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गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: एक-दूसरे के साथ गहनता से जुड़े हुए हैं अधिकार और कर्तव्य

By गिरीश्वर मिश्र | Updated: January 26, 2020 12:58 IST

मूलभूत समस्या यह है कि संविधान की जानकारी कौन कहे, उसकी सामान्य साक्षरता भी आम आदमी को ही नहीं, पढ़े-लिखे लोगों को भी नहीं है. एमपी और एमएलए जैसों को ही नहीं, मंत्नी पद का दायित्व संभालने वालों में भी इसकी कमी है. इसके चलते अक्सर अर्थ का अनर्थ होता रहता है और बेसिर-पैर की अनर्गल व्याख्याएं दी जाती हैं. इसका परिणाम है कि कानून को समझने और लागू करने को लेकर अक्सर भ्रम बने रहते हैं. सबसे विकट स्थिति तो यह है कि नागरिक होने का अर्थ भी सभी को स्पष्ट रूप से पता नहीं रहता है.

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ठळक मुद्देगौरतलब है कि नागरिक होने के नाते सभी भारतीय कुछ मूल अधिकारों को पाने और कुछ कर्तव्यों का पालन करने के अनिवार्य दायित्व से  स्वाभाविक रूप से जुड़ जाते हैं. सामान्य जीवन व्यवस्थित रूप से चल सके, इसे सुनिश्चित करने के लिए नागरिकता को व्यवहार में लाना जरूरी है.

भारत का संविधान एक अद्भुत राष्ट्रीय दस्तावेज है जो अपनी विशालता और आंतरिक  संगठनात्मक परिपक्वता की दृष्टि से अन्य देशों के संविधानों की अपेक्षा अधिक व्यवस्थित माना जाता है. इसकी परिधि और प्रसार-क्षेत्न अत्यंत व्यापक है. इसे देश ने 26 जनवरी 1950 को सर्वसम्मति से लागू किया था. यह संविधान सरकार को संचालित करने और देशवासियों को नागरिक की हैसियत से आचरण करने के लिए मुख्य नियामक के रूप में तभी से स्वीकृत और लागू है. इसके साथ चलते हुए देश ने अब तक सात दशकों की लंबी यात्ना पूरी की है.

उल्लेखनीय है कि देश की परिस्थितियों के अनुकूल व्यवस्था बनाने के लिए संविधान में पिछले सात दशकों में अब तक एक सौ तीन संशोधन किए जा चुके हैं. यह तथ्य इसकी सुनम्यता को बताता है.  चूंकि देश की स्थितियां गतिशील होती हैं और उनमें बदलाव भी आते हैं, अत: परिस्थितियों के साथ तारतम्य बैठाने के लिए नियम कानून में भी बदलाव जरूरी हो जाता है. इसका ताजा उदाहरण उपबंध 370 है जो अस्थायी होते हुए भी कश्मीर की व्यवस्था के लिए अभी तक निर्णायक नियामक बना रहा और आर्थिक, राजनीतिक व देश की संप्रभुता की दृष्टि से इसके परिणाम प्रश्नांकित रहे परंतु राजनीतिक इच्छाशक्ति और स्वीकृत समीकरणों के मद्देनजर इस पर ध्यान नहीं दिया गया. राज्य और केंद्र के रिश्ते और समवर्ती सूची के विषयों को लेकर भी समस्याएं उठती रही हैं. शिक्षा की नीति और व्यवस्था को लागू करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों के अधिकार की अस्पष्टता के चलते बहुत से आवश्यक सुधार धूल खाते रहते हैं और उसका खामियाजा पूरा समाज भुगतता है.

इन बातों को देखते हुए आम आदमी के मन में भारतीय संविधान की समीक्षा की जिज्ञासा उठती है ताकि इसे वर्तमान और भविष्य की जरूरतों के अनुरूप ढाला जा सके. ज्ञातव्य है कि इस तरह की चर्चा पहले भी होती रही है, पहल भी हुई थी पर राजनीतिक दलों की सुविधा-असुविधा को देखते हुए इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता रहा है. सभी राजनीतिक दलों को शांतिपूर्वक विचार-विमर्श करना चाहिए कि संविधान के वर्तमान स्वरूप में किस तरह की व्यवस्था अपेक्षित है. ऐसा न करने पर बहुत से राष्ट्रीय मसलों पर अनिर्णय की स्थिति ही बनी रहेगी और हम यथास्थिति बनाए रखने को बाध्य रहेंगे.

पर इससे भी मूलभूत समस्या यह है कि संविधान की जानकारी कौन कहे, उसकी सामान्य साक्षरता भी आम आदमी को ही नहीं, पढ़े-लिखे लोगों को भी नहीं है. एमपी और एमएलए जैसों को ही नहीं, मंत्नी पद का दायित्व संभालने वालों में भी इसकी कमी है. इसके चलते अक्सर अर्थ का अनर्थ होता रहता है और बेसिर-पैर की अनर्गल व्याख्याएं दी जाती हैं. इसका परिणाम है कि कानून को समझने और लागू करने को लेकर अक्सर भ्रम बने रहते हैं. सबसे विकट स्थिति तो यह है कि नागरिक होने का अर्थ भी सभी को स्पष्ट रूप से पता नहीं रहता है. लोगों में नागरिकता की चेतना या बोध प्राय: तभी जगता है जब उन्हें उस पर आघात या किसी किस्म का खतरा महसूस होता है.

गौरतलब है कि नागरिक होने के नाते सभी भारतीय कुछ मूल अधिकारों को पाने और कुछ कर्तव्यों का पालन करने के अनिवार्य दायित्व से  स्वाभाविक रूप से जुड़ जाते हैं. अधिकार और कर्तव्य के प्रावधान एक-दूसरे के साथ गहनता से जुड़े हुए हैं, पर हम इसे भूल जाते हैं और ध्यान नहीं देते हैं. सामान्य जीवन व्यवस्थित रूप से चल सके, इसे सुनिश्चित करने के लिए नागरिकता को व्यवहार में लाना जरूरी है. आज समाज में व्याप्त भ्रष्ट आचार और झूठे प्रचार, अनैतिक व्यवहार के मूल में एक बड़ा कारण नागरिकता को लेकर अस्पष्टता और स्वच्छंदता  है. अत: गणतंत्न की सुरक्षा और समुचित संचालन के लिए नागरिकता-व्यवहार की व्यावहारिक जानकारी और उसकी साक्षरता की व्यापक मुहिम जरूरी है.

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