लोकसभा चुनाव के बाद की कांग्रेस अपने नए अवतार में नजर आ रही है. पार्टी का अनमनापन, अनिर्णय की आदत और अलसाया चेहरा नहीं दिखाई देता. भारत का सबसे पुराना दल अंगड़ाई ले रहा है. पार्टी कार्यकर्ता प्रसन्न हैं. इससे समाज के प्रबुद्ध मतदाताओं का बड़ा वर्ग राहत की सांस ले रहा है. लोकसभा में लगभग सौ कुर्सियों पर बैठने के अधिकार से यह बदलाव आया है.
अपने बूते पर करीब सौ संसदीय सीटें और प्रतिपक्ष के अन्य सहयोगी दलों की लगभग एक सौ चालीस सीटें सरकार की नाक में दम करने के लिए पर्याप्त हैं. हम जानते हैं कि लोकतंत्र में संख्या बल का बड़ा महत्व है. यह संख्या सरकार के किसी भी निर्णय के सामने पहाड़ जैसी चुनौती खड़ी कर सकती है.
वह दौर चला गया, जब प्रतिपक्ष में अकेले राम मनोहर लोहिया समूची सरकार को परेशानी में डाल दिया करते थे या फिरोज गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, मधु दंडवते, जॉर्ज फर्नांडीस, चंद्रशेखर, सोमनाथ चटर्जी और इंद्रजीत गुप्त जैसे राजनेताओं की सदन में उपस्थिति मात्र से सरकार या सत्ता पक्ष खौफ खाता था. लेकिन आज ऐसा नहीं होता. आज प्रत्येक पार्टी के नेता को अपने पीछे सिर्फ चेहरे नजर आते हैं.
विपक्ष की बेंचों पर बढ़ती संख्या एक तरह से भारतीय लोकतंत्र के लिए एक बूस्टर डोज की तरह है. फिलहाल हम सिर्फ कांग्रेस की बात करते हैं. चूंकि कांग्रेस 2019 का चुनाव शर्मनाक ढंग से हारी थी. देश ने इस वयोवृद्ध पार्टी को फिसलते हुए इतिहास के सबसे निचले पायदान पर देखा था. अब उससे नीचे जाने का कोई कारण पार्टी और मतदाताओं की समझ में नहीं आ रहा था.
उसके बाद पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने पराजय की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए त्यागपत्र दे दिया था. इसके बाद कांग्रेस जैसे ठिठक गई. वह एक तरह से सुसुप्तावस्था में चली गई थी.
हालांकि राहुल गांधी के कमान संभालने के बाद कांग्रेस ने तीन प्रदेशों में सरकारें बनाई थीं और अनेक उपचुनाव भी जीते थे. इस तरह से अध्यक्ष के लिए नैतिक जिम्मेदारी लेने का कोई ठोस कारण नहीं बनता था. (वैसे भी मौजूदा राजनीति में नैतिक आधार पर त्यागपत्र का सिलसिला गुजरे जमाने की बात हो गई है.) क्योंकि वर्तमान सियासत में पराजय का अर्थ जनाधार खो देना नहीं होता और फिर पार्टी यदि पहले ही विपक्ष में बैठी हो तो इस्तीफे की कोई वजह नहीं बनती. यदि सरकार चला रही पार्टी बहुमत खो दे अथवा हार जाए तो ही एक तरह से त्यागपत्र का कारण माना जा सकता है.
बहरहाल, कांग्रेस लोकसभा में विपक्ष के नेता का दर्जा भी नहीं पा सकी थी. यह बेहद कड़वी और शर्मनाक स्थिति थी. राहुल गांधी के त्यागपत्र के बाद किंकर्तव्यविमूढ़ दल लंबे समय तक ऊहापोह से नहीं उबरा. इसी बीच महाराष्ट्र तथा कुछ अन्य प्रदेशों के चुनाव भी निकल गए और पार्टी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई. इसके बाद ही कांग्रेस जैसे नींद से जागी.
पार्टी ने बाकायदा अपने संविधान के मुताबिक राष्ट्रीय अध्यक्ष का चुनाव कराया और अरसे बाद मल्लिकार्जुन खड़गे जैसा चुना हुआ अध्यक्ष कांग्रेस को मिला. इसी बीच राहुल गांधी ने अपनी भारत जोड़ो यात्रा का ऐलान कर दिया.
इसके बाद तो पांसा जैसे पलट गया. लोगों ने राहुल की यात्रा को भारी समर्थन दिया. उसके सकारात्मक परिणाम कर्नाटक और तेलंगाना में मिले. लोकसभा चुनाव आते-आते उत्तर प्रदेश ने भी समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन पसंद किया और अब हम पाते हैं कि लोकसभा में विपक्ष का नेता पद कांग्रेस की झोली में है. इस पद के कारण भाजपा सरकार के लिए कई मामलों में प्रतिपक्ष को साथ लेना आवश्यक हो जाएगा.
राहुल गांधी ने वायनाड सीट छोड़ने और प्रियंका गांधी ने चुनावी राजनीति में उतरने का निर्णय किया. स्पष्ट है कि अपने आकार के अवसाद से कांग्रेस उबर चुकी है. उत्साहित पार्टी को एक वयोवृद्ध अध्यक्ष ने सम्मानजनक स्थान पर लाकर खड़ा तो कर दिया, लेकिन अब दल के लिए चुनौतियां ही चुनौतियां हैं. एक श्रेणी तात्कालिक चुनौतियों की है तो दूसरी लंबे समय तक चलने वाली आधारभूत चुनौती है.
फौरी तौर पर उसे आने वाले विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करना है. इंडिया गठबंधन के सहयोगी दलों के साथ रिश्ते और मजबूत तथा टिकाऊ बनाने हैं. सबसे कठिन ममता बनर्जी के साथ रिश्तेदारी को मधुर बनाना है. उसे सहयोगी पार्टियों के भीतर यह भरोसा भी पैदा करना होगा कि वे कांग्रेस के छाते तले सुरक्षित हैं.
आधारभूत चुनौतियों में सबसे बड़ी और विकट है उत्तर और मध्य भारत के प्रदेशों में अपने बिखरते संगठन और कुनबे को शक्तिशाली बनाना. जिलों में पार्टी के अपने कार्यालय और मुर्दा पड़ी जिला इकाइयों में जान फूंकनी होगी. संगठन के कार्यालय ग्राम पंचायत स्तर तक खोलने होंगे और वहां धड़कती इकाइयां कायम करनी होंगी.
एक बार पंचायत स्तर तक सत्तारूढ़ दल की नाकामियां मतदाताओं के बीच पहुंचाने में कांग्रेस सफल हो गई तो फिर किसी भारत जोड़ो यात्रा की जरूरत नहीं पड़ेगी. यह तभी संभव है जब स्थानीय स्तर पर नौजवानों को सहकार भाव से पार्टी रोजगार भी दे. पार्टी में एक कार्यकर्ता कल्याण कोष बनाया जाए. इस कोष की सहायता मिली तो कार्यकर्ताओं को परिवार पालने के लिए हरदम तबादला, पोस्टिंग और ठेकों में दलाली नहीं करनी पड़ेगी.
एक जमाने में कांग्रेस सेवा दल, युवक कांग्रेस, महिला कांग्रेस, छात्र संगठन, व्यापारी प्रकोष्ठ से लेकर सक्रिय कर्मचारियों के ऐसे प्रकोष्ठ बनाए जाएं तो प्रतिपक्ष के तेवर नए अंदाज में होंगे. चुनाव से पहले ढेरों कांग्रेसियों ने भाजपा में शामिल होकर मनोवैज्ञानिक दबाव बढ़ा दिया था. शिखर नेतृत्व ने उनके पलायन को गंभीरता से नहीं लिया.
कांग्रेस जानती है कि जो लोग मलाई की आस में सत्ता पक्ष की बेंचों पर जा बैठे हैं, सरकार को मुश्किल में देखते हुए पाला बदलने में समय नहीं लगेगा. वे मायके लौटेंगे पर अब कांग्रेस को अपने दरवाजे कंजूसी से खोलने होंगे. उसे नहीं भूलना चाहिए कि इस देश में दलबदल विरोधी कानून राजीव गांधी सरकार ने ही बनाया था.