सिख धर्म का इतिहास शहादतों से भरा पड़ा है. उनके गुरुओं ने उन्हें सिखाया कि धर्म, मानवता, देश के लिए कभी भी जुल्म, अन्याय, अत्याचार को सहन नहीं करना है चाहे इसके लिए अपनी कुर्बानी ही क्यों न देनी पड़े. पांचवें गुरु श्री गुरु अर्जन देव जी से शहादत का सिलसिला आरंभ हुआ. फिर गुरु तेग बहादुर जी तथा उनके चार पौत्र - गुरु गोविंद सिंह जी के चार साहिबजादे, उनकी दादी माता गुजरी जी और फिर गुरु गोविंद सिंह जी शहीद हुए.
गुरुजी के 6 और 8 वर्षीय बालक देश, मानवता और धर्म की रक्षा के लिए शहीद हो गए. 14 और 17 वर्षीय किशोर मुगल साम्राज्य के अत्याचारों के विरुद्ध लड़ते-लड़ते शहीद हुए. यह सारा परिवार था दशम गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह जी का, जिन्हें सरबंस दानी कहा जाता है.
गुरुजी के चार पुत्र साहिबजादा अजीत सिंह, जुझार सिंह, जोरावर सिंह और फतेह सिंह थे. चारों के लिए आनंदपुर साहिब में ही शिक्षा का प्रबंध किया गया था. अध्ययन के साथ-साथ उन्हें युद्ध कला में भी पारंगत किया गया. घुड़सवारी, तीरंदाजी, तलवारबाजी का अभ्यास कराया गया. गुरुजी ने स्वयं इन कलाओं में पारंगत किया.
दिसंबर 1704 में आनंदपुर साहिब में गुरुजी के शूरवीर तथा मुगल सेना के बीच घमासान युद्ध जारी था. तब औरंगजेब ने गुरुजी को पत्र लिखा कि यदि वे आनंदपुर का किला खाली कर दें तो उन्हें बिना किसी रोक-टोक के जाने दिया जाएगा. गुरुजी के किले से निकलते ही उन पर मुगल सेना ने धोखे से हमला कर दिया. सरसा नदी के किनारे भयानक युद्ध हुआ. यहां उनका परिवार बिछड़ गया.
उनके साथ दोनों बड़े साहिबजादे थे. छोटे दोनों साहिबजादे दादी माता गुजरी जी के साथ चले गए. बड़े साहिबजादे युद्ध लड़ते हुए पिता के साथ नदी पार करके चमकौर की गढ़ी में जा पहुंचे.
21 दिसंबर 1704 को यहां भयानक युद्ध हुआ जिसे चमकौर का युद्ध कहा जाता है. गुरुजी के साथ मात्र चालीस सिख सैनिक थे और मुगलों की विशाल सेना लाखों में थी. साहिबजादा अजीत सिंह जो 17 वर्ष के थे और जुझार सिंह 14 वर्ष के थे, पिता से आज्ञा लेकर युद्ध के मैदान में उतरे. दोनों ने अपनी तलवार, युद्ध कौशल के जौहर दिखाए. अंत में दोनों शहीद हो गए.
इधर माता गुजरी जी आठ और छह वर्षीय पोते जोरावर सिंह तथा फतेह सिंह को लेकर गंगू रसोइए के साथ निकल गईं. वह उन्हें अपने गांव ले गया. माता जी के पास कीमती सामान देखकर उसे लालच आ गया. उसने मोरिंडा के कोतवाल को खबर करके माताजी व साहिबजादों को गिरफ्तार करवा दिया ताकि उसे कुछ इनाम मिले. माताजी तथा साहिबजादों को सरहंद के बस्सी थाना ले जाया गया. रात भर उन्हें ठंडे बुर्ज में रखा गया जहां बला की ठंड थी.
अगले दिन साहिबजादा जोरावर सिंह, फतेह सिंह को सरहिंद के सूबेदार वजीर खान की कचहरी में लाया गया. पहले तो उन्हें लालच दिए गए, फिर डराया धमकाया गया. धर्म परिवर्तन करने के लिए कहा गया लेकिन उन्होंने स्पष्ट इंकार कर दिया. अंत में दरबार में मौजूद काजी ने फतवा जारी किया कि इन्हें जिंदा ही नींव में चिनवा दिया जाए. 27 दिसंबर 1704 को दोनों साहिबजादों को दीवार में जिंदा चिनवा दिया गया.
साहिबजादों को जिस स्थान पर दीवार में चिनवाया गया था वहां पर गुरुद्वारा फतेहगढ़ साहिब सुशोभित है.