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Happy Teachers' Day 2025: शिक्षकों में चाहिए सृजनात्मक ऊर्जा और उत्साह

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: September 5, 2025 05:22 IST

Happy Teachers' Day 2025: युवाओं का शिक्षा में रुझान बढ़ा, नामांकन में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई और पूर्णत: शिक्षित भारत के सपने को पूरा करने  की दिशा में  हम आगे बढ़े.

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ठळक मुद्दे मात्रात्मक बदलाव के समानांतर शिक्षा की गुणवत्ता की चुनौती बढ़ती गई.शिक्षा के बढ़ते विशिष्टीकरण (स्पेशलाइजेशन) के दौर में और भी उलझती गई. सरकार ने तरह-तरह के आर्थिक अनुदान के कार्यक्रम शुरू किए.

Happy Teachers' Day 2025: देश को स्वतंत्रता मिलने के बाद सरकारी नीतियों में शिक्षा के विकास को भी जगह मिली और देश में महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की संख्या में क्रमश: लगभग 92 प्रतिशत और 58 प्रतिशत की आशातीत बढ़ोत्तरी हुई. यद्यपि अभी भी उनकी संख्या जरूरत के मुताबिक अपर्याप्त है, तब भी यह निश्चित रूप से एक सकारात्मक पहल और बड़ी उपलब्धि थी. इसके चलते उच्च शिक्षा का विस्तार हुआ. युवाओं का शिक्षा में रुझान बढ़ा, नामांकन में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई और पूर्णत: शिक्षित भारत के सपने को पूरा करने  की दिशा में  हम आगे बढ़े.

लेकिन इस मात्रात्मक बदलाव के समानांतर शिक्षा की गुणवत्ता की चुनौती बढ़ती गई, जो शिक्षा के बढ़ते विशिष्टीकरण (स्पेशलाइजेशन) के दौर में और भी उलझती गई. ऊपर से गुणवत्ता में कमी को संसाधनविहीनता के परिणाम के रूप में समझा गया. यह निष्कर्ष निकाला गया कि उच्च शिक्षा के विस्तार के साथ उसकी आधारभूत सुविधाओं में उसी अनुपात में वृद्धि का न हो पाना इसकी गुणवत्ता को बाधित कर रहा है. इसे ध्यान में रखते हुए सरकार ने तरह-तरह के आर्थिक अनुदान के कार्यक्रम शुरू किए.

अधो-संरचना मजबूत करने, सेमिनार तथा प्रशिक्षण वर्कशॉप कराने के लिए आर्थिक सहायता, विद्यार्थियों के लिए छात्रवृत्ति, प्रयोगशालाओं और पुस्तकालयों के विकास आदि के लिए सहायता की पहल भी शुरू हुई. निजी क्षेत्र ने भी उच्च शिक्षा में रुचि ली और उच्च शिक्षा के निजी संस्थानों की बाढ़ सी आ गई.

इस सबके बावजूद यदि कुछ गिने-चुने अपवादों को छोड़ दें तो सामान्यतया उच्च शिक्षा की परिस्थिति को लेकर असंतोष है और शिक्षा के हितग्राहियों के मन में  आज चिंता व्याप्त हो रही है. यह दुखद है कि उच्च शिक्षा के ज्यादातर परिसर या कैंपस ज्ञान के उन्मेष, सार्थक बहस और जरूरी अकादमिक संलग्नता की दृष्टि से कमजोर पड़ते दिख रहे हैं.

वहां का सर्जनात्मक उत्साह ढीला पड़ता जा रहा है. अध्यापकों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से घट गई है. जो बचे हैं उनको अब धैर्य और मनोयोग से अध्ययन-अध्यापन करने में रस कम मिल रहा है. स्वाभाविक आश्चर्य, जिज्ञासा, नयापन और स्वयं को अद्यतन बनाए रखने का आकर्षण भी घट रहा है.

अस्पष्टता के प्रति सहिष्णुता, वैचारिक विविधता के स्वागत, नई खोज करने के लिए उत्साह और अध्यापन की गुणवत्ता में भी खासी कमी आई है. सच कहें तो गुरु की गरिमा घटी है. शैक्षिक परिवेश में बौद्धिक साहस के लिए जरूरी जगह सिकुड़ती जा रही है. इसके बदले अपने लिए अधिकाधिक सुविधाएं जुटाने के लिए कोशिशें हावी होती जा  रही हैं.  

इस माहौल में शैक्षिक अनुष्ठान या रिचुअल पूरा करने की कवायद जोड़ पकड़ती जा रही है. जैसे-तैसे खानापूर्ति करते रहने का आडंबर बढ़ता जा रहा है.  ज्यादातर संस्थानों में शोध के नाम पर नवाचार की जगह सिर्फ उबाने वाला संदर्भहीन दुहराव हो रहा है जिससे किसी तरह के ज्ञान में सार्थक वृद्धि नहीं हो पा रही है.

विदेशी उधार पर एकत्र सिद्धांतों और विधियों के सहारे जो समझ विकसित भी हो रही है उसकी भारत के लिए प्रासंगिकता को लेकर ज्यादातर लोग संशय में बने रहते हैं. समाज और शास्त्रीय ज्ञान के बीच दूरी बढ़ती जा रही है. इस तरह की परिस्थिति औपनिवेशिक विश्वासों और अभ्यासों के बलबूते लगातार चलते रहने से उपजी है.

कुल मिला कर शिक्षा के स्तर या गुणवत्ता और उसकी उपादेयता के साथ बड़े पैमाने पर समझौता होता रहा है. शिक्षा पा कर बड़ी संख्या में बेरोजगारों की फौज खड़ी होती रही है जो भार बन रही है और आपराधिक तथा अन्य अनुत्पादक कामों में लग जाती है. युवा वर्ग की देश की जनसंख्या में व्यापक उपस्थिति के चलते यह सब चिंता बढ़ा रहा है.

ऐसे में यह विचारणीय हो जाता है कि उच्च शिक्षा के महत्व की सार्वजनिक स्वीकृति के बावजूद उक्त परिस्थितियां क्यों विकसित और संपोषित होती रही हैं? इसके कारण कदाचित हमारी व्यवस्था में ही मौजूद हैं.  हमारे अकादमिक परिसरों ने अपनी विकास यात्रा को प्रासंगिक बनाए रखने में कोताही बरती.

दुर्भाग्य से हमारे परिसर स्वाधीन होने के बदले अनुकरणमूलक संस्कार और पश्चिमी ज्ञान तंत्र के अनुगामी ही बने रहे. वर्तमान माहौल में बदलती परिस्थितियों के कारण अध्यापक का  निजी दायित्वबोध भी कमजोर हुआ है.  वह अध्यापन के बदले नौकरी करने और उससे नफा कमाने के उपाय में व्यस्त रहता है.

यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो आज शिक्षण-व्यवसाय की सेवा शर्तों और सुविधाओं की स्थिति असंतोषजनक है. अध्यापक की सामाजिक और अकादमिक प्रतिष्ठा छिन्न-भिन्न हो रही है. वह स्वतंत्रचेता होने के बदले तंत्र का अनुगामी बन यथास्थिति का पोषण कर रहा है. इस यथास्थिति को तोड़ने का जिम्मा केवल शिक्षक को सौंपना समस्या को अनदेखा करना होगा.

शिक्षा के सभी हितधारकों को मिलकर परिसरों में ऊर्जा लाने और उसे तरंगित करने के लिए आगे आना होगा.  इसके लिए शिक्षकों और विद्यार्थियों की सृजनधर्मिता को नौकरशाही और व्यवस्था की जकड़बंदी से मुक्त करना होगा.  शिक्षा केंद्रों को स्वायत्त रखते हुए उनको विकसित करने की  आवश्यकता है. तभी स्वतंत्र चिंतन की प्रवृत्ति पनपेगी और मानसिक स्वराज का स्वप्न भी साकार हो सकेगा. इसी मुक्ति से विकसित भारत की राह निकलेगी.  

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