अभिलाष खांडेकर ब्लॉग बीआरटीएस: दो शहरों की एक दास्तान!

By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: December 6, 2024 06:50 IST2024-12-06T06:49:41+5:302024-12-06T06:50:04+5:30

पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसे मंजूरी दी थी और अब यादव को लगता है कि यह एक गलत निर्णय था. दोनों में से कोई एक ही सही है.

BRTS A tale of two cities | अभिलाष खांडेकर ब्लॉग बीआरटीएस: दो शहरों की एक दास्तान!

अभिलाष खांडेकर ब्लॉग बीआरटीएस: दो शहरों की एक दास्तान!

हाल ही में एक अचानक लिए निर्णय के अंतर्गत मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव, जो अन्यथा एक नेकदिल राजनेता हैं, ने राजनीतिक राजधानी भोपाल में बस रैपिड ट्रांजिट प्रणाली (बीआरटीएस) खत्म करने की घोषणा कर दी.
कुछ सप्ताह बाद उन्होंने इंदौर में भी ऐसा ही किया, जो वाणिज्यिक केंद्र है और यहां बीआरटी मार्गों तथा अन्य सड़कों पर यातायात संबंधी कई समस्याएं खड़ी हैं.

भोपाल में बीआरटीएस को लेकर किसी भी अदालत में कोई मुकदमा लंबित नहीं है, लेकिन इंदौर से जुड़े मामले न्यायालय में विचाराधीन हैं. फिर भी, मुख्यमंत्री ने एक परेशानी पैदा करने वाली सड़क यातायात व्यवस्था को खत्म करने की घोषणा की, जिसे 15 साल पहले भारी सरकारी खर्च के साथ बनाया गया था.

कई लोगों ने यादव की दोनों घोषणाओं की सराहना की, लेकिन अन्य मुद्दों को समझने की जहमत नहीं उठाई. मुख्यमंत्री ने अब वहां फ्लाईओवर बनाने की घोषणा की है. हमारे लोकतांत्रिक ढांचे में शीर्ष निर्णयकर्ता और मुख्य कार्यकारी के रूप में, मुख्यमंत्री को ऐसे निर्णय लेने का अधिकार है, लेकिन जनता के पैसे बचाने के लिए क्या विशेषज्ञों की सलाह नहीं लेनी चाहिए? पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इसे मंजूरी दी थी और अब यादव को लगता है कि यह एक गलत निर्णय था. दोनों में से कोई एक ही सही है.

मध्य प्रदेश में ‘दो शहरों की कहानी’ काफी हद तक अन्य  भारतीय शहरों से मिलती-जुलती है, जहां राजनेता लोगों की सुविधाओं के नाम पर विशेषज्ञों से सलाह लिए बिना ही फैसले ले रहे हैं और अपने पूर्ववर्ती के फैसले को अपनी मर्जी से पलट रहे हैं. कई बार वे नौकरशाहों पर बहुत अधिक निर्भर होते हैं, लेकिन विषय विशेषज्ञों पर नहीं. यह दुःखद है.

भारत के अधिकांश शहरी केंद्र दीर्घकालिक योजना के अभाव से लेकर बढ़ते अपराध, पेयजल की कमी से लेकर प्रदूषण, बढ़ती झुग्गी-झोपड़ियों, खराब सड़कों से लेकर बढ़ती जीवन-यापन लागत जैसी गंभीर समस्याओं से ग्रस्त हैं. जब वर्षों पहले मध्य भारत के दो सबसे महत्वपूर्ण शहरों में दो बीआरटी प्रणालियां शुरू की गई थीं, तो ये महंगी परियोजनाएं नौकरशाहों के कहने पर क्रियान्वित की गई थीं, न कि शहरी योजनाकारों या परिवहन विशेषज्ञों द्वारा, और जब उन्हें खारिज किया गया, तो वह एक राजनीतिक निर्णय था.

इसी तरह की स्थिति उन अन्य मेगा-इंफ्रा परियोजनाओं के साथ भी है, जिन्हें जनता के नाम पर शुरू किया गया और क्रियान्वित किया गया, जिनसे सरकार ने कभी सलाह-मशविरा ही नहीं किया. देश के 100 शहरों में स्मार्ट सिटी परियोजना इसी कारण से शहरी भारत में सबसे बड़ी विफलताओं में से एक है. भारत भर में मेट्रो रेल परियोजनाएं शहरी यात्रियों और करदाताओं की समस्याओं को हल करने में विफलता का शायद दूसरा ज्वलंत उदाहरण हैं.

कई ‘टीयर थ्री’ शहरों को उनके आर्थिक उपयोग के समुचित अध्ययन के बिना ही खोद दिया गया है और मेट्रो जैसी पूंजी गहन परियोजनाओं को उन लोगों पर थोप दिया गया है, जिन्होंने शायद कभी इसके लिए कभी कहा ही नहीं था. अजीब बात है कि सार्वजनिक परिवहन प्रणाली कभी भी सड़क पर भीड़भाड़ को कम नहीं कर पाई, जिसके लिए इसकी कल्पना की गई थी.

आप मुंबई या नागपुर, गुवाहाटी या वडोदरा को ही ले लीजिए, कोई न कोई गंभीर समस्या इन शहरों को प्रभावित कर रही है और सरकार नागरिकों को राहत देने के लिए वास्तविक शहरी समस्याओं का समाधान करने में असमर्थ दिखती है.

मुंबई में धारावी ने झुग्गी बस्तियों के विकास या पुनर्विकास पर फिर से ध्यान केंद्रित किया है. झुग्गियां पूरे भारत में हैं और हमारे राजनेता और नीति निर्माता गरीब मतदाताओं की इस समस्या का कोई समाधान नहीं दे पाए हैं. वास्तव में, कई शहरों में झुग्गियां राजनेताओं के (अदृश्य) समर्थन के कारण ही बनीं, जिन्होंने झुग्गियों को अपने ‘वोट बैंक’ के रूप में देखा.

शहरी समस्याएं समाज के सामने आने वाली प्रमुख समस्याओं में से एक हैं. भारत में तेजी से शहरीकरण हो रहा है, लेकिन इन समस्याओं को दूर करने के बारे में कोई गंभीर विचार नहीं किया जा रहा है. बुनियादी ढांचे के लिए वित्त पोषण की कमी, ग्रामीण-शहरी प्रवास (गांवों की उपेक्षा जैसे कारकों का परिणाम), घटता हुआ हरित क्षेत्र और पानी की कमी जैसे कारक पहले से ही हमारे विस्तारित शहरों पर दबाव डाल रहे हैं.

भोपाल जैसे शहर में विकास का मास्टर प्लान 25 साल से गायब है और इस बीच बीआरटीएस और फिर मेट्रो आ गई. लेकिन कोई जवाबदेही तय नहीं की गई.

लोगों को डर है कि भोपाल, इंदौर (और दिल्ली) के बीआरटीएस की तरह किसी दिन कोई मुख्यमंत्री अचानक यह घोषणा कर देगा कि मेट्रो परियोजना की योजना ठीक से नहीं बनाई गई और इसका पूरा उपयोग नहीं हो पाया, इसलिए इसे खत्म किया जाए.

ऐसा लगता है कि यह किसकी कीमत पर बनाया गया और किस कीमत पर ऐसी महंगी परियोजनाओं को रद्द किया जाता है, यह किसी को चुभता नहीं है. करदाताओं के पैसे को बिना सोचे-समझे खर्च किया जाता है और कोई सवाल नहीं पूछा जाता.

इंदौर और भोपाल तो केवल हिमखंड के नजर आने वाले छोटे से हिस्से हैं, वास्तव में दोषपूर्ण शहरी नियोजन की समस्या गहरी जड़ें जमाए बैठी है. इसका समाधान करदाताओं से बात करने और वास्तविक विशेषज्ञों से दीर्घकालिक समाधान तलाशने में ही निहित है.

शहरों में झुग्गी-झोपड़ियां नहीं बननी चाहिए, बल्कि जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए बड़े-बड़े उद्यानों की योजना बनानी चाहिए. अगर मेट्रो रेल शहर के बड़े हिस्से के लिए व्यवहार्य नहीं है, तो उसे कभी भी मंजूरी नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि इसमें बहुत ज्यादा निवेश करना पड़ता है और लोगों की जेब पर बोझ पड़ता है. ऐसी परियोजनाओं के लिए मतदाताओं को लुभाना एक भद्दा मजाक है!

 

Web Title: BRTS A tale of two cities

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