गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: देश के सांस्कृतिक गौरव को समझने के लिए संस्कृत भाषा महत्वपूर्ण
By गिरीश्वर मिश्र | Published: August 23, 2021 10:15 AM2021-08-23T10:15:28+5:302021-08-23T10:15:28+5:30
संस्कृत से अपरिचय के साथ भारतीय संस्कृति में प्रवेश कठिन हो जाता है हम पराधीन होने लगते हैं.
मनुष्य जीवन में वाक शक्ति या वाणी की उपस्थिति कितना क्रांतिकारी परिवर्तन ला देती है, यह बात मानवेतर प्राणियों के साथ शक्ति, संभावना और उपलब्धि की तुलना करते हुए सरलता से समझ में आ जाती है. ध्वनियां और उनसे बने अक्षर तथा शब्द भौतिक जगत में विलक्षण महत्व रखते हैं.
संस्कृत भाषा की उपस्थिति न केवल अति प्राचीन है बल्कि उसमें विपुल ज्ञान-राशि भी विद्यमान है जो अनेक विषयों में हजारों वर्षो के सतत विचार, गहन अनुसंधान, गंभीर प्रयोग और उत्कृष्ट सिद्धांत-निर्माण का प्रतिफल है. भाषा के रूप में संस्कृत की रचना, प्रयोग और वैज्ञानिकता असंदिग्ध है.
संस्कृत का उपयोग सामान्य जीवन में भी रहा है और उसकी गूंज आज भी सुनाई पड़ती है. संस्कृत अनेक भारतीय भाषाओं की जननी है और वे भाषाएं संस्कृत के शब्द भंडार की ऋणी हैं.
आश्चर्यजनक रूप से संस्कृत में उपलब्ध सिद्धांत जीवन से जुड़े अधिकांश विषयों का समावेश करते हैं और उनमें उपलब्ध विवेचन बड़े मुक्त मन से बिना किसी तरह के दुराग्रह के किया गया है. जिस खुलेपन के साथ विमर्श, वाद-विवाद और शास्त्रार्थ की समृद्ध परंपरा संस्कृत में जीवित रही है, उसी का परिणाम है कि इस विचार-सरणि में विचारों और दृष्टियों की व्यापक विविधता है.
उदाहरण के लिए भारतीय दर्शन को देखें तो वेदांत, मीमांसा, सांख्य, न्याय, जैन, बौद्ध तथा चार्वाक आदि अनेक दृष्टियां विकसित हुई हैं. यही नहीं सिर्फ वेदांत के क्षेत्न में ही द्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत, शुद्धाद्वैत और भेदाभेद के विविधवर्णी विचार विद्यमान हैं. इनकी चर्चाएं अनुभव और तर्कके आधार पर मत स्थिर करती हैं.
वेदों में आध्यात्मिक और अन्य प्रकार का ज्ञान, योग में चेतना, आयुर्वेद में स्वास्थ्य, उपनिषदों में आत्म-विचार तथा व्याकरण में भाषा व्यवहार की गहराई और व्यापकता अध्येताओं के लिए स्पृहणीय हैं. ऐसे ही पुराणों और स्मृतियों के साथ भरत मुनि का नाट्यशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र, चाणक्य का अर्थशास्त्र, ज्योतिष और गणित के ग्रंथ, महाभारत, रामायण और समृद्ध काव्य-साहित्य ऐसी विरासत का निर्माण करते हैं जो न केवल देश-गौरव का माध्यम है बल्कि जीवनोपयोगी है.
यह भी उल्लेखनीय है कि इन ग्रंथों में वर्णित सिद्धांत प्राय: किसी धर्म, जाति या क्षेत्न विशेष के पक्षधर नहीं हैं. दुर्भाग्य से अंग्रेजी राज की शिक्षा के क्रम में ज्ञान के इस स्रोत को ऐसे ढंग से अप्रासंगिक, अनावश्यक और अनुपयोगी बना दिया गया कि यह उपेक्षित होती गई और उसका उपयोग एक भार बन गया जिससे मुक्त होने में ही कल्याण समझा गया.
अंग्रेजी के आकर्षण की दुरभिसंधि कुछ इस तरह की हुई कि उदार, सृष्टि की पक्षधर तथा जीवनोन्मुखी संस्कृत को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा. आज जिस तरह एक प्रकार के सांस्कृतिक क्षरण का अनुभव हो रहा है उसमें सामाजिक जीवन में मूल्यों की गिरावट और प्रकृति, पर्यावरण के प्रति संवेदनहीनता बढ़ रही है.
संस्कृत से अपरिचय के साथ भारतीय संस्कृति में प्रवेश कठिन हो जाता है हम पराधीन होने लगते हैं. अब जब स्वराज, आत्मनिर्भरता और स्वदेशी के स्वर मुखर हो रहे हैं और हम स्वतंत्नता का अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो भारत को आत्मचेतस भी होना पड़ेगा जिसके लिए संस्कृत के निकट जाना आवश्यक है. देश की शिक्षा नीति में इसका सम्यक प्रावधान होना चाहिए.