डॉ. एस. एस. मंठा का ब्लॉग: अध्यादेशों का शासन कितना उचित?

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: March 18, 2019 09:19 IST2019-03-18T09:19:33+5:302019-03-18T09:19:33+5:30

असाधारण परिस्थितियां सामने आने पर अध्यादेश जारी करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार मिला हुआ है। संसद के दोनों सदनों का सत्र जब नहीं चल रहा हो, तब जारी किए गए गए अध्यादेश को कानूनी दर्जा प्राप्त होता है, लेकिन  वे छह माह के लिए ही प्रभावी होते हैं।

Dr. S. s. Mantha's Blog: How fair is the rule of Ordinances? | डॉ. एस. एस. मंठा का ब्लॉग: अध्यादेशों का शासन कितना उचित?

डॉ. एस. एस. मंठा का ब्लॉग: अध्यादेशों का शासन कितना उचित?

संसद में कई बार विधेयकों को पारित कराने में असफल रहने के बाद विभिन्न केंद्र सरकारें कानून निर्माण के लिए अध्यादेश के मार्ग का सहारा लेती रही हैं। वर्ष 2003 से लेकर अब तक सौ से अधिक अध्यादेश जारी किए जा चुके हैं। इनमें से कुछ तो इतने सामान्य लगते हैं कि आश्चर्य होता है कि इनके लिए अध्यादेश का मार्ग अपनाने की जरूरत क्यों पड़ी।

असाधारण परिस्थितियां सामने आने पर अध्यादेश जारी करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 123 के अनुसार मिला हुआ है। संसद के दोनों सदनों का सत्र जब नहीं चल रहा हो, तब जारी किए गए गए अध्यादेश को कानूनी दर्जा प्राप्त होता है, लेकिन  वे छह माह के लिए ही प्रभावी होते हैं। वे असाधारण परिस्थितियों में ही जारी किए जाने चाहिए। देखने में आया है कि अध्यादेश कभी-कभी न्यायालयों द्वारा तय मामलों में भी आदेशों को दरकिनार करने के लिए जारी किए जाते हैं। इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अप्रैल 2017 में दिए गए एक निर्णय से उपजे परिणामों को टालने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने उसके बाद एक अध्यादेश को मंजूरी दी। क्या ऐसा करना उचित है?

कृष्णकुमार सिंह बनाम बिहार राज्य सरकार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने वर्ष 2017 में निर्णय देते हुए कहा था कि अध्यादेशों को दुबारा जारी करना संविधान के साथ धोखा है। न्यायालय ने यह भी कहा कि ऐसे अध्यादेश न्यायिक समीक्षा से मुक्त नहीं रह सकते। अदालत द्वारा इस तरह स्थिति स्पष्ट किए जाने के बाद, बिना किसी असाधारण परिस्थिति के अध्यादेश जारी करने अथवा कोई अध्यादेश दुबारा जारी करने को क्या न्यायालय के अधिकारों की अवमानना नहीं समझा जाना चाहिए? इतिहास गवाह है कि अध्यादेश या तो अदालतों के निर्णयों को निष्प्रभावी करने अथवा लोगों के हित या प्रशासन के सामने आने वाली बाधाओं को दूर करने के लिए लाए जाते रहे हैं। लेकिन अवास्तविक कानून को निरस्त करने के लिए भी क्या कभी कोई अध्यादेश लाया गया है? शुरुआत के लिए क्या ऐसे कुछ अध्यादेश जारी किए जा सकते हैं?

ऐसा ही एक कानून है 1885 में अंग्रेजों द्वारा बनाया गया इंडियन टेलीग्राफ एक्ट, जिसका अब कोई उपयोग नहीं है क्योंकि टेलीविजन और इंटरनेट के आगमन के बाद सूचनाओं के आदान-प्रदान में आमूल बदलाव आया है। यह कानून सरकार को विद्रोह को रोकने के लिए लोगों के फोन टेप करने का अधिकार देता है। लेकिन अब विद्रोह के लिए  टेलीफोन का नहीं बल्कि इंटरनेट का उपयोग किया जाता है। इसी तरह के और भी कई निर्थक हो चुके कानून हैं जिन्हें समाप्त करने के लिए अध्यादेश का मार्ग अपनाया जा सकता है।

Web Title: Dr. S. s. Mantha's Blog: How fair is the rule of Ordinances?

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