हर राजनीतिक दल को सबक सिखाया बिहार के मतदाता ने, राजेश बादल का ब्लॉग
By राजेश बादल | Updated: November 12, 2020 15:39 IST2020-11-12T15:37:32+5:302020-11-12T15:39:20+5:30
शुरुआत करते हैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से. अपने अहं के लिए वे घमंड की सीमा तक पार कर जाते हैं. सातवीं बार जब वे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे तो शायद उन्हें स्वयं भी जानकारी नहीं होगी कि कब तक इस पद पर रहेंगे.

भारतीय जनता पार्टी के दोनों हाथों में लड्डू हैं. पर उसकी टीस भी बड़ी है. बड़ी पार्टी की टीस भी बड़ी होती है. (file photo)
तो बिहार ने साबित कर दिया कि उसे वक्त पर सियासत को सबक सिखाना भी आता है. भले ही रोमांचक घटनाक्रम चौबीस घंटे चला, लेकिन मतदाता के मन को दाद दिए बिना आप नहीं रह पाएंगे. हर राजनीतिक दल नतीजे आने के साथ एक कसक से भरा हुआ है.
उसके दिल में एक टीस या हूक रह गई. वह एक काश !..से गुजर रहा है. शुरुआत करते हैं मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से. अपने अहं के लिए वे घमंड की सीमा तक पार कर जाते हैं. सातवीं बार जब वे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे तो शायद उन्हें स्वयं भी जानकारी नहीं होगी कि कब तक इस पद पर रहेंगे. अपने ही राज्य में ऐसी जीत मिली है जो पराजय से भी खराब है. उनके दल ने शर्मनाक प्रदर्शन किया है.
फिर भी उसे मुख्यमंत्री पद का तोहफा या दान भारतीय जनता पार्टी की ओर से मिल रहा है. अब नीतीश अपने बौनेपन के बोध के साथ भारतीय जनता पार्टी की ठसक और रौब को बर्दाश्त करेंगे.
वे जानते थे कि लोक जनशक्ति पार्टी के सुप्रीमो चिराग पासवान कहां से राजनीतिक मंत्र ले रहे हैं, पर वे उफतक नहीं कर सके. उनका हाल कुछ ऐसा है कि वैसे तो जहाने सियासत में कुछ जीते हैं, कुछ हारे हैं, कुछ लोग यहां ऐसे भी हैं, जो जीत के हारा करते हैं.
भारतीय जनता पार्टी के दोनों हाथों में लड्डू हैं. पर उसकी टीस भी बड़ी है. बड़ी पार्टी की टीस भी बड़ी होती है. वह अपने गठबंधन का सबसे बड़ा दल है. लेकिन उसका मुखिया नहीं है. गढ़ आला, पण सिंह गेला वाले अंदाज में वह नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री घोषित करने के अपने वादे से बंधी है.
उसका धर्मसंकट यह है कि महाराष्ट्र में तो शिवसेना की कम सीटों के कारण वह मुख्यमंत्री पद उद्धव ठाकरे को नहीं सौंपती और चालीस साल पुरानी यह पार्टी गठबंधन से बाहर चली गई. अब बिहार में अपने से कम सीटों वाले जनता दल (यू) के नीतीश कुमार को बिहार में चीफ मिनिस्टर की कुर्सी पर बिठाती है.
अब उसकी फांस यह है कि नीतीश कुमार को पूरे पांच साल तक कैसे ङोले और हटाए तो कैसे हटाए ? कमोबेश ऐसा ही हाल राष्ट्रीय जनता दल का है. इतने करीब पहुंचकर सत्ता हाथ से फिसल गई. केवल दस- पंद्रह सीटों का खेल हो गया. उसकी यह वेदना कांग्रेस ने और बढ़ा दी है. कांग्रेस को गठबंधन में अगर सत्तर के स्थान पर पचास सीटें ही देती तो शायद सियासी समीकरण आज कुछ और हो सकता था.
पिछले चुनाव में इकतालीस सीटों पर उम्मीदवार खड़े करके कांग्रेस ने 27 सीटें जीती थीं. इस बार अधिक से अधिक 50 ही बनती थीं. राजद के नौजवान तेजस्वी के हाथ से मुख्यमंत्री पद फिसल गया. भले ही प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनी रहे. कांग्रेस की भी ऐसी ही हूक है. महाराष्ट्र में वह तीसरे स्थान पर होते हुए भी सरकार में रहने का सुख ले रही है.
पर बिहार में वह इससे वंचित रह गई. पार्टी के धुरंधरों ने बिहार में धुआंधार प्रचार किया होता तो शायद यह नौबत नहीं आती. यदि उसने कुछ सीटें अपने कोटे से कम कर दी होतीं तो बिहार में भी वह एक उप मुख्यमंत्री और कुछ मंत्रियों के साथ सत्ता में होती और इस प्रदेश में अपने संगठन में प्राण फूंक रही होती. कांग्रेस ने इस राज्य में अपने पुनर्गठन का एक सुनहरा अवसर खो दिया है.
इस तरह सारे बड़ी पार्टियां अपने अपने काश..! के साथ संताप का शिकार हैं. असल खिलाड़ी चुनाव आयोग रहा, जिसने इस चुनाव में छोटे-छोटे मतदान केंद्र बनाए, इससे मतगणना लंबी चली और खेल हो गया. पार्टियों को इसका पेंच समझने में वक्त लगेगा.