लाइव न्यूज़ :

अमिताभ श्रीवास्तव का ब्लॉगः बाबासाहब का नाम देकर भी दरकिनार ही हुए

By Amitabh Shrivastava | Updated: January 14, 2022 13:45 IST

औरंगाबाद और मराठवाड़ा डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की कर्मभूमि के रूप में जाना जाता है। यहीं उन्होंने पीपल्स एजुकेशन सोसायटी नामक संस्था की स्थापना के साथ शिक्षा को बढ़ावा देने का प्रयास किया था।

Open in App

पिछले करीब 28 साल से आज ही का दिन, 14 जनवरी महाराष्ट्र में दलित संघर्ष का मील का पत्थर माना जाता है। इसी दिन तत्कालीन मराठवाड़ा के एकमात्र विश्वविद्यालय का नाम विस्तार कर डॉ. बाबासाहब आंबेडकर मराठवाड़ा विश्वविद्यालय कर दिया गया था। करीब 16 साल के संघर्ष को अचानक ही सफलता में बदल दिया गया था, जिसका श्रेय राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार को दिया गया था। हालांकि जातिगत समीकरणों के बीच एक कठिन निर्णय लेना उनके लिए मुश्किल था, मगर उन्होंने उसे कर अपनी राजनीतिक कुशलता का परिचय दिया। इतने बड़े कार्य को अंजाम देने के बाद भी उन्हें दलित समाज के बीच किसी मसीहा के रूप में पहचान नहीं जाता है। राजनीतिक धरातल पर भी उनके नजदीक या दल में कोई बड़ा दलित नेता नहीं है। कुछ साल पहले तक रामदास आठवले राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी प्रमुख पवार के करीबी माने जाते थे, लेकिन वह भी अब भारतीय जनता पार्टी के पाले में जा बैठे हैं।

औरंगाबाद और मराठवाड़ा डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की कर्मभूमि के रूप में जाना जाता है। यहीं उन्होंने पीपल्स एजुकेशन सोसायटी नामक संस्था की स्थापना के साथ शिक्षा को बढ़ावा देने का प्रयास किया था। इसी आलोक में मराठवाड़ा में विश्वविद्यालय के नाम विस्तार का संघर्ष वर्ष 1978 में आरंभ हुआ था, जब महाराष्ट्र विधानमंडल और विश्वविद्यालय प्रशासन ने विश्वविद्यालय को डॉ। बाबासाहब का नाम तो दे दिया लेकिन उसके विरोध में भी आवाजें उठने लगीं। इसके बाद दलित संघर्ष ने नया रूप लिया और अपनी लड़ाई को अंजाम तक पहुंचाया। यह संघर्ष मामूली नहीं था। इसका राजनीतिक स्वरूप भी था और जमीनी लड़ाई भी थी। गोलियां भी चलीं और लाठियां भी खानी पड़ीं। मगर संघर्ष करने वालों ने हार न मानते हुए डॉ. बाबासाहब आंबेडकर का नाम विश्वविद्यालय के फलक तक पहुंचाया। एक समाज की भावना और आकांक्षा को मूर्त रूप देने का काम वर्ष 1994 में तत्कालीन मुख्यमंत्री शरद पवार ने किया। बाद में उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर अपनी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस बना ली। किंतु दलितों के संघर्ष को विजय में बदलने का श्रेय उन्हें कभी नहीं मिल सका। हालांकि उनकी सत्ता के जाने के बाद शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी गठबंधन की सरकार आई। बाद में वर्ष 1999 से 2014 तक कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार चली। फिर भी दलित समाज उनके करीब नहीं आया, जितना वह बहुजन महासंघ अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया, बहुजन समाज पार्टी के साथ डटकर और मजबूती के साथ खड़ा रहा है। हालांकि इनमें से किसी भी दल के पास सत्ता की चाबी नहीं रही, मगर समाज की नब्ज पर पकड़ स्थायी रूप से बनी रही। वहीं पवार रिपब्लिकन पार्टी के आठवले के अलावा किसी अन्य दल या नेता को करीब नहीं ला पाए अथवा अधिक दिन तक साथ लेकर चल पाए।

साफ है कि पवार ने हमेशा सर्वहारा वर्ग के नेता के रूप में अपनी छवि को स्थापित किया, लेकिन उस समाज ने उन्हें पूर्ण स्वीकृति नहीं दी। इसका सीधा कारण उनके इर्द-गिर्द रहने वाले नेता बने रहे। राकांपा की सभी सरकारों में ज्यादातर मंत्री मराठा समाज के ही बने। यदि छगन भुजबल, धनंजय मुंडे, जितेंद्र आव्हाड़ जैसे कुछ नेताओं को छोड़ दिया जाए तो राकांपा के पास सिर्फ मराठा चेहरे हैं। पवार के भतीजे अजित पवार ही हमेशा से उपमुख्यमंत्री या फिर वित्त मंत्री बनते आए हैं। हाल के दिनों में मराठा आरक्षण आंदोलन में राकांपा नेताओं का अप्रत्यक्ष और प्रत्यक्ष सहभाग भी दलितों को दूर करने का समुचित आधार बनता है। वर्तमान में एक समय नाम विस्तार की घोर विरोधी रही शिवसेना के साथ सरकार बनाना दलित विचारधारा के पूर्णत: खिलाफ है। लिहाजा वर्तमान परिदृश्य में नजदीक आने की कोई संभावना भी नजर नहीं आती है। इसका एक और प्रमाण ढाई साल पहले लोकसभा चुनाव में भी नजर आया था, जब दलित-मुस्लिम गठबंधन के माध्यम से लोकसभा चुनाव में औरंगाबाद से ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के उम्मीदवार के रूप में इम्तियाज जलील को जीत मिल गई थी।

यदि राज्य से थोड़ा अलग मराठवाड़ा की भावनाओं पर भी नजर डाली जाए तो चुनावी राजनीति में राकांपा को दलितों का मजबूत साथ नहीं मिला। यहां तक कि आरक्षित सीटों पर भी दूसरे दलों ने अपनी जीत दर्ज की। हालांकि शिक्षा क्षेत्र से जुड़े मराठवाड़ा के दो निर्वाचन क्षेत्रों में गुंजाइश बनती थी, लेकिन राकांपा ने मराठा उम्मीदवारों को ही अधिक तवज्जो देकर अपना उम्मीदवार बनाया और लंबे समय तक उन्हें बरकरार भी रखा। यही स्थिति कुछ स्थानीय निकायों में भी रही, जहां दलितों को अपेक्षाकृत कम महत्व मिला और वह नाम विस्तार के उपहार को पाने के बाद भी पवार के प्रति सीधे तौर पर कृतज्ञ नहीं रहे। उन्होंने नाम विस्तार को अपने संघर्ष की विजय माना, न कि किसी के इनाम के रूप में स्वीकार किया। मगर इस बात को दूसरे अर्थो में देखें तो दलित संघर्ष केवल नाम विस्तार का नहीं था। वह एक प्रतीकात्मक रूप से अपने अधिकार और पहचान को स्थापित करने का था। डॉ। बाबासाहब आंबेडकर के नाम पर पहचान तो मिली, लेकिन अधिकारों का संघर्ष अभी जारी है। समाज में समता और समानता की लड़ाई में दलित अपने बलबूते पर ही संघर्ष कर रहे हैं। उन्हें उपकार से अधिक अब अपने अधिकारों को पाने की चिंता है, जो शायद पवार अपने राजनीतिक हितों के आगे अधिक देने में असमर्थ रहे। यही वजह है कि आज विश्वविद्यालय का नाम विस्तार करवाने के बावजूद दलितों में वह हाशिए पर ही हैं। शायद कुछ हद तक यह निजी मजबूरी है, जो उन्हें खुलकर मैदान पर खेलने से रोकती है।

टॅग्स :Bhimrao Ambedkarमहाराष्ट्रMaharashtra
Open in App

संबंधित खबरें

भारतमहाराष्ट्र महागठबंधन सरकारः चुनाव से चुनाव तक ही बीता पहला साल

भारतMahaparinirvan Diwas 2025: कहां से आया 'जय भीम' का नारा? जिसने दलित समाज में भरा नया जोश

भारतMahaparinirvan Diwas 2025: आज भी मिलिंद कॉलेज में संरक्षित है आंबेडकर की विरासत, जानें

भारतMaharashtra Civic Poll 2025 UPDATE: पूरे राज्य में मतगणना स्थगित, 21 दिसंबर को नए नतीजे की तारीख तय, सीएम फडणवीस ‘त्रुटिपूर्ण’ प्रक्रिया पर जताई नाराजगी

भारतMaharashtra Local Body Elections: महाराष्ट्र निकाय चुनाव के लिए वोटिंग शुरू, भाजपा और शिवसेना के बीच मुकाबला

भारत अधिक खबरें

भारतEPFO Rule: किसी कर्मचारी की 2 पत्नियां, तो किसे मिलेगी पेंशन का पैसा? जानें नियम

भारतरेलवे ने यात्रा नियमों में किया बदलाव, सीनियर सिटीजंस को मिलेगी निचली बर्थ वाली सीटों के सुविधा, जानें कैसे

भारतगोवा के नाइट क्लब में सिलेंडर विस्फोट में रसोई कर्मचारियों और पर्यटकों समेत 23 लोगों की मौत

भारतकथावाचक इंद्रेश उपाध्याय और शिप्रा जयपुर में बने जीवनसाथी, देखें वीडियो

भारत2024 में महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव, 2025 तक नेता प्रतिपक्ष नियुक्त नहीं?, उद्धव ठाकरे ने कहा-प्रचंड बहुमत होने के बावजूद क्यों डर रही है सरकार?