Assembly elections 2022: उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्य में विधानसभा चुनाव, दलित राजनीति गायब 

By डॉ उदित राज | Published: February 7, 2022 09:11 PM2022-02-07T21:11:49+5:302022-02-07T21:14:16+5:30

Assembly elections 2022: उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में चुनाव हो रहा है। बसपा प्रमुख मायावती अकेले चुनाव लड़ रही हैं।

Assembly elections 2022 uttar pradesh punjab goa manipur uttarakhand Dalit politics missing BR Ambedkar bsp kanshi ram mayawati | Assembly elections 2022: उत्तर प्रदेश सहित 5 राज्य में विधानसभा चुनाव, दलित राजनीति गायब 

बहुजन आंदोलन से जितना बहुजनों को क्षति पहुंची उतना किसी अन्य से नहीं। 

Highlights2017 में उप्र के चुनाव में बीजेपी से सीटों की सौदेबाजी कर ली।2017 में भाजपा का प्रचार सटीक निशाने लगा।दलित राजनीति का प्रभाव बहुत कम हो गया है।

Assembly elections 2022: उत्तर प्रदेश में चुनाव चरम पर है। परन्तु दलित राजनीति  चर्चा से गायब सी है। दलित राजनीति का आरम्भ हम डॉ बी आर अंबेडकर द्वारा 1936 में स्थापित इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी से मान सकते हैं।

 1937 में मुंबई की सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली की 14 सीट जीत सके। कहा जाए तो अच्छी सफलता मिली। उसके बाद 1942 में शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन बनाया और मार्च 1946 में जब बम्बई प्रांतीय परिषद् का चुनाव हुआ तो असफल रहे। वहां से संविधान सभा में चुनकर आना असंभव था।

जब संविधान सभा में प्रवेश का रास्ता बंद हो गया, तब जोगेंद्र नाथ मंडल के आमंत्रण पर ईस्ट बंगाल, जो इस समय बांग्लादेश में है, से चुनकर आ सके। बिना मुस्लिम लीग के समर्थन के जीतना संभव नहीं था। दलित-मुस्लिम एकता की पहचान यहीं से मिली।

डॉ अम्बेडकर 1952 में बम्बई से चुनाव लड़े और जीत न सके। फिर 1954 में भंडारा से चुनकर लोकसभा में पहुंचने की कोशिश किया पर कामयाबी नहीं मिली। रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना किया, लेकिन जब तक सफलता मिलती तब तक परिनिर्वाण हो गया। 

उनके बाद रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया का विस्तार हुआ जरूर, लेकिन टुकड़ों में बटती गई। पश्चिमी उप्र में बीपी मौर्य व संघप्रिय गौतम के नेतृत्व में आरपीआई ने शुरुआती दौर में अच्छी सफलता पाई लेकिन वह बहुत दिनों तक रह न सकी। 1960 में महाराष्ट्र से काशीराम जी ने आंदोलन की शुरुआत किया।

महाराष्ट्र  में अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिली, क्योंकि वहां टांग खिचाई बहुत ज्यादा ही थी। कर्मचारियों -अधिकारियों को माध्यम बनाकर बहुजन आन्दोलन की शुरुआत की। 1980-90 के दशक तक अच्छी संख्या में दलित कर्मचारी और अधिकारी एकजुट हो गए। इनके पास सोच, अर्थ और समय था, जो आंदोलन के रीढ़ बन गए।

सबसे पहले कांग्रेस की आलोचना किया कि यह सवर्णों की पार्टी है और जो भी दलित इसमें  हैं वो सब चमचे हैं। जगजीवन राम जी को खलनायक के रूप में पेश किया। जोर- शोर से प्रचार किया कि कांग्रेस ने डॉ. अम्बेडकर को चुनाव में हराकर अपमानित किया। दलितों और पिछड़ों को एकजुट करने के लिए कांग्रेस से आगे बढ़कर कोई नया विकास और भागीदारी का नक्शा नहीं रखा।

लोगों को एकजुट करने के लिऐ एक दुश्मन  चाहिए और यहां तो दो दुश्मन- कांग्रेस और समूचा सवर्ण समाज को पेश कर दिया। शोषित को और क्या चाहिए की इनसे बदला लेने की आग जला दो। इससे तुष्ट होकर दुश्मन को खत्म करने का बीड़ा उठा लिया चाहे उन्हे कुछ न मिले। वर्तमान में बीजेपी मुसलमानों को दुश्मन को पेश करके बहुत सारे हिंदुओं को एकजुट करने में कामयाब है।

हिन्दूओं को मिलना कुछ नहीं है। “तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार” के  नारे ने खूब एकजुट किया। धार और तेज कर दिया कि हमे सत्ता से नीचे कुछ लेना नहीं है और वर्तमान में जो भी भागीदारी मिली है वो तो भीख समान है। बहुजनों को तो देने वाला बनना चाहिए।

कांग्रेस के द्वारा किये गए सभी कल्याणकारी कार्य जैसे भूमिहीनों  को भूमि, आरक्षण लागू करना, कोटा, अनुसूचित जाति / जन जाति अत्याचार निवारण अधिनियम, मुफ्त शिक्षा, स्पेशल कॉम्पोनेन्ट प्लान, ट्राइबल सब्प्लान आदि महत्वहीन हो गए। उत्पीड़न के सवाल को भी टाल गए कि जब अपनी सत्ता आएगी तो बदला एक साथ ही ले लिया जायेगा।

जाता हुआ आरक्षण और निजीकरण का जैसे कि स्वागत किया कि इसे जाने दो, लड़ने कि जरूरत नहीं है और हम तो देने वाले बनना चाहते हैं। परिणाम अब तक बहुत क्षति हो चुकी है और सत्ता प्राप्ति सपना ही देख रहे हैं न कि आंदोलन करें और जिस पार्टी ने उत्थान किया उसका साथ दें। संविधान और आरक्षण खत्म करने वालों का विरोध न करके जिसने दिया और आगे देने की क्षमता है उनको निशाने पर रखे हैं।

वोट छिटक न जाए इसलिए लगातार हमला करते रहने की रणनीति पर अब भी चल रहे हैं। बहुजन आंदोलन से जितना बहुजनों को क्षति पहुंची उतना किसी अन्य से नहीं। कांग्रेस की कल्याणकारी नीतियों की पार्टी है। इसका वोट काट कर किसका साथ दिया ? राम लहर में जा हारे वो आज कैसे इतने मजबूत हुए? 16% दलित क्या अकेले सत्ता कब्जा कर सकते हैं? 

पिछड़ों ने साथ बीजेपी का दिया जो मंडल का विरोध किए और अभी भी दे रहे हैं। 16 % में भयंकर जातिवाद पैदा कर दिया जो कि पहले इतना नहीं था। नेतृत्व ने कहा सब अपनी जाति को संगठित करें और जब कर लिया तो संख्या के हिसाब से भागेदारी नहीं मिली जो वादा किया था। मंच पर लगने लगी एक कुर्सी।

यह देखकर तमाम जातियां निकलकर अपने संगठन खड़ा कर लिए और 2017 में उप्र के चुनाव में बीजेपी से सीटों की  सौदेबाजी कर ली और परिणाम सामने है । कोई सामाजिक सुधार का मुद्दा रहा नहीं जैसे कि जाति निषेध और शासन - प्रशासन में भागेदारी। लोग गुमराह  रहे कि बहुजन समाज पार्टी डॉ अम्बेडकर व सामाजिक न्याय के विचारों की है, लेकिन था इसके विपरीत।

डॉ अम्बेडकर जाति विहीन समाज के लिए लड़े और बौद्ध धर्म अपनाया। 1998  में मलेशिया कि राजधानी कुआलालम्पुर में एक दलित सम्मेलन में कांशीराम जी ने कहा था कि भारत में इतना ज्यादा जातियों का  संगठन खड़ा कर दूंगा कि सवर्ण परेशान हो जायेंगे, लेकिन हो रहा है इसके उल्टा ही।

इस सम्मेलन में मैं उपस्थित था। 2017 में भाजपा का प्रचार सटीक निशाने लगा  कि बसपा एक विशेष जाति की पार्टी है और दूसरी जातियों का वोट लेने में सफल रही। यही कारण है कि आज दलित राजनीति का प्रभाव बहुत कम हो गया है। चले थे उद्धार करने और हो गया कुछ और।

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