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ब्लॉग: भारत के साथ मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ता दिख रहा है चीन, अमेरिका के रणनीति पर चलते दिख रहे है चीनी राष्ट्रपति जिनपिंग

By रहीस सिंह | Updated: December 24, 2022 10:46 IST

आपको बता दें कि चीन की अर्थव्यवस्था में बने बुलबुले फूटने की स्थिति में हैं और विकास दर डबल डिजिट से धीरे-धीरे शून्य से कुछ पहले आकर ठिठक चुकी है।

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ठळक मुद्देचीन भारत के साथ मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ता दिख रहा है। यही नहीं वह भारत के लिए अमेरिका के रणनीति पर भी काम कर रहा है। इसके अलावा राष्ट्रपति जिनपिंग यह भी चाहते है कि चीन अधिक ताकतवर अथवा महाशक्ति भी बने।

नई दिल्ली: कोई भी तानाशाह जब स्वयं को अंदर से उठने वाले विक्षोभों का मुकाबला करने में सक्षम नहीं पाता है तो वह उन विक्षोभों को अंतरराष्ट्रीय सीमाओं की ओर धकेलने की कोशिश करता है. पिछले दिनों चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने यही किया है. 

चीन लड़ रहा है एक मनोवैज्ञानिक युद्ध

वैसे तो चीन ने पिछले सात दशकों में कभी कोई ऐसा उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया जिसे दोस्ती की मिसाल माना जा सके, हां कहीं-कहीं ‘घृणा-प्रेम’ का मिश्रण जरूर दिखा. उसने 1962 से लेकर 2022 तक अनेक बार ऐसे प्रयास किए हैं जो एक मनोवैज्ञानिक वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) पर यथास्थिति को बदलना है. 

यह अलग बात है कि अभी तक वह इन प्रयासों में सफल नहीं हो पाया लेकिन यह भी सच है कि कभी डोकलाम, दौलत बेग ओल्दी (डीबीओ) और कभी गलवान, हॉटस्प्रिंग, डेमचोक, पैंगोंग त्सो आदि क्षेत्र में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) के दखल के जरिये वह निरंतर दबाव बनाने के साथ-साथ एक मनोवैज्ञानिक युद्ध लड़ रहा है. ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि चीन की मंशा क्या है? 

चीन के हो सकते है दो मूल मकसद

क्या यह मामला सिर्फ भू-भाग का है या इसके पीछे उसकी कोई और सोच काम कर रही है? यानी क्या वह केवल वास्तविक नियंत्रण रेखा पर यथास्थिति को ही बदलना चाहता है या मंशा कुछ और है? क्या वह इसलिए ऐसा कर रहा है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से सटे क्षेत्रों तक आगे बढ़कर अपने नियंत्रण को तर्कसंगत बना सके?

चीन भारतीय सीमा पर जिस प्रकार की हरकतें करने की निरंतर कोशिश कर रहा है उसके पीछे मूल तौर पर दो ही मकसद हो सकते हैं. पहला- सुरक्षा पंक्ति को मजबूत करना और दूसरा- संसाधनों तक पहुंच को बेहतर बनाना. इन सबसे भिन्न लेकिन सैद्धांतिक दृष्टि से एक कारण और हो सकता है और वह है उसका मनोविज्ञान जो शायद नेपोलियन बोनापार्ट के कथन से प्रेरित है कि हिमालय के उस ओर एक महादानव सो रहा है, उसे सोने दीजिए. वह जाग गया तो दुनिया को हिला देगा. 

चीन की हरकतों से दुनिया पर पड़ा है मनोवैज्ञानिक असर 

शी जिनपिंग ने पिछले 10 वर्षों में कमोबेश इसी विचार को आगे बढ़ाने की कोशिश की है. इसका हथियार स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स, बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव जैसी उसकी नीतियां अथवा योजनाएं बनीं या फिर चीन की वह आर्थिक ताकत जिसके जरिये वह अपने आपको दुनिया की महान सैन्य शक्ति के रूप में पेश करना चाहता है. दुनिया के ऊपर इसका मनोवैज्ञानिक असर भी पड़ा है. 

यही वजह है कि दुनिया के देशों और चिंतकों के दिमागों को चीन आच्छादित कर गया. लेकिन भारत पर प्रभावी असर नहीं छोड़ पाया. दरअसल चीन अभी तक यह नहीं मान पा रहा है कि 1962 से अब तक छह दशक बीत चुके हैं और इन दशकों में बहुत कुछ बदल चुका है.

चीन की हरकत को भारत सरकार गंभीरता से ले रहा

फिर भी चीन की रणनीतियों पर ध्यान देने की जरूरत है. चीन जिस ‘निबल एंड निगोशिएट’ नीति (यानी एक तरफ से कुतरते रहना और दूसरी तरफ बातचीत की कूटनीति के जरिये अपने हित साधने का प्रयास करते रहना) पर आगे बढ़ने के साथ-साथ जिस मनोवैज्ञानिक युद्ध को लड़ रहा है, उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती. 

भारत सरकार इसे बेहद गंभीरता के साथ देख और आकलन ही नहीं कर रही है बल्कि रणनीति के साथ आगे भी बढ़ रही है. कभी-कभी ऐसा लगता है कि चीन अमेरिकी रणनीति से कुछ कम स्केल की तीव्रता वाली विशेषता पर काम कर रहा है. 

चीन भारत पर अमेरिका की रणनीति अपना रहा है

ध्यान रहे कि पेंटागन की रणनीति छोटे स्केल के युद्धों की रही है जिनका परिणाम अमेरिकी पक्ष में आता रहा और अमेरिका के लिए मूल्य वर्धन (वैल्यू एडीशन) वाले उत्प्रेरक (कैटालिस्ट) का काम करता रहा. लेकिन अमेरिका ने यह अपनी सीमाओं पर नहीं किया बल्कि दूरस्थ क्षेत्रों में किया जबकि चीन ऐसी रणनीति भारत, ताइवान, भूटान आदि के साथ अपनाने की कोशिश कर रहा है. 

खास बात यह है कि वह न केवल सीमावर्ती क्षेत्रों में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना चाहता है बल्कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर विशेषकर उन क्षेत्रों में अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहता है जहां-जहां भारत लाभ की स्थिति में है. यह नई बात नहीं है और भारत इसे आज समझ भी रहा है.

जिनपिंग की आगे की राह आसान नहीं

चीन इस समय एक भंवर में फंसता हुआ दिख रहा है, विशेषकर जीरो कोविड नीति के असफल होने के पश्चात. दरअसल शी जिनपिंग अन्य कम्युनिस्ट नेताओं से आगे निकलते हुए माओत्से तुंग के करीब पहुंच गए. हो सकता है कि उनकी महत्वाकांक्षा माओ से भी आगे जाने की हो. इस दृष्टि से वे सफल तो रहे लेकिन अब यही चीजें उनके लिए चुनौतियों में बदलती हुई दिख रही हैं. 

ऐसा इसलिए क्योंकि चीन अब ढलान पर है और जिनपिंग खुद को बचाए रखने के लिए जियांग जेमिन जैसे नेताओं तक से दुर्व्यवहार करने से नहीं बच पाए. इसका सीधा मतलब हुआ कि जिनपिंग की राह आसान नहीं है. ‘कोर लीडर ऑफ चाइना’ के रूप में शायद उनकी स्वीकार्यता घट रही है. 

चीन की अर्थव्यवस्था भी डगमगा रही है

वे भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान, मिलिट्री का मॉडर्नाइजेशन, इन्फ्रास्ट्रक्चर और एशिया में चीनी ताकत की प्रतिष्ठा अथवा वैश्विक कूटनीति के कारण सफलता के जिस प्रभाव का निर्माण कर ले गए उसका नतीजा ही उन्हें आजीवन राष्ट्रपति बने रहने की शक्ति दे गया. लेकिन कोविड वायरस के वुहान कनेक्शन ने चीन के साथ-साथ उसके चरित्र को भी संदिग्ध बना दिया. 

चीन की अर्थव्यवस्था में बने बुलबुले फूटने की स्थिति में हैं और विकास दर डबल डिजिट से धीरे-धीरे शून्य से कुछ पहले आकर ठिठक चुकी है. इसी का परिणाम है नागरिकों का जिनपिंग विरोधी रवैया एवं तीव्र प्रतिरोध. शायद इन चुनौतियां की तीव्रता कम करने का उपाय है तवांग में पीपल्स आर्मी का दखल.

चीन को अधिक ताकतवर अथवा महाशक्ति बनाना चाहते है जिनपिंग

फिलहाल इस समय अमेरिका एक अनिश्चित विदेश नीति के साथ आगे बढ़ रहा है जिसके चलते अमेरिकी विचारक अमेरिकी शक्ति को लेकर ‘हेडलेस सुप्रीमेसी’ जैसे शब्द प्रयुक्त करने लगे हैं. इसलिए जिनपिंग चीन को अधिक ताकतवर अथवा महाशक्ति बनाने की संभावनाएं पाल बैठे हैं. 

वे शायद रिचर्ड निक्सन के उस कथन पर आ ठिठके हैं जिसमें माओ जिडांग के लिए लिखा था कि चेयरमैन के लेखन ने ‘दुनिया को बदल दिया’. अब इस फ्रेम में वे खुद को देख रहे हैं. लेकिन चीन की जनता उन्हें यहां नहीं देख पा रही. इसलिए जिनपिंग उसे भारतीय सीमा तक ले जाने चाहते हैं, प्रत्यक्ष अथवा मनोवैज्ञानिक तरीके से. 

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