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असम NRC: दो देशों के नेताओं ने मिलकर 40 लाख लोगों को फ़ुटबॉल बना दिया है

By अभय कुमार दुबे | Updated: August 8, 2018 11:18 IST

असम की राष्ट्रीय नागरिक पंजिका का पहला मसविदा जनवरी में प्रकाशित हुआ था. उस समय 3.29 करोड़ प्रार्थियों में से केवल 1.90 करोड़ प्रार्थी ही इसमें शामिल किए जा चुके थे. अब दूसरा मसविदा प्रकाशित हुआ है. इसके आधार पर चालीस लाख लोग ऐसे बचे हैं जिनके द्वारा पेश किए गए नागरिकता के दस्तावेज अस्वीकार कर दिए गए हैं.

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असम में नागरिकों की राष्ट्रीय पंजिका (एनआरसी) का प्रकाशन होते ही जो राजनीतिक तूफान आया है, उसके शोरगुल ने उस नीतिगत उलझन को छिपा दिया है जिसका सामना भारत के लोकतंत्र को जल्दी ही करना पड़ेगा. यह नीतिगत उलझन है लाखों ‘राज्यविहीन’ लोगों की हैसियत और अधिकारों के बारे में फैसला करना. एनआरसी के कारण लाखों लोग राज्यविहीन होने वाले हैं, और खास बात यह है कि ये राज्यविहीन लोग शरणार्थी की तकनीकी श्रेणी में नहीं आते.

भारत सरकार को अपनी सीमाओं में रहने वाले हर व्यक्ति के बारे में यह तय करना ही होगा कि वह नागरिक है, सीमित अधिकारों वाला नागरिक   है, विदेशी है, शरणार्थी या राज्यविहीन है. उलझन यह भी है कि भारत सरकार इन राज्यविहीन लोगों को बांग्लादेश समेत किसी भी अन्य देश में उस समय तक नहीं भेज पाएगी जब तक वह देश उसे लेना स्वीकार न करे.

बांग्लादेश ने आज तक कभी नहीं माना कि जिन्हें भारत में बांग्लादेशी कहा जाता है, वे उसके नागरिक हैं. इसी पेचीदगी के बीच अंतर्राष्ट्रीय समुदाय के सामने अपनी जवाबदेही पूरी  करने के लिए भारत को इस नई राज्यविहीनता की श्रेणी के लिए अधिकारों, सुविधाओं और समुचित स्थान की शिनाख्त करनी होगी. कितनी अजीब बात है कि एक-दो मीडिया मंचों को छोड़ कर कहीं भी न इस प्रश्न को प्रमुखता मिल रही है, न ही इसे एक गंभीर समस्या के रूप में पहचाना जा रहा है.

एनआरसी से निकलने वाली राज्यविहीनता का व्यावहारिक मतलब यह है कि तमाम कवायद के बाद चालीस लाख लोगों में ऐसे लाखों लोग बच जाएंगे जो न तो भारत के नागरिक होंगे, और न ही बांग्लादेश उन्हें अपना नागरिक मानेगा. इसलिए उन्हें भारत में ही रहना होगा. उनके पास वोटिंग के अधिकार नहीं होंगे, और न ही उन्हें तिब्बत, श्रीलंका और पश्चिमी पाकिस्तान के शरणाíथयों को मिलने वाली सुविधाएं दी जा सकेंगी. 

एक बार इस समस्या पर विचार कर लिया जाए तो फिर एनआरसी से जुड़ी राजनीति पर भी गौर किया जा सकता है. भारत विभाजन के बाद से ही उत्तर-पूर्व का सबसे बड़ा राज्य असम नवगठित पूर्वी पाकिस्तान (इससे पहले पूर्वी बंगाल) से सीमा पार कर आने वाले लोगों या बहिरागतों की समस्या से परेशान रहा है. इसीलिए 1951 में ही केवल इस प्रांत को नागरिकों की राष्ट्रीय पंजिका बनाने की इजाजत दे दी गई थी.

इस दस्तावेज का पहला मसविदा 1951 की जनगणना के हिसाब से तैयार किया गया था. 1971 में जब पाकिस्तान से अलग हो कर पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बना तो इस समस्या ने और विकराल रूप ग्रहण कर लिया. बहिरागतों के विरोध में असमियों द्वारा जबरदस्त आंदोलन करना, 1982 का विधानसभा चुनाव और उसका असमी जनता द्वारा ऐतिहासिक बायकॉट करना, इसके बाद अपनी मां की हत्या के बाद प्रधानमंत्री बने राजीव गांधी द्वारा 1985 में अखिल असम छात्र संघ के नेतृत्व के साथ समझौते पर दस्तखत करना, इसके परिणामस्वरूप 24 मार्च, 1971 की तारीख तय होना-- अब इतिहास के तथ्य बन चुके हैं.

1951 की पंजिका के मसविदे में शामिल लोगों को छोड़ कर असम के सभी लोगों को साबित करना था कि वे इस तारीख को या इससे पहले असम के नागरिक थे. यहां तक कि 1951 में नागरिक साबित हो चुके लोगों के वंशजों को भी अपनी नागरिकता साबित करने के लिए संबंधित दस्तावेज पेश  करने थे.

सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में इस पंजिका का पहला मसविदा जनवरी में प्रकाशित हुआ था. उस समय 3.29 करोड़ प्रार्थियों में से केवल 1.90 करोड़ प्रार्थी ही इसमें शामिल किए जा चुके थे. यह एक बेहद अपर्याप्त कवायद थी. अब दूसरा मसविदा प्रकाशित हुआ है. इसके आधार पर चालीस लाख लोग ऐसे बचे हैं जिनके द्वारा पेश किए गए नागरिकता के दस्तावेज अस्वीकार कर दिए गए हैं.

पेचीदगी यह है कि इनमें डेढ़ लाख वे लोग हैं जिनके नाम जनवरी के मसविदे में मौजूद थे. वे भौंचक्के हैं कि एक बार स्वीकार किए गए उनके दस्तावेज दूसरी बार क्यों अस्वीकार कर दिए गए. इन चालीस लाख लोगों में ज्यादातर मुसलमान हैं, पर हिंदुओं की भारी संख्या भी इनमें शामिल है.

जाहिर है कि पंजिका बनाने वाले कर्मचारियों और अधिकारियों ने मोटे तौर पर निष्पक्षता से काम किया है. उनके द्वारा चलाई गई प्रक्रिया को किसी भी तरह से सांप्रदायिक या धर्माधारित नहीं कहा जा सकता. हां, इस प्रक्रिया में विसंगतियां हैं जिन्हें दुरुस्त किया जाना जरूरी है, वर्ना यह कवायद एक अमानवीय और क्रूर किस्म का मजाक बन जाएगी. 

यहां ध्यान रखने वाली बात यह भी है कि 1964 के बाद असम में बने और सक्रिय रहे विदेशी पंचाटों (फॉरेनर्स ट्रि्ब्यूनल्स) ने कोई नब्बे हजार ऐसे लोगों की शिनाख्त की है जो ‘विदेशी’ हैं. इनमें से बहुत से मर चुके हैं, और बाकी लापता हैं. केवल 899 घोषित विदेशी या संदिग्ध मतदाता नजरबंदी शिविरों में बंद किए जा सके हैं.

कुल मिलाकर 29,738 लोगों को दूसरे देशों में भेजा गया है, लेकिन इनमें से ज्यादातर वे हैं जिन्हें भारतीय अदालतें अपराधों में सजा दे चुकी हैं और इनमें से ‘विदेशी’ घोषित किए गए लोगों की संख्या न के बराबर है. यानी पंजिका में शामिल न किए जाने वाले चालीस लाख लोगों में से किसी को इस ‘विदेशी’ श्रेणी में नहीं गिना जा सकता.

वजह सीधी है. ये सभी तो अपने दस्तावेज लिए हुए घूम रहे हैं. हम देख चुके हैं कि इनमें से डेढ़ लाख के दस्तावेज तो एक बार जनवरी के मसविदे में स्वीकार तक किए जा चुके हैं. 

मतलब साफ है. पंजिका में नाम हो या न हो, सभी को भारत में ही रहना होगा. या तो वे नागरिक होंगे या नहीं होंगे. नागरिक न होने की सूरत में वे या तो शरणार्थी होंगे या राज्यविहीन. यहां तक कि अगर उन्हें विदेशी घोषित कर दिया जाए तो भी ‘लापता’ सूरत में भारत में ही बने रहेंगे. अगर लापता का पता लगा लिया गया तो भी उन्हें नजरबंदी कैंपों में रखना होगा.

अरुण शौरी जब अटल बिहारी सरकार में मंत्री थे, तो उन्होंने दिल्ली के बांग्लादेशियों के बारे में कहा था कि भले ही खून की नदियां बह जाएं— इन घुसपैठियों को जाना ही होगा. शौरी छह साल तक मंत्री रहे, लेकिन एक भी कथित बांग्लादेशी वापस नहीं भेजा जा सका.

प्रश्न यह है कि जब वास्तविक स्थिति ऐसी है तो फिर नागरिक पंजिका के इर्दगिर्द होने वाली राजनीति को किस निगाह से देखा जाना चाहिए? यह राजनीति वोट हासिल करने के निकृष्ट हथकंडों के अलावा कुछ नहीं है. अगर कोई सोचता है कि देश की समस्याओं की जिम्मेदारी इन बहिरागतों पर डालने की तरकीब काम आ जाएगी, और अगर कोई सोचता है कि बहिरागतों को बंगाली या हिंदू या मुसलमान बता कर राजनीतिक लाभ उठाया जा सकता है तो वह गलतफहमी में है.

यह केवल बयानबाजी की राजनीति है. जब तक भारत सरकार ठोस रूप से कथित घुसपैठियों को देश से निकालने की कार्रवाई नहीं करती, तब तक यह प्रश्न असली राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पाएगा. और, ऐसी किसी कार्रवाई की नौबत कभी नहीं आएगी. भारत सरकार किसी को भी (चाहे वह किसी भी श्रेणी में आता हो) इस मुल्क की सीमाओं से बाहर भेजने की स्थिति में नहीं है.

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