कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: भुलाई नहीं जा सकती अविचलित प्रतिरोध की वह परंपरा

By कृष्ण प्रताप सिंह | Published: May 30, 2022 02:55 PM2022-05-30T14:55:30+5:302022-05-30T14:55:30+5:30

1854 में श्यामसुंदर सेन द्वारा प्रकाशित व संपादित हिंदी के पहले दैनिक ‘समाचार सुधा वर्षण’ ने प्रतिरोध की इस परंपरा को प्राणप्रण से समृद्ध करना आरंभ किया।

hindi journalism and its contrubution for freedom of India | कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: भुलाई नहीं जा सकती अविचलित प्रतिरोध की वह परंपरा

कृष्ण प्रताप सिंह का ब्लॉग: भुलाई नहीं जा सकती अविचलित प्रतिरोध की वह परंपरा

कोलकाता में सक्रिय कानपुर के वकील पंडित जुगलकिशोर शुक्ला द्वारा 1826 में आज के ही दिन यानी 30 मई को बड़ा बाजार के पास स्थित 37, अमर तल्ला लेन, कोलूटोला (कोलकाता) से ‘हिंदुस्तानियों के हित’ में साप्ताहिक ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन से हिंदी पत्रकारिता की जो परंपरा शुरू की गई, सच्चे मायनों में वह अन्यायी सत्ताओं के प्रतिरोध की ही रही है। 

1854 में श्यामसुंदर सेन द्वारा प्रकाशित व संपादित हिंदी के पहले दैनिक ‘समाचार सुधा वर्षण’ ने प्रतिरोध की इस परंपरा को प्राणप्रण से समृद्ध करना आरंभ किया और 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के सिलसिले में तत्कालीन मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर द्वारा जारी अंग्रेजों को हर हाल में देश से निकालने के फरमान को प्रमुखता से प्रकाशित कर दिया तो अंग्रेजों ने उस पर देशद्रोह का आरोप लगाकर अदालत में खींच लिया। 

लेकिन उसके संपादक श्यामसुंदर सेन ने ऐसी कुशलता से अपना पक्ष रखा कि खुद अंग्रेजों की अदालत ने ही बहादुरशाह जफर को देश का वास्तविक शासक और अंग्रेजों को उस पर अवैध रूप से काबिज करार दे दिया। साथ ही यह भी कहा कि समाचार सुधा वर्षण ने उनका फरमान छाप देशद्रोह नहीं किया, वरन अपना कर्तव्य निभाया है।

आगे चलकर इस परंपरा को निभाने की जिम्मेदारी अपनी तरह के अनूठे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी द्वारा संपादित कानपुर के दैनिक ‘प्रताप’ के हाथ आई तो उसने भी गोरी सत्ता की आंखों की किरकिरी बनने में कुछ भी उठा नहीं रखा। 

अंग्रेजों की सेना और पुलिस ने सात जनवरी, 1921 को अपने नेताओं की गिरफ्तारी का विरोध कर रहे किसानों को रायबरेली शहर के मुंशीगंज में सई नदी पर बने पुल पर रोका और गोलियां चलाकर बेरहमी से भून डाला, तो प्रताप पहला ऐसा पत्र था, जिसने उसे ‘एक और जलियांवाला’ की संज्ञा दी।

यही नहीं, ‘प्रताप’ ने रायबरेली के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट ए. जी. शेरिफ के चहेते एमएलसी और खुरेहटी के तालुकेदार वीरपाल सिंह की, जिसने मुंशीगंज में किसानों पर फायरिंग की शुरुआत की थी, ‘कीर्तिकथा’ छापते हुए उसे ‘डायर का भाई’ बताया और यह जोड़ना भी नहीं भूला कि ‘देश के दुर्भाग्य से इस भारतीय ने ही सर्वाधिक गोलियां चलाईं।’ 

फिर तो अंग्रेजों ने वीरपाल सिंह को मोहरा बनाकर उसके संपादक व मुद्रक को मानहानि का नोटिस भिजवाया और उनके क्षमा याचना न करने पर रायबरेली के सर्किट मजिस्ट्रेट की अदालत में मुकदमा दायर करा दिया।

इस मुकदमे में सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यासकार और अधिवक्ता वृंदावनलाल वर्मा ने ‘प्रताप’ की पैरवी की। उन्होंने 65 गवाह पेश कराए, जिनमें राष्ट्रीय नेताओं मोतीलाल नेहरू, मदनमोहन मालवीय, जवाहरलाल नेहरू और विश्वंभरनाथ त्रिपाठी के अलावा किसान और महिलाएं थीं। 

बाद में जिरह में गणेशशंकर विद्यार्थी ने खुद भी मजबूती से अपना पक्ष रखा और लिखित उत्तर में कहा कि उन्होंने जो कुछ भी छापा, वह जनहित में था और उसके पीछे संपादक या लेखक का कोई खराब विचार नहीं था। यहां तक कि वे वीरपाल को व्यक्तिगत रूप से जानते तक नहीं थे। 22 मार्च 1921 को अपनी बहस में वृंदावनलाल वर्मा ने भी उनका जोरदार बचाव किया।

इस सबके बावजूद 30 जुलाई 1921 को प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट मकसूद अली खां ने प्रताप के संपादक व मुद्रक दोनों को एक-एक हजार रुपए के जुर्माने और छह-छह महीने की कैद की सजा सुना दी। लेकिन न ‘प्रताप’ ने अपना रास्ता बदला, न ही गणेशशंकर विद्यार्थी ने। विद्यार्थी जी ने पांच बार जेल यात्राएं कीं तो ‘प्रताप’ से बार-बार जमानत मांगी गई। लेकिन इस सबसे प्रतिरोध पथ से अविचलित ‘प्रताप’ समय के साथ ‘आजादी की लड़ाई का मुखपत्र’ कहलाया।

इस सिलसिले में इलाहाबाद से प्रकाशित उर्दू साप्ताहिक ‘स्वराज’ का जिक्र न करना नाइंसाफी होगा। भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के इतिहास में इसको छोड़ शायद ही कोई दूसरा पत्र हो, जिसके एक-एक करके आठ संपादकों ने विदेशी सत्ता का कहर झेलते हुए देश निकाले सहित कुल 125 वर्ष से ज्यादा की सजाएं भोगी हों। 

Web Title: hindi journalism and its contrubution for freedom of India

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