ब्लॉग: मुस्लिम वोटों के लिए भाजपा की रणनीति...निगाह पसमांदा मुसलमानों पर

By अभय कुमार दुबे | Published: June 14, 2023 08:07 AM2023-06-14T08:07:22+5:302023-06-14T08:09:16+5:30

भाजपा की निगाह पसमांदा मुसलमानों पर है जो व्यावहारिक रूप से मुस्लिम समाज की तकरीबन अस्सी प्रतिशत आबादी बनाते हैं. पसमांदा वोटरों के भाजपा की तरफ रुझान से पार्टी को डेढ़ से ढाई फीसदी वोटों का लाभ मिल सकता है.

BJP's strategy for Muslim votes, eyes on Pasmanda Muslims | ब्लॉग: मुस्लिम वोटों के लिए भाजपा की रणनीति...निगाह पसमांदा मुसलमानों पर

मुस्लिम वोटों के लिए भाजपा की रणनीति (फाइल फोटो)

कर्नाटक में मुसलमानों का आरक्षण छीनकर हिंदुओं को देने वाली भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में स्थानीय निकायों के चुनावों में मुसलमानों को भी टिकट दिया. पचास-पचपन मुसलमान उम्मीदवार जीते भी. दरअसल,  भाजपा के रणनीतिकारों के लिए ये दो अलग-अलग बातें हैं. कर्नाटक में उनके सामने समस्या यह थी कि हिंदुओं की गोलबंदी का प्रतिशत कैसे बढ़ाएं यानी लिंगायतों को प्रसन्न रखते हुए वोक्कलिगाओं को अपने साथ कैसे जोड़ें. 

इसके उलट उत्तर प्रदेश में वे मुसलमानों को टिकट देने का प्रयोग करने की तरफ गए क्योंकि वहां हिंदू गोलबंदी पहले से ही अपने चरम पर पहुंच चुकी है. इस बात को इस तरह से भी समझा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में वह मुसलमानों को भविष्य के मतदाता के रूप में देख रही है. वक्त के साथ भाजपा की यह मुसलमान-रणनीति और भी परवान चढ़ सकती है.

भाजपा पिछले दो साल से एक ऐसी रणनीति पर काम कर रही है जिसके इच्छित परिणाम अगर निकले तो वह आने वाले समय में अपने वोटों का राष्ट्रीय प्रतिशत चालीस या उसके पार पहुंचा सकती है. इस समय भाजपा ज्यादा से ज्यादा 37-38 फीसदी वोटों की पार्टी है. विपक्षी मतों के बंटवारे के कारण उसे एक मजबूत बहुमत की सरकार बनाने का मौका अवश्य मिल गया है, लेकिन अगर कांग्रेस के अच्छे जमानों से तुलना की जाए तो यह पार्टी दो चुनाव जीतने के बावजूद 45 फीसदी वोट पाने के आंकड़े से काफी पीछे नजर आती है. यह रणनीति मुसलमान वोटों को अपनी ओर खींचने की है.

इसके लिए भाजपा की निगाह पसमांदा मुसलमानों पर है जो व्यावहारिक रूप से मुस्लिम समाज की तकरीबन अस्सी प्रतिशत आबादी बनाते हैं. मेहनतकश, गरीब और कारीगर जातियों की इस मुसलमान जनता का राजनीतिक नेतृत्व आजादी के पहले से ही ऊंची जातियों के संपन्न और कुलीन समझे जाने वाले अशराफ नेतृत्व को चुनौती देता रहा है.

एक प्रतिष्ठित समीक्षक के अनुसार पसमांदा वोटरों के भाजपा की तरफ रुझान से पार्टी को डेढ़ से ढाई फीसदी वोटों का लाभ मिल सकता है जिससे वह चालीस फीसदी की रेंज में पहुंच सकती है. दूसरे, इससे हिंदू वोटरों की गोलबंदी में निहित समस्याओं का सामना करने में भी मदद मिलेगी. यह सही है कि भाजपा को ओबीसी और दलित वोट मिलते हैं, लेकिन उनकी निष्ठा उस तरह पक्की नहीं है जिस तरह ऊंची जातियों की है. ये वोटर कभी-कभी पार्टी का साथ छोड़ भी देते हैं. इससे पैदा हुए संकट का सामना करने में भी भाजपा की मदद पसमांदा वोटर कर सकते हैं.

भाजपा की दूसरी रणनीति का ताल्लुक लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन से है. इस परिसीमन पर 2026 तक रोक लगी हुई है, लेकिन उसके बाद उसे नहीं रोका जा सकेगा. भाजपा चाहे तो परिसीमन के जरिये अपने प्रभाव-क्षेत्र की सीटें बढ़ा सकती है, और उनके इलाकों की सीटें कम कर सकती है जहां उसे समर्थन या तो कम मिलता है या बिल्कुल नहीं मिलता. मसलन, परिसीमन के परिणामस्वरूप हिंदी क्षेत्र की 33 सीटें बढ़ सकती हैं और इसका खामियाजा दक्षिण भारत को उठाना पड़ सकता है, वहां की सीटों की संख्या कम हो जाएगी. 

यह सब करने के लिए भाजपा को किसी नियम का उल्लंघन नहीं करना है. ऐसा करने के लिए उसे केवल आबादी के मुताबिक प्रतिनिधित्व का नियम लागू करना होगा. यह अलग बात है कि इससे उन राज्यों को नुकसान होगा जिन्होंने आबादी पर नियंत्रण करने के सफल और प्रशंसनीय उपाय किए. परिसीमन के भारतीय लोकतंत्र के लिए क्या नतीजे निकलेंगे, इसका पूरा तथ्यात्मक अनुमान अभी नहीं लगाया गया है. नई संसद में लोकसभा सदस्यों की लगभग दोगुनी संख्या बैठ सकती है. अगर दक्षिण की मौजूदा सीटें कायम रखनी हैं, तो लोकसभा सदस्यों की संख्या आठ सौ से ज्यादा करनी होगी. बढ़े हुए सदस्य ज्यादातर किस पार्टी के होंगे, इसका मोटा अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है.

गैरभाजपा दलों के लिहाज से देखा जाए तो उनकी दूरगामी रणनीति जातिगत जनगणना और ओबीसी गोलबंदी की संभावनाओं के इर्दगिर्द नजर आती है. इसीलिए राहुल गांधी आजकल ‘जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी हिस्सेदारी’ का पुराना समाजवादी नारा लगाते हुए सुने जा सकते हैं. लेकिन, इस रणनीति में भी उसी तरह की अनिश्चितताएं हैं जैसी भाजपा की पसमांदा-रणनीति या परिसीमन-रणनीति में नजर आती हैं. इससे जुड़े कई सवाल हैं जिनका जवाब गैरभाजपा दलों को तलाशना है. 

मसलन, ओबीसी गोलबंदी करते समय ब्राह्मणवाद विरोध की लफ्फाजी के गहरे और स्थायी किस्म के नुकसान पहले भी हो चुके हैं और आगे भी हो सकते हैं. दूसरे, ओबीसी पहचान का एक हिस्सा कभी भी भाजपा की तरफ खिसक सकता है.

भाजपा को भी पता है, और विपक्ष को भी कि ये रणनीतियां 2024 के लोकसभा चुनाव में उनके काम नहीं आने वाली हैं. लोकसभा चुनाव के लिए होनेवाली जद्दोजहद मौजूदा समर्थन आधारों के दम पर ही करनी होगी. यह पेशबंदी तो 2024 के बाद होने वाले चुनावों के लिए की जा रही है.

Web Title: BJP's strategy for Muslim votes, eyes on Pasmanda Muslims

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