अभय कुमार दुबे का ब्लॉगः एक और निर्भया कांड और ‘उपयोगी’ मुठभेड़
By अभय कुमार दुबे | Published: December 12, 2019 07:16 AM2019-12-12T07:16:30+5:302019-12-12T07:16:30+5:30
अगर हैदराबाद पुलिस ने यह ‘मुठभेड़’ करने का पराक्रम न किया होता तो देश भर में जुलूसों, मध्यवर्गीय आक्रोश, उस पर होने वाले टीवी कार्यक्रमों, अखबारी लेखनों, नागरिक समाज की गतिविधियों और उसके परिणामस्वरूप पैदा होने वाले असंतोष और क्षोभ की बाढ़ आ सकती थी.
शायद ही कभी हमारे देश की संपूर्ण व्यवस्था, सभी राज्य सरकारों और केंद्र सरकार ने मिल कर इस तरह एक तीर से कई शिकार किए हों. हैदराबाद में बलात्कार और हत्या के चार आरोपियों का जैसे ही ‘पुलिस मुठभेड़’ में सफाया किया गया, वैसे ही राजनीतिक और प्रशासनिक निजाम के खिलाफ देश भर में भड़क रहा गुस्सा तकरीबन ठंडा हो गया. जो पुलिस वाले खलनायकों की तरह देखे जा रहे थे, उन पर फूलों की वर्षा होने लगी.
सभी तरह की सरकारों और सभी तरह की राजनीतिक विचारधारा वाली पार्टियों ने भी ठंडी सांस ली, क्योंकि अब न तो दरिंदगी की शिकार वह युवती बची, और न ही उस अपराध के शक में गिरफ्तार अभियुक्त. पुलिस को अब न तो सबूत जमा करने पड़ेंगे, न चार्जशीट दाखिल करनी होगी, न ही आरोपियों को सजा दिलाने की जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी. अगर ऐसा न होता तो क्या होता?
दरअसल, अगर हैदराबाद पुलिस ने यह ‘मुठभेड़’ करने का पराक्रम न किया होता तो देश भर में जुलूसों, मध्यवर्गीय आक्रोश, उस पर होने वाले टीवी कार्यक्रमों, अखबारी लेखनों, नागरिक समाज की गतिविधियों और उसके परिणामस्वरूप पैदा होने वाले असंतोष और क्षोभ की बाढ़ आ सकती थी. सार्वजनिक जीवन में यह पूरी तरह गैर-राजनीतिक हस्तक्षेप होता, जो महंगाई, बेरोजगारी और आर्थिक संकट के साथ मिल कर एक ऐसा ‘ट्रिगर पॉइंट’ बन सकता था जिसके गर्भ से नई राजनीतिक शक्तियों का जन्म हो सकता था. ठीक वैसी परिस्थिति बन सकती थी जैसी 2011-12 के दौरान बनी थी जब भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन चल रहा था.
उस आंदोलन ने एक ऐसी आवाज बुलंद की थी, जो पूरी की पूरी व्यवस्था के नैतिक औचित्य पर सवालिया निशान लगाती थी. उस आवाज का कहना था कि ‘सब चोर हैं’. बात अतिशयोक्तिपूर्ण थी, लेकिन उसमें लोकतांत्रिक व्यवस्था में रैडिकल सुधारों की गुंजाइश थी. हैदराबाद में हुए बलात्कार और हत्या के खिलाफ जनता का आवेश ऊंची आवाज में कह सकता था कि स्त्री की असुरक्षा के मामले में सभी सह-अपराधी हैं. निर्भया कांड के बाद बने कोष का नब्बे फीसदी हिस्सा बिना किसी इस्तेमाल के पड़ा हुआ है, और देश के सभी कोनों में स्त्रियों को हर पल एक और निर्भया बनने का अंदेशा सता रहा है. न सड़कों पर रोशनी है, न हेल्पलाइन का नंबर एक्टिवेट है, और न ही सीसीटीवी कैमरे लगे हुए हैं. न ही पुलिस को ‘जेंडर संवेदनशीलता’ की कोई ट्रेनिंग दी गई है. सब कुछ इस तरह चल रहा है कि जैसे कोई निर्भया कांड कभी हुआ ही न हो.
दरअसल, हैदराबाद में हुआ कांड निर्भया कांड से भी संगीन है. इसने भारतीय समाज और राज्यतंत्र के उस फोड़े को कुरेद दिया है जिसे ‘मुठभेड़’ कहा जाता है. यह ‘मुठभेड़’ असली थी या फर्जी, यह तो न्यायिक जांच तय करेगी, लेकिन मुख्यमंत्री स्तर के नेताओं, सांसदों और समाज की बड़ी-बड़ी हस्तियों से लेकर ऊंचे-ऊंचे दरवाजों के पीछे रहने वाले खुशहाल लोगों की दुनिया ने जिस अंदाज में उत्सवधर्मिता दिखाई है, उसने समाज और राज्य की दशा और दिशा तय कर दी है. इससे पहले भी ऐसी असंख्य ‘मुठभेड़ें’ हुई हैं, और समाज ने उनका समर्थन भी किया है, लेकिन इसकी प्रतिक्रिया में हुई उत्सवधर्मिता पहली बार देखी गई है. मुझे अपने बचपन की एक घटना याद है.
सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में खेत में छिपे एक कुख्यात डाकू और उसके दस-बारह साल के भतीजे को पुलिस ने एक ऐसी ही ‘मुठभेड़’ में मार गिराया था. जब पुलिस वाले पत्रकारों को अपना यह ‘पराक्रम’ दिखा कर उस पर समाज की मुहर लगवाने ले गए, तो एक पत्रकार ने पुलिस के विवरण की प्रामाणिकता पर शक करते हुए उसे तर्क की कसौटी पर कसना शुरू किया. नतीजा क्या निकला? उस पत्रकार को अकेला रह जाना पड़ा. कुछ इंसाफपसंद वकीलों को छोड़ कर किसी ने उसका साथ नहीं दिया. उसे छह महीने तक अकेले संघर्ष करना पड़ा. जिला प्रशासन ने उसके स्थानीय अखबार के विज्ञापन बंद कर दिए. अगर हाईकोर्ट से राहत न मिलती, और उस पत्रकार के पास अपना स्वतंत्रता सेनानी और राजनीतिक अतीत न होता, तो उसे बर्बादी और जिल्लत के अलावा कुछ न मिलता. आज के दिन तो ऐसे किसी पत्रकार या सामाजिक कार्यकर्ता के अकेले पड़ जाने का खतरा और भी ज्यादा हो गया है.
ध्यान रहे कि अगर इटावा में उस पत्रकार की बात सुनी गई होती, तो उत्तर प्रदेश में ‘दस्यु उन्मूलन’ की वह भीषण मुहिम न चलती जिसने तत्कालीन वी.पी. सिंह सरकार की बलि ले ली थी, और पूरा का पूरा विपक्ष एमनेस्टी इंटरनेशनल को खत लिखने पर आमादा न हो गया होता. अगर कोई अनुसंधानकर्ता ऐसी ‘मुठभेड़ों’ की सूची बनाए, तो वह मरणांतक रूप से लंबी होगी.
चाहे इटावा के खेत हों, चाहे माओवाद से पीड़ित जंगल और पहाड़ हों, चाहे आतंकवाद से आक्रांत कश्मीर हो, चाहे पंजाब का आतंकवाद हो, भारतीय राज्य के खिलाफ लड़ने वाले उत्तर-पूर्व के सशस्त्र समूह हों, या वैश्विक आतंकवाद हो, भारतीय राज्य के पास उनसे निबटने के लिए इसी तरह की ‘मुठभेड़ें’ हैं. हैदराबाद की घटना ने राज्य और व्यवस्था के लिए इस तरह की मुठभेड़ों की ‘उपयोगिता’ एक बार फिर साबित कर दी है. एक ‘मुठभेड़’ और समस्या हल. सब लोग खुश, और लोकतंत्र अपनी गति से जारी. उत्सवधर्मिता बताती है कि अब हमें ऐसी और अधिक ‘मुठभेड़ों’ के लिए तैयार रहना होगा.