पुनर्विचार याचिकाओं से सरकार का बढ़ता संकट

By एनके सिंह | Published: April 19, 2019 12:07 PM2019-04-19T12:07:29+5:302019-04-19T12:07:29+5:30

भारत की सबसे बड़ी अदालत के हाल के दो फैसलों ने न केवल इस न्यायिक संस्था की गरिमा बढ़ाई है बल्कि जन-विश्वास को और पुख्ता किया है.

Increasing crisis of government from reconsideration petitions | पुनर्विचार याचिकाओं से सरकार का बढ़ता संकट

सुप्रीम कोर्ट (फाइल फोटो)

भारत की सबसे बड़ी अदालत के हाल के दो फैसलों ने न केवल इस न्यायिक संस्था की गरिमा बढ़ाई है बल्कि जन-विश्वास को और पुख्ता किया है. वकालत की दुनिया की मशहूर कहावत है कि सुप्रीम कोर्ट अंतिम सत्य इसलिए नहीं है कि वह त्रुटिहीन/दोषरहित है बल्कि इसलिए कि वह अंतिम सत्य है जिसके बाद कोई और सत्य बताने का जरिया ही नहीं है. अपने दो महत्वपूर्ण फैसलों पर पुनर्विचार याचिका को स्वीकार करते हुए उसने साबित किया कि उससे भी गलती हो सकती है और वह उस संभावित गलती के सुधार के प्रति संजीदा भी है. राफेल डील और सबरीमला मंदिर मामले में पुनर्विचार याचिका स्वीकार करते हुए इस सर्वोच्च अदालत ने यह भी सिद्ध किया कि हर संस्था से गलती हो सकती है क्योंकि उसे मानव ही चलाता है, पर समाज का नुकसान तब ज्यादा होता है जब वह इस डर से कि उसकी ‘त्रुटिविहीनता’ वाली इमेज पर आंच आएगी, गलतियों (अगर होने की रंचमात्र भी आशंका है) को सुधारने का भाव स्वीकार नहीं करता. 

राफेल डील में प्रधान न्यायाधीश की  अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय खंडपीठ ने स्पष्ट रूप से मोदी सरकार को क्लीनचिट दे दी थी. ‘दस्तावेजों, प्रक्रियाओं और प्राथमिकताओं को गहराई से समझने से बाद यह कहा जा सकता है कि राफेल डील में कुछ भी गलत नहीं हुआ’ अदालत ने कहा था. लेकिन इस फैसले के बाद सीएजी की रिपोर्ट आती है और उसमें ऐसा लगा कि सरकार रक्षा और राष्ट्रीय हित बताकर इस संस्था से भी अनुरोध कर रही है कि खरीद-फरोख्त के सारे तथ्य रिपोर्ट में न रखे जाएं.  

लेकिन हाल में जब एक अखबार ने सरकार के हिसाब से ‘अति-गुप्त’ दस्तावेज प्रकाशित कर दिए तो सुप्रीम कोर्ट भी चौंका. यहां दो सवाल पैदा होते हैं. अगर ये ‘अति-गुप्त’ दस्तावेज थे, जिनके प्रकट होने से राष्ट्र की सुरक्षा को खतरा था तो मीडिया को मिले कैसे? और दूसरा, ये दस्तावेज सुप्रीम कोर्ट को क्यों नहीं सौंपे गए थे. सरकार की सारी दलीलें लचर साबित हुईं. यही कारण है कि सर्वोच्च अदालत ने नए तथ्यों को ध्यान में रखते हुए पुनर्विचार याचिका स्वीकार की. सुप्रीम कोर्ट ने भी यह माना कि सूचना का प्रवाह अगर सत्य को उजागर करता है तो वह सर्वोपरि है और यह महत्वपूर्ण नहीं है कि वह साक्ष्य कैसे हासिल किया गया है.  

सबरीमला के मामले में 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने 4-1 से हुए फैसले में सदियों पुरानी प्रथा बंद करवाते हुए हर उम्र की महिलाओं को केरल स्थित इस मंदिर में पूजा-अर्चना की इजाजत दी थी. इस फैसले के आधार के रूप में संविधान पीठ ने फैसले करने वाले न्यायाधीशों के लिए एक नया सिद्धांत प्रतिपादित किया था (या संज्ञान में लिया था) - संवैधानिक नैतिकता का सिद्धांत. इसको लेकर सरकार में शंकाएं बढ़ीं और अटॉर्नी जनरल ने अपने सार्वजनिक भाषण में इसे जजों का अपनी शक्ति बढ़ाने वाला बताया था. इसके बाद हाल ही में सुप्रीम कोर्ट को एक बार फिर अपने को तौलने का मौका आया जब पुणो के एक याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की कि सबरीमला फैसले के आलोक में अदालत मुस्लिम महिलाओं का मस्जिद में नमाज पढ़ना भी आदेशित करे. जाहिर है कि अगर जजों को संवैधानिक नैतिकता के आधार पर सदियों पुरानी आस्था को बदलना उचित लगा तो उसी आधार पर मस्जिद में महिलाओं का नमाज पढ़ना भी वैध होना चाहिए.   बहरहाल इन दोनों पुनर्विचार याचिकाओं पर फैसला जो भी हो, सुप्रीम कोर्ट की गरिमा और जन-विश्वास और बढ़ेगा.

Web Title: Increasing crisis of government from reconsideration petitions

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