Election Commission of India 2025: स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव से ही बचेगा लोकतंत्र?, चुनावी बॉन्ड योजना...

By कपिल सिब्बल | Updated: February 26, 2025 05:43 IST2025-02-26T05:43:13+5:302025-02-26T05:43:13+5:30

Election Commission of India 2025: राजनीतिक दल, खास तौर पर वे दल जिनके पास भरपूर धन है, अपने धनबल का इस्तेमाल करते हैं ताकि चुनावी प्रक्रिया असमान हो जाए.

Election Commission of India 2025 Democracy survive only through free fair elections blog Kapil Sibal electoral bond scheme | Election Commission of India 2025: स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव से ही बचेगा लोकतंत्र?, चुनावी बॉन्ड योजना...

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Highlightsलोग दुनिया को बताते हैं कि हमारा लोकतंत्र सिर्फ इसलिए फल-फूल रहा है.चुनावी जीत को धनबल के जरिये कैसे प्रभावित किया जाता है. राजनीतिक दलों को उचित या अनुचित तरीकों से धन मुहैया कराता है.

Election Commission of India 2025: हमारी चुनावी प्रक्रियाएं अव्यवस्थित हैं. मैं ईवीएम की कार्यप्रणाली की बात नहीं कर रहा हूं. मैं इस बारे में बात कर रहा हूं कि चुनाव आयोग की दिखावटी निष्पक्षता के तहत कैसे चुनाव कराए जा रहे हैं. चुनाव से जुड़े कानूनों में सबसे बड़ी खामी यह है कि हालांकि उम्मीदवारों पर चुनाव खर्च की अधिकतम सीमा लागू होती है, लेकिन राजनीतिक दलों के खर्च पर ऐसी कोई सीमा लागू नहीं होती. इसका नतीजा यह होता है कि उम्मीदवारों द्वारा निर्धारित अधिकतम सीमा से ज्यादा पैसे खर्च करने के अलावा, जिसे वे जाहिर है कि चुनाव आयोग को नहीं बताते, राजनीतिक दल, खास तौर पर वे दल जिनके पास भरपूर धन है, अपने धनबल का इस्तेमाल करते हैं ताकि चुनावी प्रक्रिया असमान हो जाए.

हममें से जो लोग दुनिया को बताते हैं कि हमारा लोकतंत्र सिर्फ इसलिए फल-फूल रहा है क्योंकि चुनाव हो चुके हैं, वे वाकई जानते हैं कि चुनावी जीत को धनबल के जरिये कैसे प्रभावित किया जाता है. यह कहना गलत नहीं होगा कि उद्योग जगत, जो सरकार से लाभ चाहता है, वह सत्ता में बैठे राजनीतिक दलों को उचित या अनुचित तरीकों से धन मुहैया कराता है.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा निरस्त की गई चुनावी बॉन्ड योजना ने केंद्र में सत्ता में बैठे एक राजनीतिक दल को उद्योगपतियों से भारी मात्रा में मिले दान के आधार पर समृद्ध किया था, जो शायद सरकार द्वारा किए गए उपकारों से होने वाले लाभ के बदले में था. यह साबित करने के लिए पर्याप्त तथ्य हैं कि वास्तव में ऐसा ही है.

चुनावी बॉन्ड योजना ने बैंकिंग चैनलों के माध्यम से राजनीतिक दलों को धन मुहैया कराने की अनुमति दी. फिर भी किसी भी चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा किया जाने वाला खर्च बेहिसाब है. इससे निपटने के लिए कानून में कोई व्यवस्था नहीं है. नतीजतन, अधिकतम फंडिंग तक पहुंच रखने वाले राजनीतिक दल को चुनावी प्रक्रिया और उसके नतीजों में अनुचित लाभ मिलता है.

लेकिन यह तो सिर्फ हिमखंड का दिखाई देने वाला हिस्सा है. यथार्थ में, चुनावी प्रक्रिया में  किया जाने वाला हेरफेर भयावह है. आरोप हैं कि सत्ताधारी राजनीतिक दल के खिलाफ माने जाने वाले मतदाताओं के वर्ग को अप्रिय लेन-देन के जरिये लुभाया जाता है, ताकि या तो वे मतदान करने ही न जाएं या फिर उन्हें ऐसे प्रलोभन दिए जाएं जिनका विरोध करना मुश्किल हो.

चुनाव प्रक्रिया में इस अस्वीकार्य हस्तक्षेप को रोकने के लिए कोई तंत्र उपलब्ध नहीं है. हम जानते हैं कि चुनाव के छह महीने के भीतर हजारों मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में जोड़े जाते हैं. ये संख्याएं कभी-कभी पिछले पांच वर्षों में मतदाता सूची में जोड़े गए नामों से भी ज्यादा होती हैं. यह इन नामों की सत्यता पर गंभीर संदेह पैदा करता है और एक गंभीर जांच की मांग करता है.

जिसे चुनाव आयोग तथ्यों से अवगत होने के बावजूद करने से कतराता है. मतदाता सूची से नामों का बड़े पैमाने पर विलोपन होता है, विशेष रूप से एक विशेष धार्मिक समुदाय के सदस्यों के संबंध में, जो चुनावी नतीजों को प्रभावित करता है. फिर से, इस तरह के बड़े पैमाने पर विलोपन को रोकने के लिए कानून में कोई प्रभावी तंत्र उपलब्ध नहीं है.

एक और गंभीर मुद्दा स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा का मजाक उड़ाता है, जिसे सुनिश्चित करना चुनाव आयोग का कर्तव्य है. पुलिस प्रशासन का इस्तेमाल अक्सर कुछ खास निर्वाचन क्षेत्रों में या तो लोगों को रातों-रात उठाने या यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि कुछ मतदाता या मतदाताओं का वर्ग अपने मताधिकार का प्रयोग न करें.

इससे उन निर्वाचन क्षेत्रों में डाले गए वोटों के प्रतिशत में गिरावट आती है. हमने कुछ समय पहले रामपुर में ऐसा होते देखा था, और हमने हाल ही में हुए लगभग हर चुनाव में ऐसा होते देखा है. जब पुलिस तंत्र, जिसे समान अवसर सुनिश्चित करना चाहिए, खुद ही असमान अवसर पैदा करता है और सत्ता में बैठे लोगों को नगदी और वस्तु दोनों के रूप में प्रलोभन देने की अनुमति देता है.

तो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव का औचित्य एक मजाक बन जाता है. मुझे बताया गया है कि उत्तर प्रदेश के मिल्कीपुर के उपचुनाव में, फर्जी मतदान, धांधली और धमकी के आरोप लगाने वाली 500 शिकायतों पर चुनाव आयोग से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. यह हाल के दिनों में चुनाव आयोग की घोर पक्षपातपूर्ण कार्यप्रणाली से अलग है.

कुछ राज्यों में चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं, जबकि अन्य में बिना किसी तर्कसंगत कारण के एक साथ होते हैं. आम धारणा यह है कि ऐसे फैसले सत्ता में बैठी राजनीतिक पार्टी की मदद करते हैं. चुनाव आयोग का भेदभावपूर्ण रवैया हाल के दिनों में और भी स्पष्ट हो गया, जब सत्ताधारी पार्टी के सदस्यों को आदर्श आचार संहिता का घोर उल्लंघन करते हुए बयान देने की अनुमति दी गई और आयोग मूकदर्शक बना रहा. जब संस्थाएं खुद पक्षपातपूर्ण हो जाती हैं, तो चुनावी नतीजे लोगों की इच्छा से बहुत दूर हो जाते हैं.

दूसरा पहलू यह है कि चुनावी विवादों को सुलझाने में सालों लग जाते हैं क्योंकि अदालती प्रक्रियाएं धीमी हैं. हम सभी जानते हैं कि ज्यादातर चुनाव याचिकाएं सालों तक लटकी रहती हैं और कुछ निष्फल हो जाती हैं या विधानसभा के कार्यकाल के काफी बाद में उन पर फैसला होता है. अब समय आ गया है कि पूरी चुनावी प्रक्रिया में ढांचागत बदलाव किया जाए.

हमारे हालिया अनुभवों के मद्देनजर चुनाव आयोग में सिविल सेवकों को नहीं रखा जाना चाहिए. चयन की प्रक्रिया में सुधार किया जाना चाहिए. चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की पद्धति सत्तारूढ़ दल के हाथ में नहीं होनी चाहिए बल्कि एक संस्थागत ढांचे के माध्यम से होनी चाहिए जो यह सुनिश्चित करेगा कि संविधान की मूल संरचना के रूप में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव के हमारे पूर्वजों के पोषित सपने को साकार किया जाए.  

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