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ब्लॉगः अमेरिका का ताइवान पर 'दबदबा', श्रीलंका पर चीन की नजर ने भारत की बढ़ाई चुनौतियां!

By कृष्ण प्रताप सिंह | Updated: August 5, 2022 13:01 IST

15 जून, 2020 को गलवान घाटी में भारतीय सेना से भीषण संघर्ष के बाद वार्ताओं के अनेक दौर के बावजूद वह एलएसी के पास पक्के निर्माण करने से तो बाज नहीं ही आ रहा, सीमा पर अतिक्रमण कर नए गांव भी बसा ले रहा है। अपने कर्ज के बोझ तले दबे श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह का इस्तेमाल करके भी वह भारत की चुनौतियां बढ़ा ही रहा है।

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'दुनिया के चौधरी' अमेरिका को दो पक्षों की लड़ाई में दाल-भात में मूसलचंद बनकर कहें या विश्व शांति को खतरे में डालकर भी फायदा उठाने व स्वार्थ साधने का लाइलाज मर्ज है तो चीन की विस्तारवादी नीति दुनिया के लिए कुछ कम अंदेशे नहीं पैदा करती। भारत स्वयं इसका भुक्तभोगी है। 15 जून, 2020 को गलवान घाटी में भारतीय सेना से भीषण संघर्ष के बाद वार्ताओं के अनेक दौर के बावजूद वह एलएसी के पास पक्के निर्माण करने से तो बाज नहीं ही आ रहा, सीमा पर अतिक्रमण कर नए गांव भी बसा ले रहा है। अपने कर्ज के बोझ तले दबे श्रीलंका में हंबनटोटा बंदरगाह का इस्तेमाल करके भी वह भारत की चुनौतियां बढ़ा ही रहा है।

ऐसे में अमेरिकी कांग्रेस की अध्यक्ष नैन्सी पेलोसी की बहुप्रचारित ताइवान-यात्रा निर्विघ्न संपन्न हो जाने के बाद उसके दूसरे यूक्रेन में बदल जाने के अंदेशे से परेशान दुनिया ने भले ही थोड़ी राहत की सांस ली है, भारत की विदेश नीति एक बड़ी परीक्षा में उलझी हुई है। जानकारों की मानें तो इस मामले में भारत ने सावधानी से पक्ष चुनकर उपयुक्त कदम नहीं उठाए तो आगे चलकर उसको अंतरराष्ट्रीय राजनीति व राजनय में कई नई उलझनों का सामना करना पड़ सकता है। इस अर्थ में और कि जिस रूस को हम समय की कसौटी पर जांचे-परखे मित्र की संज्ञा देते हैं, उसने और पाकिस्तान ने, जिसे हम कुटिल पड़ोसी मानते आए हैं, चीन का साथ चुनने में तनिक भी देर नहीं लगाई है। उन्होंने दो-टूक कह दिया है कि पेलोसी का ताइवान दौरा अमेरिका द्वारा चीन को चिढ़ाने की कोशिश है। उत्तर कोरिया ने भी इस मामले में चीन का ही साथ दिया है और दुनिया फिर से दो गुटों में बंटती दिख रही है।

बात को ठीक से समझना चाहें तो जैसा कि विदेश नीति के जानकार वेदप्रताप वैदिक ने लिखा है, न ताइवान कोई महाशक्ति है और न ही पेलोसी अमेरिका की राष्ट्रपति। फिर भी उनकी यात्रा को लेकर दुनिया के माथे पर बल थे तो उसका कारण ताइवान के दूसरा यूक्रेन बन जाने का अंदेशा ही था। यह अंदेशा कितना बड़ा था, इसे इस तथ्य से समझ सकते हैं कि यूक्रेन में तो मुकाबला बहुत विषम है और रूस के मुकाबले यूक्रेन की कोई हैसियत ही नहीं है, लेकिन ताइवान में विवाद भड़कता तो उसके एक तरफ चीन होता और दूसरी तरफ अमेरिका। हम जानते हैं कि ये दोनों ही महाशक्तियां हैं और दोनों भिड़ जातीं तो तीसरा विश्व-युद्ध भी शुरू हो सकता था।

लेकिन अफसोस कि वह खतरा नहीं पैदा हुआ और चीन द्वारा ‘जो आग से खेलेंगे, खुद जलेंगे’ वाली अपनी धमकी पर अमल न करने से पेलोसी शांतिपूर्वक ताइवान जाकर लौट आईं तो युद्धोन्मादियों को जैसे दुनिया का राहत की सांस लेना अच्छा नहीं लग रहा। वे यह कहकर चीन का मजाक उड़ाने पर उतर आए हैं कि वह कागजी शेर सिद्ध हुआ है।

पेलोसी की यात्रा के वक्त चीन ने जिस तरह ताइवान के चारों तरफ लड़ाकू विमान और जलपोत डटा दिए थे, साथ ही अमेरिका ने भी अपने हमलावर विमान, प्रक्षेपास्त्र और जलपोत आदि तैनात कर दिए थे, उससे गलती से भी किसी तरफ से किसी हथियार का इस्तेमाल हो जाता तो भयंकर विनाश-लीला छिड़ जाती। अब, युद्धोन्मादियों के अविवेकी रवैये के बीच सबसे बड़ा सवाल यह है कि कहीं भारतीय विदेश नीति भी उनसे प्रभावित होकर यह समझने से इनकार तो नहीं कर देगी कि ताइवान के मसले पर अमेरिका व चीन का ही नहीं दुनिया के ज्यादातर देशों का रवैया अपने राष्ट्रीय स्वार्थों से प्रेरित रहा है और अमेरिका उसे लेकर चीन के खिलाफ बराबर खम ठोंक रहा है तो इसका एक बड़ा कारण दोनों के बीच अरसे से चला आ रहा व्यापार और बाजार पर कब्जे का युद्ध है जो कभी धीमा तो कभी बहुत तेज हो जाता है।

अमेरिका ताइवान पर वैसा ही दबदबा दिखाने के फेर में है, जैसा श्रीलंका पर चीन। दुर्भाग्य से भारत इन दोनों में से किसी के भी असर से अछूता नहीं रह सकता। इसलिए उसे अपनी विदेश नीति को फिर से परखने की जरूरत है। यह देखने की भी कि फिलहाल न अमेरिका उसका सगा हो सकता है, न चीन। यह समझने की भी कि पिछले कुछ वर्षों में गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत से विचलित होकर, पुराने मित्र देशों की नाराजगी की कीमत पर सैन्य और सामरिक शक्तियों के आगे झुकने से उसने क्या-क्या नुकसान झेले हैं और आगे क्या-क्या झेलने पड़ सकते हैं।

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