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भरत झुनझुनवाला का ब्लॉग: दवाओं के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनने की जरूरत

By भरत झुनझुनवाला | Updated: June 26, 2021 15:21 IST

1995 में सरकार ने विश्व व्यापार संगठन के अंतर्गत प्रोडक्ट पेटेंट को पुन: लागू कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि 1991 में हम जो केवल एक प्रतिशत एपीआई को आयातित करते थे, वह 2019 में बढ़कर 70 प्रतिशत आयात होने लगा. भारत इस बाजार से लगभग बाहर हो गया.

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 1970 में भारत में बिकने वाली दवाओं में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दो-तिहाई हिस्सा था. इसके बाद सरकार ने प्रोडक्ट पेटेंट को निरस्त कर दिया. पेटेंट, यानी नए आविष्कारों को बेचने का एकाधिकार दो तरह से बनाया जाता है. ‘प्रोडक्ट’ पेटेंट में आप जिस माल (प्रोडक्ट) का आविष्कार करते हैं और उसे पेटेंट करते हैं, उस माल को कोई दूसरा बनाकर नहीं बेच सकता है. इसके विपरीत ‘प्रोसेस’ पेटेंट में आप किसी माल को पेटेंट नहीं करते हैं बल्कि उसको बनाने की प्रक्रिया अथवा तकनीक (प्रोसेस) को पेटेंट करते हैं. प्रोसेस पेटेंट कीव्यवस्था में कोई भी व्यक्ति पेटेंट किए गए माल को किसी दूसरे प्रोसेस से बना सकता है. 

जैसे मान लीजिए आपने लोहे को गर्म करके सरिया बनाने का पेटेंट ले लिया. प्रोडक्ट पेटेंट के अनुसार दूसरा कोई भी व्यक्ति किसी भी प्रक्रि या से सरिया नहीं बना सकता है. लेकिन प्रोसेस पेटेंट के अनुसार दूसरा व्यक्ति लोहे को पीटकर सरिया बनाने को स्वतंत्न है क्योंकि आविष्कारक ने लोहे को गर्म करके सरिया बनाने का पेटेंट ले रखा है; सरिया के प्रोडक्ट का पेटेंट उसे नहीं दिया गया है. प्रोसेस पेटेंट में दूसरी तकनीक से कोई व्यक्ति उसी माल को बना सकता है.

70 के दशक में भारत सरकार ने देश में प्रोडक्ट पेटेंट को निरस्त कर दिया. इसका अर्थ हुआ कि जो दवाएं बहुराष्ट्रीय कंपनियां बना और बेच रही थीं चूंकि उनके पास उन दवाओं के प्रोडक्ट पेटेंट थे; उन्हीं दवाओं को दूसरी तकनीक से बनाकर बेचने को भारतीय कंपनियां स्वतंत्न हो गईं. परिणाम यह हुआ कि भारतीय कंपनियों ने उन्हीं दवाओं को नई तकनीकों से बनाना शुरू किया और 1991 में तैयार दवा जिसे ‘फॉम्यरुलेशन’ कहते हैं उसमें भारतीय कंपनियों का दबदबा भारत में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व में स्थापित हो गया. साथ-साथ दवाओं को बनाने वाले कच्चे माल, जिसे ‘एक्टिव फार्मास्युटिकल इंग्रेडिएंट्स’ या एपीआई कहते हैं, उनका 99 प्रतिशत उत्पादन भारत में होने लगा और केवल एक प्रतिशत आयात किया जाने लगा.

इसके बाद 1995 में सरकार ने विश्व व्यापार संगठन के अंतर्गत प्रोडक्ट पेटेंट को पुन: लागू कर दिया. इसका परिणाम यह हुआ कि 1991 में हम जो केवल एक प्रतिशत एपीआई को आयातित करते थे, वह 2019 में बढ़कर 70 प्रतिशत आयात होने लगा. भारत इस बाजार से लगभग बाहर हो गया. ‘फॉम्यरुलेशन’ यानी तैयार दवा में कमोबेश ऐसी ही स्थिति बन गई है. पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन के शक्तिवेल सेल्वाराज की मानें तो अगले 6 वर्षो में तैयार दवा भी भारी मात्ना में आयातित होने लगेंगी और इस क्षेत्न में भी चीन का दबदबा स्थापित हो जाएगा.

इन परिस्थितियों का सामना करने के लिए सरकार ने अगले 6 वर्ष में 6,940 करोड़ रुपए दवाओं के उत्पादन की बुनियादी संरचना बनाने में निवेश करने का ऐलान किया है. 19 मेडिकल उपकरण के आयात को प्रतिबंधित कर दिया है. यह दोनों कदम सही दिशा में हैं परंतु ऊंट के मुंह में जीरा जैसे हैं.सरकार को और अधिक प्रभावी कदम उठाने होंगे. पहला यह कि दवाओं पर आयात कर बढ़ाने होंगे. यह सही है कि आयात कर बढ़ाने से हमारे देश के नागरिकों को देश में बनी महंगी दवाएं खरीदनी पड़ेंगी. लेकिन प्रश्न देश की स्वास्थ्य संप्रभुता का है. यदि कुछ समय तक सस्ती आयातित दवाएं न खरीदें और उन्हें स्वयं बनाना शुरू करें तो कुछ समय बाद हम भी सस्ती दवाएं बना लेंगे. इसलिए विषय तात्कालिक बनाम दीर्घकालीन हितों का है. 

दूसरा कदम यह कि सरकार को नई दवाओं के आविष्कार में भारी निवेश करना होगा. वर्तमान में कोविड के टीके बनाने वाली दो प्रमुख कंपनियों एस्ट्रेजेनेका और फाइजर को उनकी सरकारों ने भारी मात्ना में मदद की है और आज वे उन टीकों को हमें बेचकर बिक्र ी मूल्य का 50 प्रतिशत रॉयल्टी के रूप में हमसे वसूल कर रही हैं. इनके सामने भारत सरकार ने अपनी कोवैक्सीन बनाने वाली भारत बायोटेक को मात्न 65 करोड़ रुपए की मदद आविष्कार करने के लिए की थी. सोचिए यदि भारत सरकार ने अपनी 10-20 फार्मा कंपनियों को टीका बनाने को रकम दी होती तो आज हम विश्व के तमाम देशों को टीके का निर्यात कर भारी रकम कमा रहे होते. 

हमें मान कर चलना चाहिए कि आने वाले समय में कोविड का वायरस और भी म्यूटेट कर सकता है अथवा नए रोग पैदा हो सकते हैं इसलिए आगे की रणनीति बनानी होगी और वर्तमान में ही अपने देश में नए आविष्कार के लिए सरकार को निवेश करना होगा.तीसरा कदम दवाओं के उत्पादन के लिए जरूरी बुनियादी संरचना में निवेश का है. चौथा कदम यह कि सरकार को भारतीय कंपनियों को निवेश के लिए रकम सस्ती ब्याज दर पर ऋण अथवा सब्सिडी के रूप में देना चाहिए.

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