assembly elections 2024-25: महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद लगभग ढाई माह का समय बीत चुका है. नई सरकार बन गई है. सत्ताधारियों के आपसी गिले-शिकवे दूर हो गए हैं. पालकमंत्री नियुक्ति हो चुके हैं. राज्य सरकार काम करने लगी है. मुख्यमंत्री विदेश जाकर निवेश लेकर आ गए हैं. राज्यभर में जिला योजना एवं विकास समिति की बैठकों का दौर आरंभ हो चुका है. मगर विपक्ष अभी तक चुनावी हार स्वीकार करने का मन नहीं बना पाया है. वह अपना गम छुपाने के लिए दूसरे की खुशी में कुछ कमी देख रहा है.
वह नतीजों की असलियत से अनजान और उनकी गहन समीक्षा से बचकर चुनाव प्रक्रिया पर ही तरह-तरह के सवाल खड़े कर अपना कॉलर ऊंचा कर रहा है. चुनाव आयोग से मनमर्जी का जवाब नहीं मिलने पर अब उसने अदालत की चौखट पर दरख्वास्त लगाई है, लेकिन संगठनात्मक तौर पर पराजय के कारणों की समीक्षा और हार की जवाबदेही कोई तय नहीं कर रहा है.
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे ने गुरुवार को अपनी एक रैली में उपहासात्मक ढंग से राज्य के महागठबंधन की जीत पर सवाल उठाया. उनका कहना था कि जब जीत इतनी बड़ी है तो इतना सन्नाटा क्यों है? चुनाव परिणामों की घोषणा के ढाई माह बाद उनका प्रश्न सही ही कहा जा सकता है, क्योंकि नतीजों के आने के बाद उनकी पार्टी से भी यह सवाल पूछा जा सकता था.
वह इस बात को लेकर परेशान हैं कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी(अजित पवार) गुट की चार या पांच सीटें जीतने की आशा थी और उनकी 41 सीटें कहां से आ गईं. वहीं राकांपा शरद पवार गुट से दस विधायक निर्वाचित हुए, जबकि उनके आठ सांसद हैं और अजित पवार का एक सांसद लोकसभा में है. राज ठाकरे ने कहा कि राज्य से लोकसभा में कांग्रेस के सांसद सबसे अधिक 13 हैं.
एक सांसद के निर्वाचन क्षेत्र में पांच से छह विधायक होते हैं, लेकिन उनके केवल 15 प्रत्याशी जीते हैं. चार महीनों में लोगों का मन इतना बदल गया. मगर वह यह मानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी की 132 सीटें आना आश्चर्यजनक नहीं है. वह इस बात को समझा नहीं पा रहे हैं कि मनसे 18 साल में शून्य पर कैसे सिमट गई? उसे सिर्फ 1.55 फीसदी वोट क्यों मिले?
हालांकि चुनाव 128 सीटों पर लड़ा गया था. विदित हो कि मनसे ने 2009 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 13 विधानसभा सीटें जीती थीं. उसके बाद वर्ष 2014 में 219 सीटों पर चुनाव में उतरने पर एक और 2019 में 101 सीटें लड़ने पर एक ही सीट मिली. ऐसे में परिणामों को चमत्कार मानकर चौंकने की बजाय परिस्थिति के पीछे आवश्यक संगठनात्मक क्षमता पर विचार किया जाए.
उधर, महाविकास आघाड़ी के सौ पराजित उम्मीदवारों ने मतदाता सूची के मुद्दों को लेकर विभिन्न अदालतों में याचिका दायर की है. उनका मानना है कि मतदाता सूचियों में विसंगतियां एक गंभीर चिंता का विषय हैं और चुनावी प्रक्रिया में मतदाताओं का विश्वास बनाए रखने के लिए इनका समाधान किया जाना चाहिए.
उनका दावा है कि वर्ष 2019 और 2024 के लोकसभा चुनावों के बीच पांच साल में महाराष्ट्र के मतदाताओं की संख्या में 32 लाख बढ़ी, जबकि छह महीनों में विधानसभा चुनाव के समय 48 लाख मतदाता बढ़ गए. चुनाव आयोग ने महाराष्ट्र में 9.7 करोड़ मतदाताओं की रिपोर्ट दी है, जबकि स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार वयस्क आबादी 9.54 करोड़ है.
इसके अलावा पांच उम्मीदवारों ने उच्च न्यायालय और कुछ ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया है. इससे स्पष्ट है कि परिणामों के ढाई माह बाद भी कोई दल पराजय मानने के लिए तैयार नहीं है. इस परिदृश्य में पिछले चुनावों पर गौर किया जाए तो वर्ष 2019 में कांग्रेस के पास 16.1 प्रतिशत मतों के साथ 44 और राकांपा के पास 16.9 प्रतिशत मतों के साथ 54 सीटें थीं.
इसी प्रकार 16.6 प्रतिशत मतों के साथ अविभाजित शिवसेना की सीटों की संख्या 56 थी. ताजा चुनाव में शिवसेना के दोनों घटकों के मतों को जोड़ा जाए तो आंकड़ा 22.5 प्रतिशत तक पहुंचता है और कुल सीटें 77 हो जाती हैं. वहीं राकांपा के दोनों घटकों को जोड़ा जाए तो उनकी सीटें 51 और मत 20.5 प्रतिशत हो जाते हैं. कांग्रेस 12.5 प्रतिशत मतों के साथ 16 स्थानों पर सिमट जाती है.
इस दृष्टिकोण में केवल कांग्रेस ही बड़े नुकसान में रही और शिवसेना फायदे में दिखी. राकांपा और भाजपा अधिक लाभ-हानि में नहीं रहे. फिर इतना शोर, विलाप शायद लोकसभा चुनाव से बंधी आशा के टूटने का है, जिसका समाधान भी दु:खड़ा रोने वालों के पास है. इसी माहौल के बीच राकांपा(शरद पवार गुट) सांसद सुप्रिया सुले मानती हैं कि वह चार बार ईवीएम के माध्यम से हुए चुनाव से निर्वाचित हुईं तो वह कैसे गड़बड़ी की बात कर सकती हैं. मगर वह कहती हैं कि मतदाता सूची पर बहुत सारे सवाल हैं, इसलिए ईवीएम हो या ‘बैलेट पेपर’, सभी में पारदर्शिता लाई जाए.
अब पराजय के बाद समस्या यही है कि उसे पचाया कैसे जाए? राकांपा(शरद पवार गुट) की सांसद सुले यदि हार-जीत की चर्चा से बाहर निकलने की बात करती हैं तो उन्हें विपक्ष का साथ देते हुए ‘बैलेट पेपर’ पर हां में हां मिलानी पड़ती है. किंतु वास्तविकता यह है कि चुनाव सम्पन्न हो चुके हैं. आयोग 288 निर्वाचन क्षेत्रों में 1,440 वीवीपैट का सत्यापन कर चुका है.
वह केवल छह विधानसभा क्षेत्रों में 50,000 से अधिक मतदाताओं की संख्या बढ़ने की बात स्वीकार कर चुका है. इन सब तकनीकी समस्याओं के हल के बावजूद बड़ी हार पर कोई ढाढस दिलाने वाला नहीं है. चुनावों में बड़ी हार व बड़ी जीत दोनों के उदाहरण मिलते हैं, लेकिन स्वस्थ लोकतंत्र जनमत को सर्वोपरि मानता है. फिर चाहे वह अपेक्षाओं के अनुरूप या उम्मीदों को खिलाफ हो. फिलहाल अपना गम भुलाने के लिए दूसरे की खुशियों में कुछ कमी ढूंढी जा रही है.