ब्लॉगः आंध्र प्रदेश में मुफ्त उपहार की होड़ में मौतों का जिम्मेदार कौन?, 18 बरस पहले लखनऊ में भी ऐसी ही भगदड़ मची थी...
By राजेश बादल | Published: January 3, 2023 10:05 AM2023-01-03T10:05:46+5:302023-01-03T11:05:01+5:30
18 बरस पहले लखनऊ में भाजपा के नेता लालजी टंडन के जन्मदिन पर भी ऐसी ही भगदड़ मची थी। उस कार्यक्रम में नेताजी महिलाओं को साड़ियां बांट रहे थे। इस भगदड़ में 21 जानें चली गई थीं। मरने वालों में अधिकतर महिलाएं और बच्चे थे। इस हादसे ने उस समय पूरे देश को हिलाकर रख दिया था।
दो दिन पहले आंध्र प्रदेश के गुंटूर में पूर्व मुख्यमंत्री तेलुगुदेशम के चंद्रबाबू नायडू के एक कार्यक्रम में भगदड़ से तीन आम नागरिक मारे गए। ये लोग ऐलान के मुताबिक नेताजी की सभा में उपहार लेने पहुंचे थे। तोहफे तो मिले नहीं, अलबत्ता भगदड़ ने निर्दोष जानें ले लीं। अब त्रासदी पर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया है। छह दिन पहले भी नेल्लोर में इन्हीं नेताजी के कार्यक्रम में भगदड़ मची थी और उसमें आठ लोग अपने प्राण खो बैठे थे। दोनों कार्यक्रम ही प्रशासन की बिना अनुमति के हो रहे थे और भीड़ जुटाने के लिए तेलुगुदेशम पार्टी दस दिनों से तोहफे बांटने का प्रचार कर रही थी। इनमें साड़ियां भी शामिल हैं। यह विडंबना है कि स्थानीय प्रशासन और पुलिस ने इस घटना से कोई सबक नहीं लिया और दूसरा हादसा हो गया।
बात सिर्फ इन्हीं दो दुर्घटनाओं की नहीं है। केवल 17 दिन पहले 15 दिसंबर को बंगाल के वर्धमान में प्रतिपक्ष के नेता शुभेंदु अधिकारी का कार्यक्रम भगदड़ का शिकार बना था। उसमें भी उपहार के तौर पर कंबल बांटने के दौरान तीन निर्दोष लोग मारे गए थे। तीनों महिलाएं थीं। अब इस घटना पर सियासत गरमा गई है। जांच में पाया गया कि कार्यक्रम की कोई सरकारी इजाजत नहीं ले गई थी। तनिक और पीछे जाएं तो सितंबर के महीने में कर्नाटक में बेंगलुरु के शिवाजी नगर में भी मुफ्त राशन के कूपन बांटने के दरम्यान भगदड़ हुई थी, जिसमें एक व्यक्ति मारा गया था और कई लोग घायल हुए थे। इस साल कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने हैं। पिछले एक दशक के दौरान अकेले उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा के तथा अन्य कार्यक्रमों में भगदड़ के कारण सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। सपा के कार्यक्रम में मुफ्त कंबल बांटे जा रहे थे। इसी तरह प्रतापगढ़ के एक धार्मिक कार्यक्रम में मुफ्त भोजन तथा कपड़े लेने के लिए भगदड़ में साठ से अधिक मौतें हो गई थीं। विडंबना यह कि इस कार्यक्रम की प्रशासकीय अनुमति नहीं ली गई थी।
18 बरस पहले लखनऊ में भाजपा के नेता लालजी टंडन के जन्मदिन पर भी ऐसी ही भगदड़ मची थी। उस कार्यक्रम में नेताजी महिलाओं को साड़ियां बांट रहे थे। इस भगदड़ में 21 जानें चली गई थीं। मरने वालों में अधिकतर महिलाएं और बच्चे थे। इस हादसे ने उस समय पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। उन दिनों लोकसभा चुनाव का प्रचार अभियान जोरों पर चल रहा था। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी झारखंड में अपने प्रचार अभियान पर गए थे। वाजपेयीजी प्रचार छोड़ कर लखनऊ लौटे थे क्योंकि लखनऊ उनका निर्वाचन क्षेत्र था। उन्होंने नेताजी को इसके लिए कड़ी फटकार लगाई और उन्हें पद से हटा दिया। टंडनजी के इस कार्यक्रम की भी पुलिस प्रशासन को कोई सूचना नहीं दी गई थी। इस आलेख में वे हादसे शामिल नहीं हैं, जो सामान्य जलसों अथवा धार्मिक आयोजनों में मची भगदड़ से होते रहे हैं। इस आलेख का केंद्रबिंदु केवल सियासी आयोजनों और नेताओं की ओर से मुफ्त उपहार पाने की होड़ में भगदड़ को शामिल किया गया है। ऐसा इसलिए कि इनके लिए वे लोग जिम्मेदार हैं, जो जनता के चुने हुए नुमाइंदे हैं और जिन पर आम जनता की हिफाजत का दायित्व है।
पड़ताल करने पर दो तथ्य सामने आते हैं-एक तो यह कि राजनेता अपनी लोकप्रियता या चुनावी लाभ हासिल करने के लिए निर्दोष नागरिकों की जान की परवाह नहीं करते और दूसरी बात यह है कि वे बचाव तंत्र को सावधान करने की कोशिश भी नहीं करते। वे प्रशासन या पुलिस को भी सूचना नहीं देना चाहते ताकि समय रहते सतर्कता बरती जा सके। बावजूद इसके कि सरकारी नियम है कि जब भी कोई ऐसा आयोजन हो तो उसकी पूर्व सूचना देना तथा अनुमति प्रशासन से लेना जरूरी है। वे आम आदमी की जिंदगी के लिए संवेदनशील नजर नहीं आते। ऐसे में प्रश्न यह है कि इन मौतों को कैसे रोका जाए? अनेक बार विधानसभाओं में इस पर हंगामे हुए और संसद के दोनों सदनों में भी चिंता प्रकट की गई है। मगर परिणाम वही ढाक के तीन पात रहा। एक तरफ राजनेताओं का रवैया मतदाताओं के प्रति सम्मानजनक नहीं है तो दूसरी तरफ ये दुर्घटनाएं पचहत्तर साल में हमारे बड़े आपदा प्रबंधन तंत्र की कलई भी खोलती हैं। इस तंत्र ने जैसे भूकंप और बाढ़ के समय ही अपनी भूमिका मान ली है इसलिए आपदा प्रबंधन में लगे कर्मचारियों या अधिकारियों के खिलाफ कभी कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं की गई। राजनेताओं को तो दंडित करने का प्रश्न ही नहीं उठता।
लेकिन मुफ्त उपहार बांटना क्या हमारे संवैधानिक ढांचे के वाकई अनुकूल है? क्या चुनाव जीतने के लिए राजनीतिक दल और उनके प्रतिनिधि भारतीय निर्वाचन कानून का उल्लंघन नहीं करते? कानून कहता है कि मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए किसी किस्म का उपहार बांटना आदर्श आचार संहिता ही नहीं, निर्वाचन अधिनियम का भी उल्लंघन है। यह अनुच्छेद-123 के तहत भ्रष्टाचार की श्रेणी में आता है। यदि स्वतंत्रता के पचहत्तर साल बाद भी हमारे नागरिक एक साड़ी या एक कंबल के लिए अपनी जान गंवाते हैं तो यह किसके लिए शर्म की बात है? सर्वोच्च न्यायालय इस मामले में कई बार अपनी स्पष्ट व्यवस्थाएं दे चुका है, मगर सियासत है कि मानती नहीं।