लोगों की अदालत में आपका स्वागत है...
By मेघना वर्मा | Published: July 1, 2018 06:49 AM2018-07-01T06:49:07+5:302018-07-01T06:49:07+5:30
मैंने फिर गुहार लगाई कहना चाहा कि अरे इसमें क्या बड़ी बात है अपनी जिंदगी के साथ पढ़ने और सजने का हक तो मिलना चाहिए मुझे।
बहुत घबराहट हो रही है, लग रहा है कोई एक्जाम है। मां भी बहुत दिनों से तैयारी करवा रही है, सवालों के जवाब मैंने रट तो लिए हैं बस बिना झिझके बोल लूं यही दूआ है। जैसे-जैसे समय बीत रहा है दिल की धड़कन तेज हो रही है। तेज इसी धड़कन के साथ मेरी भी बारी बस आने ही वाली थी। चाह बस यही थी कि अंधरे कमरे में बैठे तीन लोग मुझे स्वीकार कर लें। कमरे से जब मेरी दोस्त निकली तो उसकी मां बहुत खुश थी लेकिन मेरी दोस्त हंसते हुए भी खुश नहीं थी। खैर अगली बारी मेरी थी, जब मैं अन्दर पहुंची मेरे सामने तीन लोग बैठे थे। बाएं हाथ पर एक महिला थीं जो बस टकटकी लगाए मुझे देख रही थी नाम था "पड़ोसी"। दाएं हाथ पर एक शख्स थे देखने से तो पहचान में नहीं आ रहे थे पर खुद को मेरा "रिश्तेदार" बता रहे थे, और बीच में थे थोड़े अधेड़ उम्र के व्यक्ति जिनका नाम था "चार लोग"। लोगों की इस अदालत में मेरा स्वागत हो चुका था जिसका नाम था "समाज"।
पड़ोसी मोहतरमा ने मुझ पर सवाल दागने शुरू किए- "कहां से आ रही हो। मैनें बताया- "जी बस अभी अम्मी को छोड़ा है बाहर और...बात पूरी करने से पहले ही जवाब आया...क्या बिना अम्मी के और बिना किसी बड़े के अकेले यहां चली आई"
मैंने कहा- "जी, उसमें क्या है वो तो आपकी लड़की भी परसों अकेले घर से बाहर निकली थी।" इतने में खुद को मेरे दूर का रिश्तेदार बताने वाले "रिश्तेदार" बोले- "जबान लड़ाती हो, चुप रहो बहुत दिनों से देख रहे हैं तुम्हारी हरकतें"। मैनें कुछ कहना चाहा, पर फिर मुझे फिर चुप कर दिया और पड़ोसी कहने लगीं - "और क्या हरकते देखी हैं इसकी एक दम बेशर्मों वाली, रोज अकेले आंखे उठा के कॉलेज जाती है, शाम को घर एक्सट्रा क्लास का बहाना बना कर लेट आती है, आय दिन सहेलियों से मिलती है और तो और पार्लर भी जाने लगी है। बाल कटवा लिए हैं चूहों जैसे, आधी कटे बाजू की ड्रेस पहनती है। चाल-चलन बिगड़ गए हैं इसके"।
मैंने फिर गुहार लगाई कहना चाहा कि अरे इसमें क्या बड़ी बात है अपनी जिंदगी के साथ पढ़ने और सजने का हक तो मिलना चाहिए मुझे मगर बोलने कहां दिया जा रहा था। मेरे रिश्तेदार ने इस बात पर हामी भर दी और तो और उसके इल्जामात तो मेरे ऊपर कुछ और ही थे कहने लगे- "ऐसी अभद्र लड़की है इसके फेसबुक पर 239 लड़के दोस्त हैं, ना जानें कितने लड़कों की रिक्वेस्ट आई हुई है, आउटबॉक्स में भी इतने मैसेज पड़े हुए हैं पर देखो हमारे सामने भी पैर पर पैर चढ़ा कर बैठी है। बेशर्म कहीं की।
मैंने तुरंत अपनी टांगे एक-दूसरे से चिपका ली, इन सभी बातों को बहुत देर से जज की कुर्सी पर बैठे सुन रहे थे "चार लोग"। अचानक से उन्होंने सब को चुप होने को कहा और मेरी तरफ घूर कर देखा, कहने लगे "सुना है अपनी पसंद से निकाह करना चाहती हो, जानती हो हम यानी चार लोग क्या कहेंगे। मेरी आंख से आंसू निकल रहे थे, एक तरफ अपने दिलदार का चेहरा दिख रहा था दूसरी अपनी अम्मी का।"
अपना स्टैम्प उठाते हुए उन्होंने फिर कहा - "शादी अपने खून में ही होनी चाहिए वरना वंश खत्म और खून खत्म। तुम्हारी सारी गलतियां माफ कर सकते हैं लेकिन अपनी पसंद से शादी ये कभी मंजूर नहीं होगा।" बस मैं गुहारे लगाती रही, बिलखती रही कि लड़की होने की सजा मेरी भावनाओं को क्यों मेरा मन मार कर क्या मिलेगा, मगर मेरे आंसूओं का उनपर कोई जोर-बस नहीं चला और लाल स्याही से मुझे "समाज से निष्कासित" का ठप्पा लगा दिया।