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ब्लॉग: भाजपा में बृजभूषण शरण सिंह होने का महत्व...आखिर इस ‘अजेयता की ढाल’ की वजह क्या है?

By हरीश गुप्ता | Updated: June 8, 2023 07:19 IST

सत्ता के गलियारों में ऐसी भी फुसफुसाहट है कि बृजभूषण संभवत: एकमात्र ऐसे भाजपा सांसद हैं जो कई मौकों पर सार्वजनिक रूप से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आलोचना कर चुके हैं और मुख्यमंत्री ने उनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया.

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छह बार के लोकसभा सांसद बृजभूषण शरण सिंह के मामले ने भाजपा के एक बड़े वर्ग को हैरान कर दिया है. आम तौर पर भाजपा नेतृत्व इस तरह के तत्वों को पार्टी से बाहर का दरवाजा दिखाने में देर नहीं करता है, फिर चाहे वह विदेश राज्यमंत्री एम.जे. अकबर रहे हों, जिनसे कह दिया गया था कि वे या तो पद छोड़ दें या अन्य मामलों में कार्रवाई के लिए तैयार रहें. लेकिन दिल्ली पुलिस का दोहरापन तब उजागर हुआ जब उसने महाराणा प्रताप सेना के प्रमुख राज्यवर्धन सिंह परमार को तो दिल्ली के यूपी भवन में कथित यौन शोषण के आरोप में गिरफ्तार करने में देर नहीं लगाई परंतु जब जनवरी में पहलवान बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ मामला दर्ज कराने कनॉट प्लेस थाने पहुंचे तो पुलिस ने उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से इंकार कर दिया. सिंह को दी गई ‘अजेयता की ढाल’ आश्चर्यजनक है. 

पहलवानों को आखिर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाना पड़ा. सत्ता के गलियारों में फुसफुसाहट है कि बृजभूषण संभवत: एकमात्र ऐसे भाजपा सांसद हैं जो कई मौकों पर सार्वजनिक रूप से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की आलोचना कर चुके हैं और मुख्यमंत्री ने उनके खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया. इसका एक कारण यह हो सकता है कि ‘बाहुबली’ को पार्टी आलाकमान का समर्थन हासिल है. योगी को बृजभूषण शरण सिंह के कथित तौर पर कई अवैध निर्माण कार्यों की ओर से आंखें मूंदनी पड़ी थीं. 

आलाकमान को लगता है कि बृजभूषण का कम से कम आधा दर्जन लोकसभा सीटों पर प्रभाव है. उन्होंने अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर हुए आंदोलन में भी अहम भूमिका निभाई थी. पहलवान जब पिछले हफ्ते अमित शाह से मिले थे तो उनसे कहा गया कि कुछ दिनों के लिए वे अपना आंदोलन स्थगित कर दें. रणनीति यह है कि दिल्ली पुलिस को यौन शोषण मामले में अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने दिया जाए और कानून को अपना काम करने दिया जाए तथा अदालतें आगे कार्रवाई करें. 

पुलिस कार्रवाई में देरी के फलस्वरूप नाबालिग पहलवान ने बृजभूषण के खिलाफ अपनी शिकायत वापस ले ली. हालांकि उसने मजिस्ट्रेट के सामने फिर से अपना बयान बदल दिया. लेकिन नुकसान हो चुका था. बृजभूषण का क्या होगा, इसके बारे में सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है.

सुनील बंसल की वापसी से योगी नाराज

पिछले साल अगस्त में हुए सांगठनिक फेरबदल में ओडिशा, पश्चिम बंगाल और तेलंगाना के प्रभारी महासचिव बनाकर भेजे गए पराक्रमी सुनील बंसल को चुपचाप यूपी वापस लाया गया है. बंसल ने वास्तव में 2017 से, जब भाजपा यूपी की सत्ता में आई, राज्य पर शासन किया. उनका योगी आदित्यनाथ से संघर्ष चल रहा था, क्योंकि उन्हें भाजपा हाईकमान का एक हद तक समर्थन हासिल था और सरकारी तंत्र पर भी उनका प्रभाव था. 

हालांकि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के कहने पर उन्हें यूपी के बाहर भेज दिया गया और 2024 के लोकसभा चुनावों के पहले पार्टी को मजबूत करने के लिए तीन प्रमुख राज्यों का प्रभार दिया गया. एक आश्चर्यजनक घटनाक्रम के अंतर्गत बंसल को मोदी सरकार के नौ साल पूरे होने के उपलक्ष्य में एक माह तक चलने वाले एक बड़े अभियान की देखरेख करने के लिए यूपी वापस लाया गया है. हालांकि बंसल को एक महीने के लिए ही लाया गया है, कई लोग मानते हैं कि वे 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारियों के दौरान यूपी में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहेंगे. 

बंसल 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान अमित शाह के संपर्क में आए थे, और बाद में जब यूपी के प्रभारी महासचिव थे तो पार्टी ने 80 में से 71 सीटें जीती थीं. बंसल की वापसी हालांकि सीमित समय के लिए ही है, लेकिन यह यूपी के नए प्रभारी महासचिव धर्मपाल के अधिकारों को कमजोर करती है. बंसल को प. बंगाल, ओडिशा और तेलंगाना की 80 लोकसभा सीटों में कम से कम 50 से 55 सीटें जीतने का टास्क दिया गया है. 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान यहां से भाजपा सिर्फ 30 सीटें ही जीत सकी थी.

वसुंधरा की वापसी

ऐसा लगता है कि कर्नाटक में भाजपा की करारी हार का पार्टी के आलाकमान पर व्यापक प्रभाव पड़ा है. नेतृत्व ने महसूस किया है कि व्यापक जनाधार वाले प्रादेशिक नेताओं को अगर दरकिनार किया जाएगा तो पार्टी के लिए उन राज्यों को बचा पाना मुश्किल हो जाएगा. चूंकि पांच राज्यों (मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम) में इस साल नवंबर-दिसंबर में चुनाव होने वाले हैं इसलिए आलाकमान ने यूटर्न ले लिया है. इससे अगर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने राहत की सांस ली है तो राजस्थान को लेकर भी आलाकमान के रुख में अप्रत्याशित परिवर्तन आया है. 

पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधराराजे सिंधिया, जो पार्टी के लिए पिछले चार साल से अवांछितों में शामिल थीं, 31 मई को भाजपा की अजमेर रैली में मंच पर मोदी के बगल में बैठे हुए देखा गया. पीएम ने नाथद्वारा, दौसा और भीलवाड़ा सहित कई बार राजस्थान का दौरा किया लेकिन अजमेर में दृश्य अलग था. वसुंधरा न तो पार्टी की प्रदेश अध्यक्ष (सी.पी. जोशी) थीं और न राज्य विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष (राजेंद्र राठोड़) थीं. फिर भी उन्हें मोदी के बगल वाली सीट दी गई और उन्हें पीएम से बातचीत करते देखा गया. 

हालांकि उन्होंने सार्वजनिक सभा को संबोधित नहीं किया, लेकिन उनकी वापसी को हल्के में नहीं लिया जा सकता. यह केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के लिए बुरा संकेत हो सकता है जो पार्टी आलाकमान के चहेते माने जाते हैं.

वर्ष 2018 का यह नारा अब बीते जमाने की बात हो गई है कि ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, पर रानी तेरी खैर नहीं.’ पार्टी ने महसूस किया है कि बिना वसुंधरा के कांग्रेस को हराना करीब-करीब नामुमकिन होगा. इसका यह मतलब भी है कि सचिन पायलट के भाजपा में प्रवेश के दरवाजे बंद हो गए हैं. राजस्थान में भाजपा मुख्यालय के बाहर बैनर, पोस्टरों में मोदी, नड्डा, अमित शाह, सी.पी. जोशी और राठोड़ के साथ अब वसुंधरा की भी तस्वीरें लगी हैं.

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