त माल उड़ाने की संस्कृति के आदी हो गए हैं. बिना परिश्रम के पका पकाया माल हम उड़ाना चाहते हैं. क्या अपनी आजादी से हम यही चाहते थे? क्या भारत इसी बुनियाद पर अपनी नई नस्ल से समर्पित, परिश्रमी, ईमानदार और लगनशील होने की अपेक्षा करता है? क्या अवाम मुफ्तखोरी के इस जहरीले इंजेक्शन का नतीजा जानती है? शायद नहीं. हम रोजमर्रा की चिमगोइयों में तो जापान की तारीफ करते नहीं अघाते कि किस तरह हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु हमले के बाद उसने विनाश के ढेर पर विकास की इबारत लिखी लेकिन एक-एक सरकारी छुट्टी का एन्जॉय करने के लिए स्वागत करते हैं. याद करना होगा कि भारतीय सबसे अधिक छुट्टियां लेते हैं.
भयावह कर्ज और डगमगाती आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रही सरकारों ने अपनी स्थिति सांप - छछूंदर जैसी बना ली है. वे अब मुफ्तखोरी के इस जाल को न समेट सकती हैं और न स्थायी तौर पर बिछाए रखने में उनकी भलाई है. एक तरह से वे अपने ही जाल में उलझ गई हैं. भारतीय नागरिक तो इसकी लत पाल चुके हैं. अब यह छूटना मुश्किल है. कितना अच्छा होता कि हमारे राजनेता शिक्षा, स्वास्थ्य और साफ पानी मुफ्त मुहैया कराते तो इस देश का ज्यादा भला होता. क्या सभी पार्टियां अब भी कुछ सीखेंगी? शायद अभी नहीं.