संपादकीय: सेना को न बनाएं राजनीति का हथियार 

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Published: December 10, 2018 05:39 PM2018-12-10T17:39:24+5:302018-12-10T17:39:24+5:30

यूं देखा जाए तो सेना का काम स्वतंत्र दायरे में होता है. उसका नागरिक व्यवस्था से कोई संबंध नहीं होता है. सेना की कार्रवाई उसके विवेकाधीन, गोपनीयता और आवश्यकता आधारित होती है, जिसकी जवाबदेही भी सुनिश्चित है.

Do not use indian army as a weapon of politics | संपादकीय: सेना को न बनाएं राजनीति का हथियार 

संपादकीय: सेना को न बनाएं राजनीति का हथियार 

इन दिनों देश में सत्ता पक्ष हो या फिर विपक्ष, सैन्य मामलों के सहारे अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने पर आमादा हैं. इसलिए सेना के कामकाज और उसकी कार्रवाई की समीक्षा आए दिन की बयानबाजी का हिस्सा बन गए हैं. इसमें नेताओं के साथ सेना के कुछ आला अफसर भी शामिल हो चले हैं. 

यही वजह है कि संवेदनशील सैन्य मामले भी चौक-चौराहों की चर्चा के विषय बन गए हैं. सेना के नजरिये से यह स्थिति दु:खद है और चिंताजनक भी है. इसके लिए दोषी को तलाशना मुश्किल है, क्योंकि हर कोई अपने-अपने ढंग से मैदान में कूद रहा है. इसकी शुरुआत को जानना भी आसान नहीं है, मगर यह तय है कि मीडिया से सोशल मीडिया तक सब जगह सेना की चर्चाएं और उन पर बनते झूठे-सच्चे किस्से सरेआम हैं. 

यूं देखा जाए तो सेना का काम स्वतंत्र दायरे में होता है. उसका नागरिक व्यवस्था से कोई संबंध नहीं होता है. सेना की कार्रवाई उसके विवेकाधीन, गोपनीयता और आवश्यकता आधारित होती है, जिसकी जवाबदेही भी सुनिश्चित है. हाल के दिनों में नौबत तो यहां तक आ गई है कि नेता सेना को अपना राजनीतिक हथियार बनाने से भी बाज नहीं आ रहे हैं. 

कुछ हद तक इसकी वजह सेना के साथ आम आदमी की सहानुभूति और सम्मान है. इसलिए सेना के मुद्दे उठाने से लोगों की भावनाओं से सीधे जुड़ा जा सकता है. मगर इस अनुचित कार्य पर अंकुश लगाए जाने की जरूरत है. इससे दुश्मनों के हौसले बुलंद होते हैं. इसके अलावा भारतीय प्रशासनिक सेवा और सेना के अधिकारियों के राजनीति से जुड़ने से वे कहीं न कहीं अपने अनुभव का राजनीतिक प्रयोग करते हैं जिससे गोपनीयता और गरिमा को ठेस पहुंचती है. 

हालांकि राजनीतिक दलों के लिए किसी का नाम भुनाना आसान काम होता है, किंतु व्यापक स्तर पर उसका नुकसान ही होता है, क्योंकि ऐसे व्यक्ति अपनी गैर राजनीतिक छवि से बाहर नहीं आ पाते हैं. बाद में वह शक और सवालों को जन्म देते हैं. ऐसे में राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे जमीनी राजनीति में अधिक दिलचस्पी दिखाएं. 

विशेष रूप से सेना के मामलों से निपटने में संवेदनशीलता दिखाएं. खुद सेना सक्षम है. फालतू बयानबाजी से देश की छवि और सेना का मनोबल गिरता है. इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि सरकार और नेता तो बदलते रहेंगे, लेकिन सेना के खोये मनोबल और पहचान को लौटाना आसान नहीं होगा.

Web Title: Do not use indian army as a weapon of politics

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