ब्लॉग: इस समस्या का हल समाज ही ढूंढे
By लोकमत समाचार हिंदी ब्यूरो | Published: July 9, 2018 05:22 PM2018-07-09T17:22:52+5:302018-07-09T17:22:52+5:30
समाज का एक वर्ग मानसिक रूप से बीमार है, दूसरा कि इनमें की किसी भी घटना को ‘न होने देने में’ राज्य, उसके अभिकरणों या कानून की कोई भूमिका नहीं है।
एनके सिंह
मात्र दो दिनों के अंतराल में हुई चार घटनाओं पर गौर करें. देश की राजधानी दिल्ली में एक ही परिवार के 11 सदस्य एक साथ अपनी जीवन लीला समाप्त करते हैं यह मानते हुए कि उनके परिवार के मृत मुखिया की भटकती आत्मा को मुक्ति मिलेगी और तब वह (मुक्तात्मा) इस सामूहिक आत्महत्या में शामिल हर सदस्य को पुनर्जीवित कर देंगे और सब कुछ यथावत चलने लगेगा. यह परिवार आर्थिक रूप से खुशहाल था और अपेक्षाकृत शिक्षित भी. इसी राजधानी में एक मजदूर बाप शराब के नशे में अपनी पत्नी की पिटाई कर रहा था और जब पांच साल के बेटे ने उसे ऐसा करने से मना किया तो शराबी ने बेटे का सिर दीवार से टकरा दिया. बच्चा मर गया. महाराष्ट्र के धुलिया के एक गांव में पांच मजदूरों को बच्चा-चोर समझ कर लोगों ने पीट-पीट कर मार डाला. उसी दिन तमिलनाडु में भी बाहर से आए मजदूरों की यही गति हुई. इन घटनाओं के कुछ दिन पहले असम और त्रिपुरा में भी बच्चा-चोर मान कर कुछ लोगों को भीड़ ने मार दिया.
सामूहिक आत्महत्या हो या सामूहिक हत्या या फिर शराबी का परिवार के सदस्यों पर अत्याचार, तीन तथ्य साफ दिखाई देते हैं. पहला कि समाज का एक वर्ग मानसिक रूप से बीमार है, दूसरा कि इनमें की किसी भी घटना को ‘न होने देने में’ राज्य, उसके अभिकरणों या कानून की कोई भूमिका नहीं है और तीसरा कि भीड़-न्याय की मानसिकता इसलिए है कि तार्किक नैतिकता के लोप होने के साथ ही राज्य और न्याय व्यवस्था पर जनविश्वास कम होता जा रहा है.
जरा इस मनोदशा का विश्लेषण करें. किसी व्यक्ति, परिवार या व्यक्तिसमूह को अगर आत्मा के भटकने, उसके मोक्ष प्राप्त करने में विश्वास है या फिर यह विश्वास भी कि पिताजी की आत्मा को तब शांति मिलेगी जब पुत्न अपना जीवनदान दे या उनको (पिता को) जीवनर्पयत सताते रहे व्यक्ति की मौत हो जाए और यह विश्वास भी कि पुत्न के रूप में यह काम उसे ही करना होगा, तो क्या आईपीसी की धारा उसके विचार को बदल सकती है या थाने का दरोगा उसे समझा सकता है? यानी यह शुद्ध विश्वास का मामला है दरअसल यह बीमारी (अवैज्ञानिक व अतार्किक सोच की) केवल अपढ़ लोगों में हो, ऐसा नहीं है.
भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में वर्षो से बंद आईएएस दंपति भी धर्मभीरु थे और पूजा-अर्चना करते थे. जब चारा घोटाला हो रहा था तब भी उसमें लिप्त तमाम अधिकारी और नेता छठ पूजा करते रहे. ठेकेदार के द्वारा खरीदे गए हवाई टिकट पर तिरुपति बालाजी के दर्शन करने वाला इंजीनियर विज्ञान भी पढ़ा होता है, धार्मिक भी होता है फिर भी भ्रष्टाचार में लिप्त होकर समाज को खोखला करता है. वास्तव में इस इंजीनियर या नेता, उस सामूहिक आत्महत्या करने वाले परिवार के 11 सदस्यों या फिर नरबलि देकर भगवान को खुश करने वाले व्यक्ति में मनोविकार का केवल डिग्री का अंतर होता है. उस अधिकारी ने शायद ही कभी सोचा हो कि ठेकेदार उस पर जो खर्च तिरुपति यात्ना में कर रहा है उसका खामियाजा कुछ साल बाद उसके द्वारा बनाए गए घटिया पुल के गिरने से आम लोगों को मौत के रूप में भुगतना पड़ेगा.
तो क्या ‘र्धम चर’ के आदेश की परिणति धर्माधता, धर्म के नाम पर खून बहाने, नरबलि देने या फिर सामूहिक आत्महत्या करने या भ्रष्ट रह कर भी सरकारी खर्चे से ‘पुण्य’ बटोरने में होती है? मुश्किल यह है कि समाज की व्यक्तिगत आस्था या सामूहिक सोच से धर्माधता हटाने और वैज्ञानिक सोच विकसित करने में राज्य की कोई सक्रिय भूमिका संभव नहीं. तो कैसे बचें इससे?
समाधान एक ही है. हमें गैर-राज्यीय लेकिन विश्वसनीय सामाजिक-धार्मिक संस्थाएं (न कि बाबा) विकसित करने होंगे जो बाबाओं के चंगुल में फंसे करोड़ों लोगों को धार्मिक अंधविश्वास से निकाल सकें. इसके लिए हमें समाज की तर्क-शक्ति बढ़ानी होगी, धर्म को बाबाओं के चंगुल से निकलकर इन संस्थाओं में समाहित करना होगा. लोगों को गीता सरीखे अद्भुत धर्म ग्रंथों के स्वाध्याय के लिए उन्मुख करना होगा और धर्म के इस विद्रूप चेहरे के खिलाफ वही आंदोलन छेड़ना होगा जो 15वीं सदी में मार्टिन लूथर ने तार्किकता को लाने के लिए छेड़ा था.
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