क्या बिहार राहुल गांधी की नई प्रयोगशाला है?, सक्रिय नजर आ रहे कांग्रेस सांसद
By लोकमत न्यूज़ डेस्क | Updated: April 9, 2025 05:21 IST2025-04-09T05:21:40+5:302025-04-09T05:21:40+5:30
कांग्रेस इतनी जल्दी जागती नहीं है. जहां-जहां वह तीसरे चौथे नंबर की पार्टी है वहां तो कांग्रेस चुनाव की घोषणा होने तक अलसाती रहती है.

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क्या बिहारकांग्रेस की या यूं कहा जाए कि राहुल गांधी की नई प्रयोगशाला है? भूमिहार युवा नेता कन्हैया कुमार को ‘पलायन रोको, रोजगार दो’ पदयात्रा का न केवल दायित्व सौंपना बल्कि खुद पदयात्रा में शामिल होना. दलित वर्ग के राजेश राम को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपना. संविधान बचाओ सम्मेलन में भाग लेना. कृष्णा अल्लावरु को बिहार का प्रभारी बनाना. यह कुछ ऐसे काम हैं जो बिहार के विधानसभा चुनाव से सात आठ महीने किए गए हैं. आमतौर पर कांग्रेस इतनी जल्दी जागती नहीं है. जहां-जहां वह तीसरे चौथे नंबर की पार्टी है वहां तो कांग्रेस चुनाव की घोषणा होने तक अलसाती रहती है.
लेकिन बिहार में राहुल गांधी सक्रिय नजर आ रहे हैं. सफेद टीशर्ट की प्रतीकों की राजनीति अलग से कर रहे हैं. संविधान बचाओ, आरक्षण बचाओ, जातीय जनगणना कराओ जैसे मसलों को लगातार उठाया जा रहा है. लेकिन बड़ा सवाल उठता है कि इस सबसे कांग्रेस का कार्यकर्ता तो उत्साह में आया है लेकिन क्या वोटर भी कांग्रेस की तरफ खिसकेगा जिसे वह भूले बिसरे गीत की तरह करीब-करीब भुला चुका है?
राहुल गांधी ने साफ कर दिया है कि वह महागठबंधन का हिस्सा रहेंगे यानी लालू और वाम दलों के साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे . इस बार वीआईपी पार्टी के मुकेश सहनी भी साथ देने के संकेत दे रहे हैं. तेजस्वी यादव के साथ 14 फीसदी यादव और करीब 18 फीसदी मुस्लिम वोट हैं. कांग्रेस को कुछ-कुछ सवर्ण जाति का भी वोट मिलता रहा है.
मुस्लिम भी कांग्रेस के कारण पूरी तरह से गठबंधन के साथ आ सकते हैं. खासतौर से वक्फ कानून के बाद. राजेश राम जिस अति पिछड़े समुदाय से आते हैं उन रामदासी वोटों की संख्या 5.2 फीसदी मानी जाती है . पिछली बार इस गठबंधन को 37 फीसदी वोट मिला था. इस बार चालीस पार जा सकता है. लेकिन एनडीए गठबंधन भी कमजोर नहीं है.
भाजपा के साथ 15 फीसदी से ज्यादा सवर्ण वोटर है. नीतीश कुमार भले ही कथित रूप से बीमार हों, ज्यादा सक्रिय नजर नहीं आ रहे हों लेकिन उनका भी अपना 14 फीसदी वोट है जिसमें लव कुश वोट शामिल है. फिर चिराग पासवान का 5.3 फीसदी वोट, उपेन्द्र कुशवाहा का 4.2 फीसदी वोट, जीतन राम मांझी का करीब तीन फीसदी वोट भी इसमें जोड़ दिया जाए तो यह आंकड़ा 44 फीसदी के पार जाता है.
बिहार में हिंदू-मुस्लिम ज्यादा नहीं चलता है. वहां जाति का गठजोड़ ज्यादा काम आता है. जो गठबंधन जितनी जातियों को जोड़ लेगा उसके चुनाव जीतने की संभावना उतनी ही ज्यादा बढ़ जाती है. वैसे तो कहा जाता है कि बिहार में तीन बड़े दल हैं. जहां दो दल साथ आए उसका बेड़ा पार. आरजेडी, जदयू और बीजेपी में से जहां दो एक साथ वहां जीत.
इस हिसाब से एनडीए की संभावना ज्यादा बताई जा रही है. कुछ जानकारों का कहना है कि इस बार नए खिलाड़ी प्रशांत किशोर (पीके) तमाम समीकरण बिगाड़ने की क्षमता रखते हैं. खुद तो कुछ खास नहीं कर पाएंगे लेकिन कौन नजदीकी लड़ाई में बाजी मारेगा यह तय करने में उनकी भूमिका हो सकती है. यह सारा खेल राहुल गांधी समझ रहे हैं. इसलिए बिहार में प्रयोग किए जा रहे हैं.
राहुल की नजर 36.1 प्रतिशत ईबीसी ( अति पिछड़े ) वर्ग पर है. यह बहुत बड़ा वोट बैंक है. ईबीसी पर नीतीश और भाजपा की भी नजर है. राहुल गांधी संविधान बचाओ मुहिम के जरिए इस वोट बैंक में सेंध लगाना चाहते हैं. राजेश राम को कमान इसलिए भी सौंपी गई है. बिहार का जातीय सर्वे अति पिछड़ों के पिछड़ेपन की मार्मिक तस्वीर पेश करता है.
इस वर्ग के सिर्फ 4 फीसदी ही स्नातक हैं. सिर्फ 0.03 फीसदी ही डाॅक्टर हैं , सिर्फ 0.31 फीसदी ही इंजीनियर हैं. इस वर्ग का कोई बड़ा नेता नहीं है जो सबको बांध कर रख सके . यह वोट पूरे बिहार में बिखरा हुआ है. हर विधानसभा सीट में इनका ठीकठाक वोट है. कहा जा रहा है कि राहुल गांधी चाहते हैं कि ओबीसी वर्ग से आने वाले युवा नेता सचिन पायलट ज्यादा समय बिहार को दें.
ताकि उनकी छवि का इस्तेमाल किया जा सके. माना जा रहा है कि 14 अप्रैल को पदयात्रा के समापन के बाद कन्हैया कुमार को चुनाव संचालन समिति की जिम्मेदारी दे दी जाएगी. वैसे बिहार विधानसभा चुनाव में इस बार युवा नेताओं की भूमिका निर्णायक साबित होने वाली है. महागठबंधन के पास तेजस्वी यादव और कन्हैया कुमार जैसे युवा हैं तो एनडीए के पास चिराग पासवान हैं.
अगर नीतीश के बेटे निशांत कुमार राजनीति में उतरते हैं तो एक अन्य युवा का आगमन. उधर पीके भी युवा नेता ही हैं जो युवा वर्ग में बहुत लोकप्रिय हैं. कन्हैया, तेजस्वी और पीके तीनों ही बेरोजगारी और पलायन रोकने पर बहुत जोर दे रहे हैं . चिराग पासवान ने भले ही वक्फ बिल का समर्थन किया लेकिन ईद पर जगह-जगह हिंदू-मुस्लिम के एजेंडे की आलोचना भी की थी.
राहुल गांधी जिला कांग्रेस समिति ( डीसीसी ) में जान फूंकने में लगे हैं. डीसीसी अध्यक्ष ही तय करेंगे कि उनके यहां से विधानसभा और लोकसभा चुनाव के लिए उम्मीदवार कौन होगा. उनका संपर्क सीधे केंद्रीय चुनाव समिति से होगा. दिल्ली में हाल ही में मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी ने देश भर से आए डीसीसी अध्यक्षों से संवाद भी किया है.
ऐसा डीएमके पार्टी कहती रही है और राजीव गांधी के समय भी डीसीसी को भाव दिया जाता था. राहुल का यह प्रयोग बिहार चुनाव में क्या रंग दिखाएगा यह देखना दिलचस्प रहेगा. कुल मिलाकर अब इस बात पर राहुल का प्रयोग निर्भर करता है कि डीसीसी अध्यक्षों का चुनाव कैसे होता है. अगर राज्य विशेष के बुजुर्ग नेताओं के कहने पर या राय पर चुनाव हुआ तो फिर उम्मीदवारों के चयन में किसकी चलेगी यह समझना मुश्किल नहीं है. सवाल उठता है कि राहुल गांधी अपनी नई टीम को वरिष्ठ नेताओं के वट वृक्ष की छाया से परे रख पाएंगे?
अगर कन्हैया की यात्रा सफल रहती है, अगर राहुल कांग्रेस में नई जान फूंकने में कामयाब होते हैं तो विधानसभा चुनाव के लिए उम्मीदवारों की संख्या में भी इजाफा होगा. इस बार लालू यादव टिकट तय करने में अपना दिमाग लगाने वाले हैं. पिछली बार कांग्रेस 70 सीटों पर लड़ कर सिर्फ 19 पर ही जीत हासिल कर पाई थी. तब कांग्रेस ने करीब 25 ऐसी सीटों पर भी लड़ना स्वीकारा था जहां से लालू की पार्टी भी शर्तिया हारती. इस बार राहुल गांधी ऐसी गलती नहीं करेंगे ऐसा माना जा रहा है. कृष्णा अल्लावरु बाकायदा सर्वे भी करवा रहे हैं. इसके हिसाब से भी सीटों की मांग की जा सकती है. हो सकता है कि कांग्रेस अपनी पसंद की सीटों की मांग करे और संख्या पर ध्यान नहीं दे. यह सब आगे की बातें हैं. अभी तो कांग्रेस का जोर गुटबाजी रोकने पर है, खेमेबाजी खत्म करने पर है. इसमें अगर कांग्रेस कामयाब होती है तो परिणाम चौंकाने वाले भी साबित हो सकते हैं.