डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: धरती से लेकर अंबर तक मचा उत्पात...!
By विजय दर्डा | Published: June 5, 2023 07:23 AM2023-06-05T07:23:06+5:302023-06-05T11:26:51+5:30
धरती के सारे जीव प्रकृति के सृजन में लगे हैं लेकिन मनुष्य एकमात्र ऐसा जीव है जो धरती से लेकर अंबर तक अपनी हरकतों से प्रकृति को नष्ट करने में लगा है. यह समझना जरूरी है कि प्रकृति तो हमारे बगैर भी रह लेगी, हम प्रकृति के बगैर एक पल भी नहीं रह पाएंगे!

डॉ. विजय दर्डा का ब्लॉग: धरती से लेकर अंबर तक मचा उत्पात...!
जब दुनिया ने पर्यावरण के प्रति पहली बार आधिकारिक रूप से और एक होकर चिंता जाहिर की, उससे काफी पहले उस राक्षस का जन्म हो चुका था जो आज पर्यावरण को बुरी तरह तबाह कर रहा है. वैसे तो पर्यावरण को नष्ट करने वाले कई राक्षस हैं लेकिन मैं खासतौर पर प्लास्टिक की बात कर रहा हूं क्योंकि 2023 के पर्यावरण दिवस का विषय है- प्लास्टिक प्रदूषण और निदान.
संयुक्त राष्ट्र ने 1972 में पर्यावरण दिवस मनाने का निर्णय लिया था और दुनिया ने इसे 1973 से मनाना शुरू किया लेकिन प्लास्टिक की खोज बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में ही हो चुकी थी. तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह हमारे लिए एक दिन काल बन जाएगा. समस्या ने तब ज्यादा गंभीर रूप लिया जब 1950 में पॉलिथीन की थैली बनाने की शुरुआत हुई. पहले तो इसका इस्तेमाल उद्योगों के लिए शुरू हुआ लेकिन बड़ी तेजी से इसने घर-घर में पैठ बना ली! मुझे अपना बचपन याद है जब सभी लोग घर से निकलते वक्त साथ में झोला जरूर रखते थे. उस वक्त बाजार में पॉलिथीन की थैली नहीं हुआ करती थी. आज हालत क्या है, यह किसी से छिपा हुआ नहीं है. कुछ भी खरीदा तो लोगों को पॉलिथीन की थैली साथ में चाहिए.
कहने को सरकार ने इसे प्रतिबंधित कर दिया है लेकिन कड़वा सच यह है कि पॉलिथीन का निर्माण भी चल रहा है और उपयोग भी खूब हो रहा है. पॉलिथीन की इन थैलियों के कारण हमारी धरती खराब हो रही है, हमारे जलस्रोत नष्ट हो रहे हैं. नालियां बंद हो जाती हैं. पशु-पक्षी से लेकर समुद्री जीव तक इसे खाकर मर रहे हैं.
तो सवाल है कि इसका निदान क्या है? इसके लिए मैं एक उदाहरण आपके सामने रखना चाहूंगा. कोई ढाई दशक पहले जब लद्दाख की वादियों में भी पॉलिथीन की थैलियां हवा में उड़ने लगीं और नालियां चोक होने लगीं तो लेह की महिलाओं ने तय किया कि वे किसी भी सूरत में पॉलिथीन की थैलियों का इस्तेमाल नहीं करेंगी. इस निर्णय ने एक तरह से जनआंदोलन का रूप ले लिया और लेह का पूरा इलाका पॉलिथीन की थैलियों से मुक्त हो गया. यदि कोई पर्यटक ऐसी थैली लेकर आता और कहीं फेंक देता तो महिलाएं उसे एकत्र करके पहाड़ों से नीचे भेज देतीं.
अब तो खैर आधिकारिक रूप से भी वहां पॉलिथीन का उत्पादन और उपयोग पूरी तरह से बंद हो चुका है. जरा सोचिए कि लेह की तरह यदि सभी ओर ऐसे प्रयास शुरू हो जाएं तो बदलाव में कितनी देर लगेगी? हमें यह समझना होगा कि केवल कानून बना देने से कुछ नहीं होने वाला है. हमें अपना रवैया बदलना होगा. हम इन थैलियों को कहीं भी फेंक देते हैं. सच कहें तो हम अपने लिए जहर बो रहे हैं. आप घर से निकलते वक्त कपड़े की एक-दो थैली साथ रखने की आदत डाल लें तो पॉलिथीन की घातक थैलियों से काफी हद तक मुक्ति पा सकते हैं. जरूरत केवल दृढ़ निश्चय की है.
हम सबको यह स्वीकार करना पड़ेगा कि पर्यावरण को नष्ट करने का सारा दोष मनुष्य नाम के जीव का है. बाकी सारे जीव पर्यावरण के सृजन में लगे हैं. वैज्ञानिकों का अनुमान है कि कुछ साल के लिए यदि मनुष्यों को पृथ्वी से हटा लिया जाए तो पृथ्वी कुछ वर्षों के भीतर ही अपने मूल स्वरूप में आ जाएगी लेकिन केवल पौधों को हटा लिया जाए तो मनुष्य एक दिन भी जिंदा नहीं रह पाएगा!
एक आंकड़ा आपको चौंका देगा कि करीब 12 हजार साल पहले जब मनुष्य ने खेती करनी शुरू की तब से लेकर अब तक दुनिया के आधे से ज्यादा पेड़ों को वह नष्ट कर चुका है. हम पेड़ लगा कम रहे हैं, जंगलों को तेजी से नष्ट कर रहे हैं. जंगल के जीवों की प्रजातियां तेजी से खत्म हो रही हैं. हमें यह समझना होगा कि प्रकृति की रचना में हर जीव का संबंध एक-दूसरे से है. जीव खत्म हो रहे हैं तो हम भी प्रभावित हो रहे हैं.
हमारे पर्यावरण को नष्ट करने वाले एक और प्रमुख कारण की मैं चर्चा जरूर करना चाहूंगा. अभी मैं रूस और यूक्रेन के बीच जंग की तस्वीरें देख रहा था, कुछ वीडियोज देख रहा था तो बारूद के काले धुएं ने मेरे भीतर एक सवाल खड़ा कर दिया कि दुनिया हर साल कितना बारूद हवा में छोड़ती है? मेरे पास कोई अधिकृत आंकड़ा नहीं है लेकिन इतना तो आप भी मानेंगे कि बारूद का हर कतरा उस हवा को प्रदूषित कर रहा है जो हमारी जिंदगी के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है.
वक्त के पैमाने पर देखें तो ईसा से कोई 300 साल पहले चीन में बारूद की खोज हुई थी. चीन ने पहली बार इसे ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस को बेचा. आज बारूद पूरी दुनिया में तबाही मचा रहा है. जो इसकी जद में आते हैं, वो तो मारे ही जाते हैं, जो जद में नहीं आते उन्हें मारने के लिए उनके फेफड़ों तक यह बारूद जहर पहुंचा देता है. आप चाहे न चाहें, कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रोजन और गंधक आपको पल-पल मार रहा है. क्या आपको पता है कि दूसरे विश्व युद्ध में जर्मनी के पास बाल्टिक सागर में डुबोये गए करीब तीन लाख टन गोला बारूद ने उस पूरे इलाके में समुद्र को दूषित कर दिया है!
जंग के दुष्परिणामों को भगवान महावीर, भगवान बुद्ध और महात्मा गांधी ने समझ लिया था इसलिए उन्होंने अहिंसा का पाठ पढ़ाया. यदि हम उनकी राह पर चलें तो तोप वाले बारूद के एक कतरे की जरूरत भी हमें न पड़े! दुर्भाग्य से आज का सच यह है कि हम धरती और समंदर को तो तबाह कर ही रहे हैं, अंबर को भी क्षति पहुंचा रहे हैं. सुपरसोनिक विमानों से निकलने वाला नाइट्रिक ऑक्साइड ओजोन परत को प्रभावित कर रहा है. अभी खबर आई है कि चीन धरती में 10 किलोमीटर गहरा सुराख कर रहा है. रूस 11 किलोमीटर का सुराख पहले ही कर चुका है. तकनीक की यह भूख हमें पता नहीं कहां ले जाएगी?
वास्तव में आज पर्यावरण के प्रति चेतना जागृत करना सबसे बड़ी जरूरत है. इस विषय को हर स्कूल के सिलेबस में शामिल करना चाहिए क्योंकि बच्चे ही हमारी सबसे बड़ी उम्मीद हैं. इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण मैं आपको देता हूं. मेरे पोते आर्यमन और शिवान ने पर्यावरण के प्रति जागृति के लिए ‘लिटिल प्लैनेट फाउंडेशन’ बनाया है. बच्चे तेजी से उस फाउंडेशन से जुड़ रहे हैं.
कुछ दिन पहले ही मधुमक्खियों को लेकर आर्यमन और शिवान का एक लेख मैंने पढ़ा. मेरी आंखें खुल गईं. जो मधुमक्खियां फलों और सब्जियों के लिए परागण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं और करोड़ों डॉलर का शहद मुफ्त में उपलब्ध कराती हैं, उन्हें मनुष्य तेजी से खत्म कर रहा है. आज आर्यमन और शिवान इस तरह की जागृति पैदा कर रहे हैं तो इसका कारण यह है कि उन्हें उनके स्कूलों में इस तरह की शिक्षा मिली है. यदि सरकारी से लेकर निजी स्कूलों तक में इस तरह की शिक्षा दी जाने लगे तो तस्वीर बदल सकती है.
बहरहाल, मनुष्य की हरकतें देखकर मुझे तो कई बार डर लगता है कि किसी दिन मनुष्य प्रजाति ही खत्म न हो जाए! हम मनुष्यों को यह समझना होगा कि प्रकृति हमारे बगैर रह लेगी...हम प्रकृति के बगैर नहीं रह सकते!