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ब्लॉग: मनोज जरांगे जैसे नहीं बन पा रहे ओवैसी

By Amitabh Shrivastava | Updated: July 20, 2024 10:34 IST

तेलंगाना के अलावा महाराष्ट्र ही एकमात्र ऐसा राज्य रहा, जहां एआईएमआईएम को अच्छा समर्थन मिला और दूसरे राज्यों की तुलना में यहां बेहतर स्थिति रही. इस दौरान वर्ष 2015 में बिहार के विधानसभा चुनाव में उसका कोई प्रभाव दर्ज नहीं हुआ.

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पिछले दिनों ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन(एआईएमआईएम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी मराठा आरक्षण आंदोलन के नेता मनोज जरांगे से बहुत प्रभावित दिखे. उन्होंने एक पत्रकार वार्ता में जरांगे को मुबारकबाद देते हुए यह तक कहा कि जरांगे अपने समाज के लिए खड़े हुए और उनकी वजह से ही आठ मराठा उम्मीदवार लोकसभा चुनाव में कामयाब हुए. इसके साथ ही उन्होंने जोड़ते हुए कहा कि मगर मुस्लिम समाज की कामयाबी क्यों नहीं हो रही है? मुस्लिम समाज को भी अपने अधिकारों के लिए इसी तरह लड़ना होगा. 

अब सवाल यह है कि मनोज जरांगे मात्र दस-ग्यारह महीने में इस ऊंचाई तक पहुंच गए हैं कि राजनीति उनके इर्द-गिर्द घूमने लगी है. चुनाव की हार-जीत का फैसला उनके नाम पर लिखा जाने लगा है. वहीं करीब सवा दशक से महाराष्ट्र की राजनीति में अपने कदम जमाने की कोशिश में लगे ओवैसी को बार-बार दो कदम आगे और दो कदम पीछे होना पड़ रहा है. लोकसभा से लेकर नगर पालिका तक उनके खाते में जो आज होता है, वह कल नहीं होता है.

मूल रूप से हैदराबाद की पार्टी के रूप में पहचान रखने वाली एआईएमआईएम ने बरास्ता नांदेड़ महानगर पालिका के चुनाव जीत महाराष्ट्र की राजनीति में कदम रखा था. उसने वर्ष 2012 के नांदेड़ मनपा चुनाव में 11 सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था. मगर पांच साल बाद वर्ष 2017 में हुए मनपा के चुनाव में वह एक भी सीट बचाने में विफल रही. इस चुनाव को एआईएमआईएम ने उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी(बसपा) के साथ गठबंधन कर लड़ा था. 

बावजूद इसके पार्टी बहुत जल्द ही नांदेड़ में मुसलमानों के बीच अप्रासंगिक नजर आई और कांग्रेस ने उससे सारी सीटें जीत लीं. हालांकि वर्ष 2012 में नांदेड़ में जीत से उत्साहित एआईएमआईएम ने महाराष्ट्र में विस्तार करने का निर्णय लिया था. उसे दूसरी सफलता वर्ष 2014 के विधानसभा चुनाव में मिली, जिसमें उसने तत्कालीन औरंगाबाद और मुंबई की एक सीट जीती. इसी क्रम में उसने मुंबई, सोलापुर और तत्कालीन औरंगाबाद सहित राज्य के अन्य शहरों में निकाय चुनाव लड़े, जहां उसे अपना खाता खोलने में सफलता मिली. यहां तक कि तत्कालीन औरंगाबाद महानगर पालिका में उसे 25 सीटें पाने में सफलता मिली. 

कुल मिलाकर तेलंगाना के अलावा महाराष्ट्र ही एकमात्र ऐसा राज्य रहा, जहां एआईएमआईएम को अच्छा समर्थन मिला और दूसरे राज्यों की तुलना में यहां बेहतर स्थिति रही. इस दौरान वर्ष 2015 में बिहार के विधानसभा चुनाव में उसका कोई प्रभाव दर्ज नहीं हुआ. उसे सीमांचल की छह सीटों पर विधानसभा चुनाव लड़कर सभी पर हार का सामना करना पड़ा. किंतु वर्ष 2020 में उसे पांच सीटों पर विजय मिली, हालांकि वे ज्यादा समय तक उसके खाते में नहीं रहीं. वर्ष 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी वह सभी 38 सीटें हार गई. ऐसा ही हाल दिल्ली नगर निगम चुनाव में सभी 50 सीटों पर चुनावी हार के रूप में सामने आया. इसके अलावा राजस्थान, गुजरात में भी प्रयास हुए, किंतु सफलता कहीं हासिल नहीं हुई.

फिलहाल लोकसभा में एआईएमआईएम के एकमात्र सांसद के रूप में ओवैसी सदन के भीतर और बाहर पुरजोर तरीके से मुस्लिमों की आवाज उठाते हैं. वह मुस्लिमों की ज्वलंत समस्याएं जैसे शिक्षा, बेरोजगारी, धार्मिक आधार पर भेदभाव को उठाकर मुस्लिमों के प्रति खासी सहानुभूति भी जुटाने का काम करते हैं. वह अपनी सभाओं में काफी उत्तेजक ढंग से बात रखते हैं, जिससे युवा मुस्लिमों में उनके प्रति एक जोश पैदा होता है. वह लगातार देशभर के मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों का दौरा करते हैं और वहां की समस्याओं को राष्ट्रीय चिंता की शक्ल देने में कोई कसर नहीं छोड़ते हैं. फिर भी वह तेलंगाना छोड़ हर स्थान पर राजनीतिक स्तर पर मात खा जाते हैं. उन्हें सार्वजनिक रूप से कहने में कोई गुरेज नहीं होता कि मनोज जरांगे के सामने आने से बीड़ में भारतीय जनता पार्टी(भाजपा) की नेता पंकजा मुंडे की शिकस्त हुई. 

हालांकि वह भी औरंगाबाद लोकसभा सीट पर अपने उम्मीदवार इम्तियाज जलील की कामयाबी के लिए पूरी शिद्दत के साथ खड़े थे. इससे पहले वर्ष 2019 के विधानसभा चुनाव में सांसद ओवैसी के साथ तत्कालीन सांसद जलील औरंगाबाद विधानसभा सीटों  के लिए पूरी ताकत के साथ खड़े थे. मगर चुनाव में दो सीट पर पराजय मिली और एक सीट को हाथ से गंवाना पड़ा. अब लोकसभा चुनाव में जब हार हुई है तो राजनीति के ‘मीर कासिम’ और ‘मीर जाफर’ की ओर इशारा किया जाने लगा. स्पष्ट है कि मराठा एकजुटता हर स्तर पर टूटती नहीं है, चाहे वह चुनाव की बात हो या फिर समाज की समस्याओं की हो तो फिर मुस्लिम एकता बंध कर क्यों नहीं रह पाती है. वह भी उस स्थिति में जब सांसद ओवैसी की तरह राष्ट्रीय स्तर का नेता खुले मैदान पर उतरता हो.

हालांकि, देश में 14 प्रतिशत और महाराष्ट्र में 11 फीसदी मुस्लिमों की आबादी का जब जिक्र किया जाता है तो वह धार्मिक आधार पर तो एकजुट हो जाती है, लेकिन राजनीतिक विचारधारा पर मुट्ठी बंधी नहीं रह पाती है. उसे अपने सही हितचिंतक को पहचानने में कोई सहायता नहीं मिलती है. उसे सामाजिक प्रभाव में अपने विचारों को ढाल कर कोई निर्णय लेना होता है. 

एआईएमआईएम प्रमुख जिस तरह राजनीतिक बयानबाजी करते हैं, उससे उनकी सामुदायिक नेता से राजनीतिक नेता की छवि अधिक बनती है. इसके चलते उनके खिलाफ आने वाले बयानों से मुकाबला कमजोर पड़ता है. वहीं मनोज जरांगे समाज की चिंता के अलावा किसी दूसरे विषय को अपने पास फटकने तक नहीं देते हैं. वह किसी दूसरे समाज से बैर लिए बिना जातिगत स्तर पर समाज को राजनीति से परे रखकर अपने आप को मजबूत बनाते हैं. 

जबकि ओवैसी लोकतांत्रिक प्रणाली की दुहाई देकर उपलब्ध राजनीतिक मंच पर खड़े होकर अपनी बात को कहना पसंद करते हैं. जरांगे अपनी मांगों को हर कीमत पर मनवाना जानते हैं, वहीं ओवैसी समस्याओं का हल लोकतांत्रिक रास्ते से चाहते हैं. मगर उसके लिए उनके पास कोई संख्या बल नहीं है. लिहाजा उनके समक्ष मनोज जरांगे को मुबारकबाद कहने के अलावा मुस्लिमों के लिए कोई और विकल्प नहीं है. कुछ हासिल नहीं होने की स्थिति में मुस्लिम समाज का भटकना स्वाभाविक है. ऐसे में यदि उसे ‘मीर जाफर’ और ‘मीर कासिम’ मिलते हैं तो दोष किसका? यह दिल पर हाथ रखकर तो सोचना ही होगा.

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