ब्लॉग: सदन के संरक्षक पर बढ़ता संदेह चिंताजनक
By राजकुमार सिंह | Updated: June 25, 2024 10:08 IST2024-06-25T10:04:40+5:302024-06-25T10:08:59+5:30
सदन संचालन और सरकार के संकटकाल में स्पीकर की भूमिका निर्णायक रहती है। संवैधानिक अपेक्षा तो यही है कि स्पीकर को दलगत राजनीति से परे निष्पक्ष रूप से सदन के संरक्षक की भूमिका निभानी चाहिए, पर पी.ए. संगमा और सोमनाथ चटर्जी जैसे ऐसे स्पीकर कम ही हुए हैं।

फोटो क्रेडिट- (एक्स)
स्पीकर के चुनाव के जरिये सत्तारूढ़ राजग में मतभेद पैदा करने और खुद डिप्टी स्पीकर पद पाने की विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ की कोशिश कामयाब होगी या सहयोगी दलों को डिप्टी स्पीकर पद देकर भाजपा अपना स्पीकर बनाने में कामयाब हो जाएगी? इसका जवाब 26 जून को मिल जाएगा, लेकिन सदन का संरक्षक माने जाने वाले स्पीकर पद की घटती विश्वसनीयता और उस पर बढ़ते संदेह पर जरूरी चिंता कहीं नहीं दिखती। न सिर्फ सत्तापक्ष और विपक्ष में, बल्कि खुद सत्तारूढ़ राजग में भी स्पीकर पद को लेकर रस्साकशी से भी पुष्टि होती है कि संरक्षक का यह पद अविश्वास और दलगत राजनीति का शिकार हो चुका है।
सदन संचालन और सरकार के संकटकाल में स्पीकर की भूमिका निर्णायक रहती है। संवैधानिक अपेक्षा तो यही है कि स्पीकर को दलगत राजनीति से परे निष्पक्ष रूप से सदन के संरक्षक की भूमिका निभानी चाहिए, पर पी.ए. संगमा और सोमनाथ चटर्जी जैसे ऐसे स्पीकर कम ही हुए हैं। 1967 में स्पीकर चुने जाने पर नीलम संजीव रेड्डी ने तो कांग्रेस की सदस्यता से भी यह कहते हुए इस्तीफा दे दिया था कि स्पीकर को किसी दल का सदस्य नहीं होना चाहिए। वही संजीव रेड्डी 1977 में दूसरी बार लोकसभा स्पीकर बने। कुछ समय बाद वह देश के निर्विरोध राष्ट्रपति भी बने।
2008 में अमेरिका के साथ परमाणु संधि के विरोध में मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस लेने पर माकपा ने अपने सदस्य सोमनाथ चटर्जी को स्पीकर पद छोड़ने के लिए कहा था, पर उन्होंने खुद को दलगत राजनीति से ऊपर बताते हुए इनकार कर दिया। जवाब में माकपा ने चटर्जी को पार्टी से निलंबित कर दिया। विडंबना है कि पिछले कुछ दशकों में स्पीकर का पद दलगत राजनीति का अखाड़ा बनता गया है। संवेदनशील मुद्दे पर बहस या अविश्वास प्रस्ताव पर निर्णय में तो स्पीकर की भूमिका अहम रहती ही है, किसी दल में बगावत या विभाजन में वह निर्णायक बन जाती है।
वैसे गठबंधन सरकार में स्पीकर पद सहयोगी दलों को दिए जाने की परंपरा भी रही है। वाजपेयी की राजग सरकार में तेदेपा के जीएमसी बालयोगी के बाद शिवसेना के मनोहर जोशी स्पीकर बने। मनमोहन सिंह की संप्रग सरकार में माकपा के सोमनाथ चटर्जी स्पीकर बने। नवनिर्वाचित सांसदों को 24-25 जून को शपथ दिलवाने के लिए, सातवीं बार सांसद चुने गए भाजपा के भर्तृहरि महताब को प्रोटेम स्पीकर नियुक्त किए जाने पर विवाद बताता है कि 18 वीं लोकसभा की शुरुआत सौहार्द्रपूर्ण माहौल में नहीं होने जा रही। नए स्पीकर का चुनाव 26 जून को सदन में मौजूद सदस्यों के बहुमत द्वारा किया जाएगा।
राजग में सहमति की जिम्मेदारी राजनाथ सिंह को दी गई है। भाजपा को उम्मीद है कि आंध्र प्रदेश से उसकी सांसद पुरंदेश्वरी के नाम पर नायडू मान जाएंगे, क्योंकि वह उनकी पत्नी भुवनेश्वरी की बहन हैं। पुरंदेश्वरी गैरकांग्रेसी दिग्गज रहे एनटी रामाराव की बेटी हैं, इसलिए नीतीश भी शायद विरोध न करें। इस बार भाजपा और तेदेपा में गठबंधन करवाने में भी उनकी भूमिका बताई जाती है। देखना होगा कि नायडू-नीतीश जैसे राजनीति के चतुर खिलाड़ी रिश्ते का लिहाज करेंगे या फिर कोई सौदेबाजी? पर सबसे गंभीर सवाल सदन के संरक्षक की विश्वसनीयता पर बढ़ते संदेह का है, जिसका जवाब सभी संबंधित पक्षों को समय रहते खोजना चाहिए।