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दुनिया में अब बजेगा आयुर्वेद का डंका, वेदप्रताप वैदिक का ब्लॉग

By वेद प्रताप वैदिक | Updated: November 16, 2020 14:17 IST

देश के गरीब, ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए मेडिकल इलाज दुर्लभ और बहुत महंगा पड़ता है. इसके अलावा मेडिकल की पढ़ाई भी बेहद महंगी है. उसी में छात्न इतने ठगे जाते हैं कि वे उस पैसे को बाद में अपने मरीजों से कई गुना करके वसूलते हैं.

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ठळक मुद्दे विश्व केंद्र में अन्य पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों की शाखाएं भी खुलेंगी. इस समय देश में 5 लाख वैद्य हैं और 10 लाख एलोपैथिक डॉक्टर हैं. वैज्ञानिक और यांत्रिक जांच और तत्काल उपचार की जैसी सुविधाएं हैं, वैसी हमारी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में नहीं हैं.एलोपैथी के डॉक्टरों को सौ साल पहले तक मरीजों को ठीक से बेहोश करना भी नहीं आता था.

कुछ दिन पहले भारत को विश्व स्वास्थ्य संगठन का अध्यक्ष चुना ही गया था, अब उससे भी बड़ी और अच्छी खबर आई है. वह यह है कि यह संगठन आयुर्वेद का एक विश्व केंद्र भारत में स्थापित करेगा.

इस विश्व केंद्र में अन्य पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों की शाखाएं भी खुलेंगी. इस समय देश में 5 लाख वैद्य हैं और 10 लाख एलोपैथिक डॉक्टर हैं. लेकिन आज भी देश के लगभग 80 प्रतिशत लोगों का इलाज वैद्य, हकीम और घरेलू चिकित्सक ही करते हैं, क्योंकि देश के गरीब, ग्रामीण और दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए मेडिकल इलाज दुर्लभ और बहुत महंगा पड़ता है. इसके अलावा मेडिकल की पढ़ाई भी बेहद महंगी है. उसी में छात्न इतने ठगे जाते हैं कि वे उस पैसे को बाद में अपने मरीजों से कई गुना करके वसूलते हैं.

इसके बावजूद डॉक्टरों की संख्या देश में बढ़ती जा रही है, इसका एक बड़ा कारण तो हमारी दिमागी गुलामी है और दूसरा कारण, जो कि ठीक है, वह यह कि एलोपैथी में वैज्ञानिक और यांत्रिक जांच और तत्काल उपचार की जैसी सुविधाएं हैं, वैसी हमारी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों में नहीं हैं. वैसे भारतीय आयुर्वेद का इतिहास अत्यंत समृद्ध और प्राचीन है. एलोपैथी के डॉक्टरों को सौ साल पहले तक मरीजों को ठीक से बेहोश करना भी नहीं आता था.

प्रथम विश्वयुद्ध (1914-19) के सैनिकों की शल्य-चिकित्सा उन्हें रस्सियों से बंधवाकर की जाती थी जबकि भारत में दो हजार साल पहले भी रोगियों को संज्ञाहीन करने की पद्धति उपलब्ध थी. मैंने स्वयं ऐसे चित्न देखे हैं, जिनमें भारतीय वैद्य इंडोनेशियाई रोगियों की खोपड़ी खोलकर शल्यक्रिया कर रहे हैं. आयुर्वेद रोग के लक्षणों की नहीं, उसके मूल कारणों की, कुछ अंगों की नहीं, पूरे शरीर की चिकित्सा करता है. रोगी का मन भी उसके दायरे में होता है.

इसीलिए आयुर्वेद औषधि के साथ-साथ आहार-विहार पर भी उतना ही जोर देता है. उसमें नाड़ी-परीक्षण की इतनी गजब की व्यवस्था है कि उसके मुकाबले का कोई यंत्न आज तक पश्चिमी दुनिया ईजाद नहीं कर सकी है. जामनगर और जयपुर के आयुर्वेद विश्वविद्यालय उच्च कोटि के अनुसंधान में लगे हुए हैं. भारत में कोरोना पश्चिमी राष्ट्रों के मुकाबले इतना कम क्यों फैला है? उसका बड़ा श्रेय आयुर्वेद को भी है. यदि वर्तमान सरकार अपने संकल्प को साकार कर सकेगी तो निश्चय ही भारत सारे विश्व का रोग निवारण केंद्र बन सकता है.

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