गिरीश्वर मिश्र का ब्लॉग: देश की भाषा में ही शिक्षा दिए जाने की दरकार
By गिरीश्वर मिश्र | Published: November 8, 2019 06:40 AM2019-11-08T06:40:20+5:302019-11-08T06:40:20+5:30
हिंदी साहित्य सम्मेलन इंदौर के मार्च 1918 के अधिवेशन में बोलते हुए गांधीजी ने दो टूक शब्दों में आह्वान किया था : ‘पहली माता (अंग्रेजी) से हमें जो दूध मिल रहा है, उसमें जहर और पानी मिला हुआ है, और दूसरी माता (मातृभाषा ) से शुद्ध दूध मिल सकता है. बिना इस शुद्ध दूध के मिले हमारी उन्नति होना असंभव है. पर जो अंधा है, वह देख नहीं सकता. गुलाम यह नहीं जानता कि अपनी बेड़ियां किस तरह तोड़े. हम अंग्रेजी के मोह में फंसे हैं. आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें. हिंदी सब समझते हैं. इसे राष्ट्रभाषा बना कर हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए.’
कुछ बातें प्रकट होने पर भी हमारे ध्यान में नहीं आतीं और हम उनकी उपेक्षा करते जाते हैं तथा एक समय आता है जब मन मसोस कर रह जाते हैं कि काश! पहले सोचा होता. भाषा के साथ ऐसा ही कुछ होता है. उसके अभाव की कल्पना बड़ी डरावनी है. भाषा की मृत्यु के साथ एक समुदाय की पूरी की पूरी विरासत ही लुप्त होने लगती है. कहना न होगा कि जीवन को समृद्ध करने वाली हमारी सभी महत्वपूर्ण उपलब्धियां जैसे-कला, पर्व, रीति-रिवाज आदि सभी जिनसे किसी समाज की पहचान बनती है उन सबका मूल आधार भाषा ही होती है.
हिंदी के बहुत से रूप हैं जो उसके साहित्य में परिलक्षित होते हैं, पर उसकी जनसत्ता कितनी सुदृढ़ है यह इस बात पर निर्भर करता है कि जीवन के विविध पक्षों में उसका उपयोग कहां, कितना, किस मात्ना में और किन परिणामों के साथ किया जा रहा है. लेकिन वास्तविकता यही है कि जिस हिंदी भाषा को आज पचास करोड़ लोग मातृभाषा के रूप में उपयोग करते हैं उसका व्यावहारिक जीवन के तमाम क्षेत्नों में उपयोग असंतोषजनक है.
आजादी पाने के बाद वह सब न हो सका जो होना चाहिए था. लगभग सात दशकों से हिंदी भाषा को इंतजार है कि उसे व्यावहारिक स्तर पर पूर्ण राजभाषा का दर्जा दे दिया जाए और देश में स्वदेशी भाषा जीवन के विभिन्न क्षेत्नों में संचार और संवाद का माध्यम बने. संविधान में हिंदी के लिए दृढ़संकल्प के उल्लेख के बावजूद और हिंदी सेवी तमाम सरकारी संस्थानों व उपक्रमों के बावजूद हिंदी को लेकर हम ज्यादा आगे नहीं बढ़ सके हैं.
हिंदी साहित्य सम्मेलन इंदौर के मार्च 1918 के अधिवेशन में बोलते हुए गांधीजी ने दो टूक शब्दों में आह्वान किया था : ‘पहली माता (अंग्रेजी) से हमें जो दूध मिल रहा है, उसमें जहर और पानी मिला हुआ है, और दूसरी माता (मातृभाषा ) से शुद्ध दूध मिल सकता है. बिना इस शुद्ध दूध के मिले हमारी उन्नति होना असंभव है. पर जो अंधा है, वह देख नहीं सकता. गुलाम यह नहीं जानता कि अपनी बेड़ियां किस तरह तोड़े. हम अंग्रेजी के मोह में फंसे हैं. आप हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनने का गौरव प्रदान करें. हिंदी सब समझते हैं. इसे राष्ट्रभाषा बना कर हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए.’
स्वतंत्नता मिलने के बाद भी हम अंग्रेजी को ही तरजीह देते रहे. ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार करते रहे जिसका शेष देशवासियों से संपर्क ही घटता गया. गांधीजी के शब्दों में ‘भाषा माता के समान है. लेकिन माता पर हमारा जो प्रेम होना चाहिए वह हममें नहीं है. इस वर्ष महात्मा गांधी का विशेष स्मरण किया जा रहा है. उनके भाषाई सपने पर भी सरकार और समाज सबको विचार करना चाहिए. अब जब नई शिक्षानीति को अंजाम दिया जा रहा है यह आवश्यक होगा कि देश को उसकी भाषा में शिक्षा दी जाए.