किसानों की चिंता हुई, ठोस काम नहीं हुआ, राजेश बादल का ब्लॉग

By राजेश बादल | Updated: December 2, 2020 12:24 IST2020-12-02T12:22:56+5:302020-12-02T12:24:03+5:30

तीन कृषि-कानून जिस तरह संसद में मंजूर कराए गए, उससे ही संदेह उपजता था कि परदे के पीछे की कहानी कुछ और है.

delhi chalo haryana punjab farmer protest worried no concrete work done Rajesh Badal's blog | किसानों की चिंता हुई, ठोस काम नहीं हुआ, राजेश बादल का ब्लॉग

किसानों की वस्तुओं पर टैक्स अत्यंत कम होना चाहिए. जिला स्तर पर कृषि केंद्र खोले जाने चाहिए. (photo-ani)

Highlightsदेश में सदियों से किसान उपज का भंडारण नहीं करता. सात करोड़ के देश में जब तक किसान खुश नहीं है, भारतीयों को दो बार भोजन नहीं मिलेगा.

आंदोलन कर रहे किसानों और सरकार के बीच बातचीत अंतत: शुरू हुई. हालांकि मंगलवार की बातचीत बेनतीजा ही रही. पहले सरकार कहती रही कि किसान बुराड़ी में धरना दें.

लेकिन किसान दिल्ली आना चाहते हैं. राजधानी में धरने के अनेक लाभ भी हैं. एक तो पूरे देश को संदेश चला जाता है. मीडिया हाथोंहाथ लेता है और मसला प्रखरता से अवाम के सामने आता है. सरकार यह नहीं चाहती. जाहिर है उसके तर्को का कोई नैतिक आधार नहीं है.

अन्यथा इस पर बात नहीं उलझती कि किसान कहां आंदोलन करें. अगर हुकूमते हिंद वाकई गंभीर है तो कृषि मंत्नी किसानों के बीच जाकर उनकी पंचायत में क्यों नहीं बैठ जाते? तीन कृषि-कानून जिस तरह संसद में मंजूर कराए गए, उससे ही संदेह उपजता था कि परदे के पीछे की कहानी कुछ और है. बानगी के तौर पर सिर्फभंडारण क्षमता बढ़ाने की बात करते हैं. इसे किसानों के पक्ष में बताया जा रहा है. इस देश में सदियों से किसान उपज का भंडारण नहीं करता. उसके सामने फसलों का ऋतु चक्र  होता है.

उपज लेने के बाद वह जमीन से दूसरी पैदावार की तैयारी में जुट जाता है. इस मुल्क में भंडारण का काम व्यापारी करते रहे हैं अथवा सरकार. व्यापारी बाजार में मांग के मद्देनजर भंडारण करता है, ताकि वह अनाप-शनाप मूल्य वसूल सके. सरकार इसलिए भंडारण करती है कि मुसीबत में भूखी जनता का पेट भर सके. इसके अलावा न्यूनतम समर्थन मूल्य देकर किसान की मदद कर सके. लेकिन आज मंडी में समर्थन मूल्य के दाम भी किसान को नहीं मिल रहे हैं. भंडारण क्षमता बढ़ने से व्यापारी को दोतरफा लाभ हैं.

बाजार में कृत्रिम अभाव पैदा करके महंगा अनाज बेचकर मुनाफेकी आजादी और भरे भंडार दिखाकर किसानों से खरीद कम दाम पर करने की साजिश भी वे रच सकते हैं. इस तरह किसान पर दोतरफा मार है. उसे अगली फसल, अपने जीवन यापन और शादी-ब्याह तथा सामाजिक कार्यो के लिए तुरंत पैसा चाहिए. जब व्यापारी उसे भरे भंडार दिखाता है तो वह लागत से कम पर भी अनाज बेचने पर विवश हो जाता है. व्यापारी किसान से उपज के दिनों में एक रुपए किलो टमाटर खरीदता है.

भंडारण बढ़ने से किसान उसे एक रुपए में ही बेचता रहेगा क्योंकि व्यापारी के स्टॉक में पहले ही भरा हुआ है. यही टमाटर चालीस से साठ रुपए किलो में हम खरीदते हैं. मुनाफे की भी हद होती है. शुगर मिलें किसानों को गन्ने का भुगतान दो-तीन साल तक नहीं करतीं और किसान बिजली का एक बिल नहीं भर पाए तो कनेक्शन काट दिया जाता है. यही हमारी कृषक नीति का सार है.

इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि मौजूदा सरकार ही किसान विरोधी है. हकीकत तो यह है कि गुलामी के दिनों से आज तक हमने खेती को बहुत सतही तौर पर लिया है. हमने संसद और विधानसभाओं में बहुत बहसें कीं, लेकिन यथार्थ से उनका वास्ता नहीं रहा. हमारे राजनेता भी फिक्रमंद रहे, मगर उससे अन्नदाता का भला नहीं हुआ. सरस्वती पत्रिका के 1908 में प्रकाशित एक अंक में गोविंद बल्लभ पंत ने लेख लिखा था- कृषि सुधार. इसमें वे लिखते हैं, ‘कृषि नीतियों में व्यापक सुधार की जरूरत है.

सात करोड़ के देश में जब तक किसान खुश नहीं है, भारतीयों को दो बार भोजन नहीं मिलेगा. अमेरिका तथा अन्य देशों ने किसानों की संपन्नता के सारे उपाय अपनाए हैं. इसलिए वे खुशहाल हैं. अमेरिका में कृषि अनिवार्य शैक्षणिक पाठ्यक्रम में शामिल है. हर प्रदेश में बड़ा कृषि संस्थान है. कृषि अध्ययन नि:शुल्क है. कृषि में आए दिन नए अनुसंधान हो रहे हैं और भारत में हम सो रहे हैं. किसानों की वस्तुओं पर टैक्स अत्यंत कम होना चाहिए. जिला स्तर पर कृषि केंद्र खोले जाने चाहिए.

कृषि शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए. कृषि शिक्षा के लिए विद्यार्थियों को विदेश जाना चाहिए. कृषि पर शोधपरक किताबें लिखी जानी चाहिए.’ वे आगे लिखते हैं कि अनाज बोने और बेचने के समय किसानों के लिए विशेष परिषदें स्थापित हों. इंग्लैंड में इस प्रयोग से लाभ हुआ है. जिस जमीन से 1894 में 50 लाख पौंड उत्पादन हुआ था, परिषदों के बनने के बाद 1903 में डेढ़ करोड पौंड फसल उपजी.

ये परिषदें किसानों को कर्ज मुक्ति के तरीके बताती थीं. यानी समूची दुनिया में किसानों का कर्ज तब भी बड़ा मसला था और आज भी है. जाने-माने शायर इकबाल ने यूं ही नहीं किसानों के लिए लिखा था-‘जिस खेत से दहकां को मयस्सर नहीं रोजी, उस खेत के हर खोशा-ए-गंदुम को जला दो.’

सरस्वती के ही मई 1946 के अंक में प्रेमचंद मल्होत्ना ‘किसानों का ऋण’ शीर्षक से लेख में लिखते हैं कि भारत में किसानों को ऋण ने मकड़ी के जाले की भांति जकड़ रखा है. ऋण के बदले जमीन गिरवी रखनी पड़ती है, बेचनी पड़ती है. ऐसे में किसान सिर्फ मजदूर रह जाता है. उस देश की तरक्की नहीं हो सकती, जिसके किसान कर्ज से दबे हों. अब ऐसा भी कानून है कि ऋण नहीं चुकाने पर किसान के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकती न ही उसे गिरफ्तार किया जा सकता है. यानी ढाक के वही तीन पात. आज किसान गिरफ्तार नहीं होता, बल्कि जान देता है. स्थिति बद से बदतर ही हुई है.

बुनियादी बात यह है कि किसानों के मुद्दों को हम लोग हल्के-फुल्के ढंग से लेते हैं. जिस राष्ट्र में खेती-किसानी के संस्कारों की जड़ें हजारों साल गहरी हों, उस देश में आज की नौजवान पीढ़ी कृषि को करियर नहीं बनना चाहती. वह जमीन से सोना पैदा करने के बजाय जमीन बेचकर आराम की जिंदगी  चाहती है. जबकि अध्ययन निष्कर्ष कहते हैं कि तमाम तरह की मंदी और बेरोजगारी संकट का समाधान खेती के बीजों में ही छिपा है.

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