गुरु की गरिमा स्थापित की जाए
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Updated: July 27, 2018 15:59 IST2018-07-27T15:59:30+5:302018-07-27T15:59:30+5:30
ऐसी मान्यता भी मिलती है कि गुरु से दीक्षा लिए बिना पिता को कन्यादान नहीं करना चाहिए। इस लोक विश्वास के मूल में गुरु के मार्गदर्शक होने की प्रबल भावना ही प्रमुख है। दूसरी ओर अनेक गुरुओं, महात्माओं और संतों की लंबी शिष्य परंपराएं चल रही हैं।

गुरु की गरिमा स्थापित की जाए
गुरु की संस्था शिक्षा की औपचारिक व्यवस्था से पुरानी है। भारत में उसे सामाजिक जीवन का हिस्सा बना कर रखा गया। मनुष्य जीवन के पांच ऋणों की व्यवस्था में ‘गुरु ऋण’ भी शामिल है। अर्थात् समाज गुरु के प्रति श्रद्धा रखता था और मार्गदर्शन के लिए उसके प्रति ऋणी अनुभव करता था। गुरु की परंपरा कई रूपों में अभी भी जीवित है। आज भी लोग गुरु से दीक्षा लेते हैं और ‘गुरु घराने’ की प्रतिष्ठा है। बहुत से परिवारों में ‘गुरु मुख’ होना एक पावन कर्तव्य माना जाता है।
ऐसी मान्यता भी मिलती है कि गुरु से दीक्षा लिए बिना पिता को कन्यादान नहीं करना चाहिए। इस लोक विश्वास के मूल में गुरु के मार्गदर्शक होने की प्रबल भावना ही प्रमुख है। दूसरी ओर अनेक गुरुओं, महात्माओं और संतों की लंबी शिष्य परंपराएं चल रही हैं। उनके अपने ठिकाने और मठ हैं जहां संन्यास लिए शिष्यों की पूरी जमात रहती है और गृहस्थ शिष्य समय-समय पर गुरु के निकट आते जाते रहते हैं।
गुरु होना दायित्व भी है और अवसर भी। सांदीपनि, द्रोणाचार्य, चाणक्य और रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरुओं का महत्व इसी से है कि वे कृष्ण, अर्जुन, चंद्रगुप्त और विवेकानंद जैसे पराक्र मी शिष्यों को रच सके थे। उनकी प्रसिद्धि इसलिए है कि वे अपने शिष्यों की सहायता से कुछ मूल्यों और सुविचारों वाले नए युग का आरंभ कर सके थे। गुरु वस्तुत: अपने समाज के मानस को रचता है और दिशा देता है। इस अर्थ में वह परिवर्तन का वाहक होता है।
गुरु को अनायास ही महिमा मंडित नहीं किया गया। समाज को उससे बहुत सारी अपेक्षाएं थीं। तभी उसे साक्षात् ‘परम ब्रह्म’ तक कहा गया। गुरु वस्तुत: शिष्य का संस्कार करता है जिसके द्वारा उसके भीतर गुणों को स्थापित करता है और दुर्गुणों को बाहर निकालता है। समय बदलने के साथ अब गुरु की छवि धुंधलाने लगी है। अब शिक्षक को लेकर जब तब ऐसे समाचार आते हैं जिनमें उनके ऊपर आर्थिक, नैतिक और बौद्धिक दृष्टि से आचरण-भ्रष्ट होने का आरोप लगता है। शिक्षण भी किसी अन्य व्यवसाय की तरह का ही एक व्यवसाय हो गया है।
नौकरी की पसंद की दृष्टि से अध्यापकी करना आज के युवा की सबसे निचली पसंद है क्योंकि सुख, सुरक्षा, सुविधा, रु तबा और वेतन की दृष्टि से यह ज्यादा आकर्षक नहीं है। अब ज्यादातर शिक्षकों में भी अध्यापन की मूल प्रेरणा की जगह अधिकाधिक धनार्जन की ललक दिखती है। इस हेतु कई अध्यापक कक्षा की उपेक्षा कर छात्नों को ट्यूशन के लिए प्रेरित करते हैं।
गुरु के कार्य को संचार तकनीक के क्रांतिकारी परिवर्तनों से भी ठेस पहुंच रही है। सूचना का व्यापक संसार हमारे पास कम्प्यूटर के एक क्लिक पर उपलब्ध है। यूट्यूब और अनेक पोर्टल हैं जो सचित्न व्याख्यान दिखाते-सुनाते रहते हैं। अध्ययन, परीक्षा, लेखन आदि सब सूचना प्रौद्योगिकी के प्रभामंडल के दायरे में आते जा रहे हैं। सोचने -विचारने की हमारी आदतें बदल रही हैं। गुरु की और उसके साथ साक्षात संपर्क की आवश्यकता घटती जा रही है।
इसके बावजूद गुरु अप्रासंगिक नहीं हैं क्योंकि ‘गूगल गुरु ’ भ्रामक भी है और अंतत: यंत्न है। गुरु का विकल्प संभव ही नहीं है। हां सूचना प्रौद्योगिकी के हस्तक्षेप से बदलते शिक्षण संसार में उसे अपने को नए रंग ढंग से स्थापित करना होगा। साथ ही विद्यालयों, महाविद्यालयों ही नहीं विश्वविद्यालयों में भी शिक्षकों की दुरवस्था पर विचार कर समाधान निकालना जरूरी होगा। उनकी उपेक्षा समाज के भविष्य के लिए खतरनाक होगी। सशक्त राष्ट्र के लिए गुणवत्ता वाली शिक्षा चाहिए जो सुयोग्य और कर्तव्यनिष्ठ अध्यापकों से ही संभव है।
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