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राजेश बादल का ब्लॉग: कश्मीर के मामले में बड़बोलापन ठीक नहीं

By राजेश बादल | Updated: September 17, 2019 05:04 IST

ताज्जुब होता है जब लंबा सियासी अनुभव रखने वाले शिखर पुरुष इस तरह का बड़बोलापन दिखाते हैं. इससे प्रेरणा पाकर फौज के आला अफसर भी इसी तरह के बेतुके बयान देने लग जाते हैं. पाकिस्तान के बड़बोलेपन के तो कारण पता हैं, लेकिन जब हम भी वही दोहराते हैं तो अपना कद घटाते हैं.

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ठळक मुद्देजब आपको पाकिस्तान के दो टुकड़े करने थे, तो कर ही दिए थे. इस तरह गाल नहीं बजाए गए थे. आज भी अगर आपको उस नकली मुल्क को खंडित करना है तो किसने रोका है.लेकिन खंडित करने की धुन किसी बेसुरे ऑर्केस्ट्रा पर तो नहीं बजाई जा सकती.

शायद ही कोई भारतीय ऐसा होगा जो कश्मीर से अनुच्छेद 370 के विलोपन का विरोध करे. एक अस्थायी संवैधानिक प्रावधान को कभी न कभी तो समाप्त होना ही था. अलबत्ता आलोचक इसे हटाने के तरीके और उसके बाद राज्य के हालात से निपटने के ढंग की आलोचना के लिए स्वतंत्न हैं. एक महीने बाद तो यह समीक्षा होनी ही चाहिए कि कश्मीर के भविष्य के लिए अब केंद्र सरकार के पास क्या ठोस कार्य योजना है और अब तक जो कदम उठाए गए हैं, उनमें क्या सुधार होना चाहिए. भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया और सोच के दायरे में इस समीक्षा से किसी के भी असहमत होने का सवाल नहीं उठता.

असल में सवाल इसलिए उत्पन्न होता है कि बीते माह से हिंदुस्तान दो प्रत्याशित और एकदम स्वाभाविक प्रतिक्रियाओं का मुकाबला करने में ही उलझा हुआ है. एक तो यह कि भारत के इस फैसले पर पाकिस्तान किस तरह से व्यवहार करेगा और दूसरा यह कि पाकिस्तान का कोई नेटवर्क कश्मीर में सक्रिय है तो उसे राज्य में गड़बड़ी फैलाने से रोका जाना चाहिए. बताने की जरूरत नहीं कि पाकिस्तान ने अपने अधीर रवैये और बड़बोलेपन से स्वयं को अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में अलग-थलग कर लिया है. खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे की तर्ज पर प्रधानमंत्नी इमरान खान जिस अंदाज में बयान दे रहे हैं अथवा हरकतें कर रहे हैं, उनके कारण वे अपने ही देश में उपहास का केंद्र बन गए हैं. दुनिया के तमाम राष्ट्रों की समझ में यह अच्छी तरह आ गया है कि सरकार के एक साल पूरे होने पर अपनी नाकामियां छिपाने के लिए ही वहां के वजीरे आजम तमाम नौटंकियां कर रहे हैं. इस महीने के अंतिम सप्ताह में इमरान खान को एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र में अपनी खिल्ली उड़ाए जाने के लिए तैयार रहना चाहिए.

इस मामले में हिंदुस्तान भी कहीं न कहीं बयानों की उसी बोगी में सवार हो गया है, जिसमें पाकिस्तान पहले से ही बैठा है. वह परमाणु हथियारों के इस्तेमाल की धमकी देता है, घुसपैठियों को एलओसी पार करने के लिए तैयार रहने को कहता है और युद्ध में हारने पर भी खून की आखिरी बूंद तक लड़ने की ख्वाहिश दिखाता है तो हिंदुस्तान की ओर से भी उससे दोगुने आक्रोश भरे बयान भेजे जा रहे हैं. क्या सिर्फ गाल बजाकर कोई जंग लड़ी जा सकती है? जब हम यह कहते हैं कि पाकिस्तान तेरे टुकड़े- टुकड़े कर दिए जाएंगे तो क्या अपनी कूटनीतिक चतुराई की पटरी से नीचे नहीं उतर जाते? 

ताज्जुब होता है जब लंबा सियासी अनुभव रखने वाले शिखर पुरुष इस तरह का बड़बोलापन दिखाते हैं. इससे प्रेरणा पाकर फौज के आला अफसर भी इसी तरह के बेतुके बयान देने लग जाते हैं. पाकिस्तान के बड़बोलेपन के तो कारण पता हैं, लेकिन जब हम भी वही दोहराते हैं तो अपना कद घटाते हैं. जब आपको पाकिस्तान के दो टुकड़े करने थे, तो कर ही दिए थे. इस तरह गाल नहीं बजाए गए थे. आज भी अगर आपको उस नकली मुल्क को खंडित करना है तो किसने रोका है. लेकिन खंडित करने की धुन किसी बेसुरे ऑर्केस्ट्रा पर तो नहीं बजाई जा सकती. वैसे तो परमाणु हथियारों का उपयोग समूची मानवता के लिए खतरनाक है और उनका इस्तेमाल करके कोई भी सभ्य देश अपने माथे कलंक का टीका ही लगाएगा. लेकिन स्थापित सत्य है कि पाकिस्तानी फौज जैसी बर्बर मानसिकता यदि परमाणु हथियार का उपयोग करती भी है तो भारत को कोई नहीं रोक सकेगा. पर जब आप भी आक्रामक शैली में उत्तर देते हैं तो अंतर्राष्ट्रीय छवि पर उल्टा असर पड़ता है. आज हिंदुस्तान की छवि बरसों से संचित साख के आधार पर बनी है. कभी चीन या रूस को इस तरह की घुड़कियां देते सुना है? बड़े देश अपने ढंग से बर्ताव करते हैं.

बेहूदे बयानों की इस अंत्याक्षरी में भारत का उलझना उचित नहीं है. इस समय कश्मीर में जो कुछ किया जाए, वह नजर भी आना चाहिए. विडंबना है कि कश्मीर में एक महीने में युद्ध स्तर पर जैसे प्रयास होने चाहिए, वे अगर हो भी रहे हैं तो दिख नहीं रहे. बरसों से कश्मीर के सरकारी विभागों में भर्तियां रुकी हैं. विज्ञापन जारी करके नौकरी देने का काम शुरू होना चाहिए. मत भूलिए कि कश्मीर में बेरोजगारी का प्रतिशत राष्ट्रीय औसत से भी अधिक है. अगर सेना की भूमिका इतनी व्यापक है तो उसकी निगरानी में ही अपने कुछ उद्योग केंद्र सरकार शुरू कर सकती है. 

एक जमाना था, जब घड़ियां भी सरकार बनाती थी. एक सरकार टीवी सेट बनाती थी तो दूसरी सरकार स्कूटर बनाती थी. कुछ फूड प्रोसेसिंग यूनिट्स तो अब तक प्रारंभ भी हो सकती थीं. सेना सुरक्षा और सरकार राहतें दे तो फिल्मोद्योग को एक साल तक अपने कैंप कश्मीर में लगा लेना चाहिए. जितनी भी फिल्में बनें, उनकी शूटिंग से लेकर प्रोडक्शन तक कश्मीर में ही हो तो यह पर्यटन, होटल, खानपान और अन्य उद्योगों को भी बढ़ावा देगा. सेना अपना एक नया मेडिकल कॉलेज लोगों के लिए क्यों नहीं खोल सकती? हस्तशिल्प व हथकरघा उद्योग को किसी परदेसी पूंजी निवेश की दरकार नहीं है. 

सारे राज्य अगर अपने सरकारी दफ्तरों के लिए कश्मीरी प्रोडक्ट चार से छह महीने तक खरीद लें तो हजार करोड़ रुपए कश्मीरियों के खाते में जा सकते हैं. आज के कश्मीर को रोजी-रोटी व खुशहाली की तस्वीर चाहिए. अगर उसके कैनवास में हम ये रंग भर सकें तभी इस मुहावरे की सार्थकता है कि कश्मीर हमारा अभिन्न अंग है और धरती का स्वर्ग है.

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