ब्लॉग: बढ़ती पैदावार के साथ कृषि का प्राकृतिक स्वरूप भी आवश्यक
By लोकमत समाचार ब्यूरो | Updated: August 5, 2024 12:25 IST2024-08-05T12:23:46+5:302024-08-05T12:25:54+5:30
अब भारत उस दौर से निकल कर एक ऐसे समय में आ पहुंचा है, जहां वह दुनिया का पेट भर रहा है. यह देश में खाद्य अधिशेष (खपत से ज्यादा खाद्यान्न की पैदावार) के कारण हुआ.

(प्रतीकात्मक तस्वीर)
एक समय था जब देश में अनाज की कमी के चलते दूसरे देशों से अनाज खरीदना पड़ता था. मगर अब भारत उस दौर से निकल कर एक ऐसे समय में आ पहुंचा है, जहां वह दुनिया का पेट भर रहा है. यह देश में खाद्य अधिशेष (खपत से ज्यादा खाद्यान्न की पैदावार) के कारण हुआ. इस बात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शनिवार को नई दिल्ली में कृषि अर्थशास्त्रियों के 32वें अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के उद्घाटन अवसर पर रेखांकित किया.
भारत में 65 वर्षों के बाद आयोजित सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने यह भी बताया कि भारत दुनिया में दूध, दालों, मसालों का सबसे बड़ा तथा खाद्यान्न, फल, सब्जी, कपास, चीनी और चाय का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है. पिछली बार जब भारत ने इस सम्मेलन की मेजबानी की थी, तब उसे आजादी मिले ज्यादा समय नहीं हुआ था और उस समय देश की खाद्य सुरक्षा दुनिया के लिए चिंता का विषय थी.
अब भारत वैश्विक खाद्य और पोषण सुरक्षा के लिए समाधान प्रदान कर रहा है. अवश्य ही इस ऊंचाई तक पहुंचने के लिए सरकार और देश के कृषि वैज्ञानिकों ने काफी परिश्रम किया. किंतु नए दौर की नई चिंताओं ने भी जन्म ले लिया है. रासायनिक खेती से जमीन को बहुत अधिक नुकसान हो रहा है, जिसका विकल्प जैविक खेती ढूंढ़ा गया, जो भारत जैसे कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाले देश के लिए कारगर साबित नहीं हो पा रहा है.
इसे देख केंद्र सरकार ने प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देना आरंभ किया है. हिमाचल प्रदेश से लेकर गुजरात तक अनेक किस्म के प्रयोगों के बाद अब बजटीय प्रावधानों के साथ देश भर में प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहन दिया जाएगा. इसके अलावा रासायनिक खाद और हाइब्रिड किस्मों से खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोत्तरी तो हुई है, लेकिन अनेक स्वदेशी पैदावारों पर भी असर पड़ा है.
गेहूं-चावल से लेकर फल-सब्जी के हाइब्रिड रूप सामने हैं. वे कम समय में पैदावार देते हैं, लेकिन पौष्टिकता के स्तर पर उनमें गिरावट या उत्पादन पर रासायनिक प्रभाव दिखता है. इसके चलते कुछ पुरानी किस्में गायब ही हो चुकी हैं. इसका ध्यान आते ही बीते साल से सरकार ने मोटे अनाज के रूप में कई पुराने अनाजों की पैदावार को प्रोत्साहन देना आरंभ किया है.
इसी के बीच देश में अनाज की खपत में 1999-2000 से 2022-23 की अवधि में लगातार गिरावट दर्ज हो रही है. सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) की रिपोर्ट के अनुसार शहरी भारत में अनाज की खपत 2011-12 में 9.32 किलोग्राम से घटकर 2022-23 में 8.05 किलोग्राम हो गई है, वहीं ग्रामीण परिवारों में यह इसी अवधि के दौरान 11.23 किलोग्राम से घटकर 9.61 किलोग्राम हो गई है.
यह देश में कहीं न कहीं खाद्यान्न पर घटती निर्भरता का संकेत भी है. इसलिए आंकड़ों और उपलब्धता के लिहाज से स्थितियां बेहतर हैं और आगे भी बेहतर होंगी. लेकिन खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने की कोशिश में गुणवत्ता और देशी किस्मों से समझौता करने से दीर्घकालीन नुकसान होगा, जिससे बचना होगा. तभी भारत की असली साख दुनिया में दिखाई देगी. अन्यथा उत्पादन तो बढ़ता जाएगा, मगर कृषि क्षेत्र पर स्वदेशी अभिमान घटता जाएगा.